बुंदेलखण्ड में बाकला की फसल की अपार संभावनाएं
बाकला प्राचीन काल से उगाई जाने वाली दलहनी फसल है । बाकला को फावाबीन एवं हॉर्स बीन आदि नामों से भी जाना जाता हैं। यह प्रोटीन का प्रमुख स्रोत है। इसमें 24-25 प्रतिशत प्रोटीन पाया जाता हैं। बाकला की हरी फलियों का उपयोग सब्जी में किया जाता हैं। इसकी कच्ची फलियों को छोटे-छोटे टुकड़ो में काटकर आलू व अन्य सब्जियों के साथ मिलाकर मिश्रित सब्जियाँ बनाई जा सकती हैं। इसके सूखे बीजों को दाल बनाने में उपयोग में लिया जाता हैं इसकी पत्तिया कहीं-कहीं पर हरी सब्जी के काम आती हैं । और अन्य फसल अवशेष भूसा के रूप में मवेशियों के लिए काम में आता हैं । इसकी फलियाँ लेग्यूम श्रेणी की होने के कारण ये वायुमण्डलीय नत्रजन को जमीन में स्थापित करती हैं । जो मृदा के स्वास्थ्य को सुधारता है। बाकला को प्रमुख रूप से भारत में उत्तरप्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश में उगाया जाता हैं । झाँसी सहित बुन्देलखण्ड के अन्य जनपदों में बाकला की फसल को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। अनेक किसानों ने भ्रमण करने के बाद बाकला की खेती करने की इच्छा समय-सयम पर व्यक्त की है। दलहनी प्रजाति होने की वजह से इस फसल को कम पानी एवं वर्षा आधारित क्षेत्रों के लिए एक बहुत महत्त्वपूर्ण फसल के रूप में अपनाने की अपार संभावनाएं हैं । बाकला की बुवाई अक्टूबर के आखिरी पखवाड़े में कर देनी चाहिए । इसको नवम्बर के पहले तथा दूसरे सप्ताह में भी बो सकते हैं । इसकी बुवाई के लिए बीज की मात्रा दाने की फसल के लिए 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और चारे की फसल के लिए 120 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर होती हैं। बाकला के दानों की औसत पैदावार 30-35 कुन्टल प्रति हेक्टेयर होती है और हरा चारा की 40-50 टन प्रति हेक्टेयर है।
पॉपुलर की खेती कर किसान बढ़ाएं अपनी आमदनी
झाँसी। रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा के मार्गदर्शन में पॉपुलर की खेती कर आय बढ़ाने की सलाह दी है । कृषि वैज्ञानिक डॉ. राकेश नेगी एवं डॉ. मनमोहन डोवरियाल ने बताया कि बुंदेलखंड क्षेत्र में वर्षा की कमी के कारण यहां की फसल नष्ट हो जाती है, इससे बचाने के लिए किसान फसल के साथ वृक्ष लगाएं ताकि उन्हें कुछ आमदनी हो सके । किसान भाई के वृक्ष को अपनी मेड़ पर भी लगा सकते हैं । कृषि वानिकी में इन वृक्षों को विशेष महत्व है क्योंकि सर्दियों में इनके पत्ते गिर जाने से रबी की फसल को कम नुकसान होता है । पॉपुलर का वृक्ष सीधा बढ़ता है इसलिए इसकी छाया खरीफ फसलों को भी कम ही नुकसान देती है। पहले 2 वर्ष में पॉपुलर के साथ रबी व खरीफ की दोनों फसलें उगाई जा सकती हैं तीसरे साल के बाद छाया सहने वाले फसलों जैसे हल्दी, अदरक लाभदायक रहती हैं। पॉपुलर के लिए गहरी और उपजाऊ भूमि अच्छी रहती है । किसान भाई इसे नहर के पास वाली भूमि पर लगाएं ताकि सिंचाई की व्यवस्था हो । अगर इसे सूखे भूभाग में लगाते हैं तो इसकी वनस्पतिक वृद्धि सामान्य से कम होगी । किसान पॉपुलर के पौधे स्वंय भी तैयार कर सकते हैं इसके लिए वह पूर्व में लगे 1 साल पुराने पौधे से कलम निकाल सकते हैं । तीन-चार आंखों वाली 20 से 25 सेंटीमीटर लंबी कलमों को 15 जनवरी से 15 फरवरी तक लगा दें। कलम लगाते समय 2/3 भाग भूमि के अन्दर तथा 1/3 भाग बाहर रखें। इसके बाद क्यारियों में नमीं बनाए रखने के लिए सिंचाई करते रहें । 6 महीने बाद यह खेत में रोपण करने के लिए तैयार हो जाता है । किसान इसे जनवरी से फरवरी में या जून से अगस्त में अपने खेत में कृषि वानिकी के अंतर्गत 5*4 मीटर में व खेत की मेड के पास 2 या 3 मीटर का फासला रखें। इसके लिए 1 मीटर का गड्ढा खोदे तथा उस मिट्टी में 3 किलो खाद 100 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट तथा 250 ग्राम नीम की छाल मिला दें। शुरू के 2 वर्ष में 15 दिनों के अंतराल में सिंचाई दें तथा उसके बाद सूखे मौसम में जब आवश्यक हो तभी सिंचाई करें। 100 ग्राम यूरिया प्रति पौधे की दर से प्रति वर्श दें तथा इसके डालने से पूर्व सिंचाई जरूर करें। किसान भाई 6 से 8 वर्ष के बाद इसे काट सकते हैं वर्तमान में पॉपुलर के एक वृक्ष की कीमत 5000 रुपए के लगभग है। इसकी लकड़ी का उपयोग माचिस, प्लाईवुड, पैकिंग के लिए बॉक्स, खेल का सामान आदि बनाने के लिए काम आती है । कृषि फसलों से मिलने वाली आमदनी इसके अलावा होती है, इससे किसान अपनी आमदनी में वृद्धि कर सकते हैं।
मटर की फसल को अभी चूर्णिल आसिता रोग से बचाएँ
झाँसी। रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा के मार्गदर्शन में मटर की फसल को आसिता रोग से बचाने की सलाह दी है। कृषि वैज्ञानिक डॉ. अर्जुन लाल ओला एवं डॉ प्रशान्त जांभुलकर ने बताया कि मटर की खेती व्यवसायीक स्तर पर की जाती है और चूर्णिल आसिता रोग लगभग हर मटर की खेती में लगता है। शीघ्र पकने वाली मटर की प्रजातियों में इससे हानि कम होती है लेकिन पछेती प्रजातियों में इसका प्रकोप ज्यादा होता है जिसके कारण खेत में फलियों की संख्या में 20 से 30 प्रतिशत तक कमी हो जाती है। इस कवक जनित रोग के कारण पौधों की सबसे पहले पत्तियां प्रभावित होती हैं और बाद में तनों और फली पर भी असर होता है। पत्तियों की दोनों सतह पर सफेद चूर्ण की तरह धब्बे बनते हैं। पहले धब्बे छोटी-छोटी रंगहीन कलंक या चित्तियों के रूप में बनते हैं लेकिन बाद में इनके चारों ओर चूर्णी समूह फैल जाता है। रोगी पौधे छोटे रह जाते हैं और उन पर फलियां भी कम और हल्की लगती हैं। पत्तियों के जिस स्थान पर परजीवी का कवक जाल फैला रहता है । वहां की कोशिकायें ऊतक क्षय की वजह से मर जाती हैं। इस रोग से बचाने के लिए रोग के लक्षण दिखाई देने पर 25 से 30 किलोग्राम प्रति हे. की दर से गंधक चूर्ण (200 मेंश) छिड़कना चाहिए या सल्फैक्स 25 ग्राम प्रति लीटर पानी या ट्राईडीमिफोन (0.05) या डाइनोकोप (0.05) छिड़काव करें।
गेहूं में नाइट्रोजन की दूसरी खुराक का प्रयोग करें
झाँसी। रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा के मार्गदर्शन में नाइट्रोजन की दूसरी खुराक का प्रयोग करने की सलाह दी है। कृषि वैज्ञानिकडॉ. संदीप उपाध्याय एवं डॉ अर्पित सूर्यवंशी ने बताया कि गेहूं में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश खाद की अनुशंसित दर 100ः60ः40 कि.ग्रा. प्रति हे. है तथा इसे दो बराबर भागों में प्रयोग किया जाता है। बुवाई के समय खाद की प्रथम खुराक में यूरिया 50 कि.ग्रा. फॉस्फोरस 60 कि.ग्रा. और पोटाश की 40 कि.ग्रा. मात्रा बुआई के समय तथा बॉकी की आधी खुराक यानि 50 कि.ग्रा. नाइट्रोजन प्रति हे. की दर से यूरिया की दूसरी विभाजित खुराक का प्रयोग अवश्य करें। देर से बोये गए गेहूं में यह बारिश बहुत लाभदायक है जिससे भूमि में पर्याप्त नमी हो गयी है। गेहूँ की फसल अपने जीवन के प्रारंभिक 60 दिनों में आवश्यकता की 85 प्रतिशत से अधिक नाइड्रोजन ले लेता है। अगर खेत में अत्यधिक पानी जमाव हो तो पानी को निकलने दें जिससे पौधे की जड़ें भी मजबूत होगी। किसान नाइट्रोजन को देने के लिए 2 मिली. नैनोयूरिया प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें तो अच्छा लाभ मिलेगा। नैनोयूरिया उपलब्ध न होने पर प्रति हेक्टेयर 110 किलोग्राम यूरिया की टॉपड्रेसिंग करें।
आंवला के अच्छे पैदावार के लिए अभी से करे तैयारी
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा के मार्गदर्शन में आंवला के अच्छे पैदावार की तैयारी अभी से करने की सलाह दी हैं । फलविज्ञान विभाग के वैज्ञानिक डॉ. गोविन्द विश्वकर्मा एवं डॉ. गौरव शर्मा बताते है कि फलो की तुड़ाई के बाद आंवला की अगली फसल के लिये पौधों को तैयार करे क्योंकि फरवरी माह से लेकर मार्च माह तक इसमें फूल आ जाते है। फूल आने से पहले बागो की अच्छे से साफ-सफाई कर ले। अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिये प्रति पौध (दस वर्ष या उससे अधिक वर्ष के वृक्षो के लिये) के हिसाब से लगभग 10 कि.ग्रा. गोबर की खाद, 400-450 ग्रा. यूरिया, 230-250 ग्रा. फास्फोरस एवं 600-650 ग्रा. पोटाश की आवश्यकता पड़ती है। यह पूरी मात्रा पौधो को दो बार मे दिया जाता है । प्रथम खुराक मे गोबर की खाद (10 कि.ग्रा.) एवं फास्फोरस (250 ग्रा.) की पूरी मात्रा तथा यूरिया (220 ग्रा.) एवं पोटाश (320 ग्रा.) की आधी मात्रा फरवरी-मार्च माह मे दे तथा यूरिया एवं पोटाश की शेष आधी बची मात्रा अगस्त माह के आखिरी सप्ताह मे पौधो में दे । क्षारीय मृदा की समस्या वाले क्षेत्रो मे खाद एवं उर्वरक के साथ 100 से 500 ग्रा. बोरान एवं जिंक पौधो के उम्र के अनुसार देना फायदेमन्द होता है। खाद एवं उर्वरक सदैव पौधो के थाले मे ही प्रदान करे तथा खाद एवं उर्वरक देने के तुरन्त बाद सिंचाई भी अवश्य करे ।
सर्दी में पाले से करें फसलों की सुरक्षा
झाँसी। रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा के मार्गदर्शन मेंपाले से फसलों का बचाव के बारे में सलाह जारी की है। वैज्ञानिक डॉ. मनोज कुमार सिंह ने बताया कि शीतलहर एवं पाले से सर्दी के मौसम में सभी फसलों को नुकसान होता है। टमाटर, मिर्च, बैंगन आदी सब्जियों पपीता एवं केले के पौधों एवं मटर, चना, अलसी, सरसों, जीरा, धनिया, सौंफ में सबसे ज्यादा 80 से 90 प्रतिशत तक नुकसान हो सकता है। अरहर में 70 प्रतिशत, गन्ने में 50 प्रतिशत एवं गेहूं तथा जौ में 10 से 20 प्रतिशत तक नुकसान हो सकता है। आसमान साफ रहने, तापमान अधिक गिरने हवा नहीं चलने पर पाला पड़ने की आशंका रहती है। इसको देखते हुए सरसों, टमाटर, बैंगन अन्य फसलों को पाले से बचाव के लिए खेत के उत्तर-पूर्व दिशा में रात को 10 से 12 बजे के बीच दो-तीन स्थानों पर कूड़ा, कचरा जलाएं। संभव हो तो फसल में सिंचाई करनी चाहिए। सरसों की बोआई के समय ही जिप्सम का प्रयोग करने से पाले का असर कम होता है। फसलों को पाले से बचाव के लिए थायोयूरिया आधा ग्राम या 2 ग्राम घुलनशील गंधक प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। इससे फसल को पाले से 15 दिन बचाया जा सकता है। आवश्यकता होने पर पुनः छिड़काव करें। खेत के दोनों किनारों से प्लास्टिक की रस्सी लेकर ओस को झड़ा दिया जाए तो भी फसल को पाले से बचाया जा सकता है।
मसूर की फसल को माहूँ कीट से बचाएं
झाँसी। रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा के मार्गदर्शन मेंमसूर की फसल को माहूँ से बचने की सलाह दी है। वैज्ञानिक डॉ. सोनिया देवी और डॉ. अंशुमान सिंह ने बताया की माहूँ फसलों पर हमला करने वाले कीटों में से एक है। मौजूदा मौसम में बादल छाए रहने की स्थिति इस कीटका प्रकोप बढ़ जाता है। यह कीट पौधे से रस को चूस लेती है जिसके परिणामस्वरूप पौधा पीला होकर मुरझा जाता है। इसका गंभीर संक्रमण पौधों के विकास में बाधा डालता है जिससे फसल की उपज में काफी कमी आ जाती है। यह कीट विभिन्न वायरस संचारित करता है। संक्रमण के दौरान यह एक चिपचिपा पदार्थ उत्सर्जित करता है जिससे पत्तियों पर कालिख मोल्ड विकसित हो जाती है, जिससे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया प्रभावित होती है। माहूँ की उपस्थिति का पता लगते ही खाली टिन के 10 डब्बों को पीला रंग से पोत कर उनके ऊपर एक परत पारदर्शी ग्रीस लगाये और लम्बे लकड़ी के डंडे पर लगाकर 25 मीटर की दूरी पर इन सभी डब्बों को एक हेक्टेयर क्षेत्र में लगा दें। एसीटामिप्रिड 20 एस.पी. की 50 ग्राम 600 लीटर पानी में मिलाकर या इमिडाक्लोपिड 17.8 एस.एल. 0.2 मिली. प्रति लीटर पानी के साथ मिलाकर प्रति हे. की दर से छिड़काव करें।
गोभीवर्गीय सब्जियों में लगने वाले प्रमुख कीट एवं उनके रोकथाम के उपाय
झाँसी। रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा के मार्गदर्शन में गोभीवर्गीय सब्जियों में लगने वाले प्रमुख कीट एवं रोकथाम की सलाह जारी की है। कृषि वैज्ञानिक डॉ. सुन्दर पाल और डॉ. अर्जुन लाल ओला ने बताया कि बुंदेलखंड में इन सब्जियों की खेती किसानो द्वारा की जा रही है। इस फसलों पर इस समय मुख्यतः डायमंड बेक तितली, जाला बनाने वाली इल्ली, तना छेदक, तम्बाकू की इल्ली और माहू का आक्रमण होता है। डायमंड बेक तितली की इल्लियां हरे रंग के साथ शरीर पर छोटे बाल धारण किए होती है। यह इल्ली पत्तियों में छोटे छोटे छिद्र बनाती है एवं वर्ध्दी कर रहे भाग को खाकर क्षतिग्रस्त कर देती है जिससे पौधांे पर कर्ड नही बन पाते। जाला बनाने वाली इल्लियां लाल सिर और शरीर पर लम्बी धारियों के साथ छोटे बाल धारण किये होती है। यह इल्लियां समूह में पत्तियों के नीचे रहकर पत्तियों के हरे भाग को खाकर पत्तियों का कंकाल बना देती है जिसके कारण पौधों में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया प्रभावित होती है तथा उपज कम होती है। तना बेधक इल्लियां काले सिर के साथ भूरे रंग की होती हैं। इनकी इल्लियां भी जाला बनाती हैं और पौध रोपण के तुरंत बाद तने में छेद बनाना आरम्भ करती है। जिसके कारण पौधा अपनी वृद्धि नही कर पाता। तम्बाकू की इल्लियां गहरे भूरे रंग की होती है और समुह में रहना पसंद करती है। यह भी पत्तियों के हरे भाग को खाकर, पत्तियों को जालीनुमा बना देती हैं। इसकी इल्लियां गोभी में छेद कर नुकसान पहुंचाती है। माहू पत्तियों के नीचे बैठकर पौधे से रस चूसती रहता है। इन कीटांे से बचाव के लिए इल्लियों को चुनकर मार दे। साथ ही 4 प्रतिशत नीम तेल का घोल बनाकर 10 दिनों के अन्तराल पर दो बार छिड़काव करें। सभी प्रकार की इल्लियों के लिए क्लोरोपाईरिफोस की 5 मिलीलीटर या बी.टी. की 4 ग्राम या एमामेकटिन बेन्जोएट 5 एस.जी. की 0.03 ग्राम मात्रा को एक लीटर पानी में मिलाकर 15 दिनों के अन्तराल पर दो बार छिड़काव करें। 12 फेरोमोने ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से खेत पर लगायें। रसायन छिड़काव के एक सप्ताह बाद ही फसल की तुड़ाई करें।
मटर में खरपतवार नियंत्रण की सलाह
झाँसी। रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा के मार्गदर्शन मेमटर की फसल में खरपतवार नियंत्रण के लिए से सलाह दी है। कृषि वैज्ञानिक डॉ.नीलम बिसेन और डॉ. अंशुमाान सिंह ने बताया कि मटर फसलों का खरपतवारों के कारण बहुत भारी हानि होती है। बथुआ, सेंजी, कृष्णनील, सतपती, दूब, जंगली मटर और अकरी आदि मटर के प्रमुख खरपतवार हैं तथा इसके प्रबंधन के लिये कम से कम दो निंदाई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है। पहली निंदाई 25 से 30 दिन में तथा दूसरी निंदाई 60 से 70 दिन में करनी चाहिए। निंदाई के समय पौधे को उलटने पलटने से बचाना चाहिये, जिससे पौधा टूटे नहीं और अच्छा उत्पादन मिल सके। जिन क्षेत्रों में मजदूरों की समस्या है वहां रासायनिक विधि से भी नियंत्रण किया जा सकता है इसके लिए क्युजालोफाप 40-50 ग्राम प्रति हेक्टेयर या मेट्रीबुजिन 250 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बुआई के 15-20 दिन के बाद छिडकाव करे । यदि फसल 35-40 दिन की हो गई हो तो इमेजथापयर 100 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 500 लीटर पानी में छिडकाव करके खरपतवार का नियंत्रण कर अच्छी उपज प्राप्त किया जा सकता है।
मटर फसल की सामयिक देखभाल
झाँसी। रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा के मार्गदर्शन में मौसम के अनुरूप मटर की सामयिक देखभाल की सलाह जारी की है। कृषि वैज्ञानिक डॉ.नीलम बिसेन एवं डॉ योगेश्वर सिंह ने बताया किइन दिनों हो रहे मौसमी बदलाव को देखते हुए किसानों को सलाह है कि इस परिस्थिति में कीट और बीमारियों के लगने के लिए मौसम अनुकूल है। इस समय फल भेदक इल्ली बहुत लगती है, अतः किसान भाई मटर के खेत की निगरानी करते रहें, यदि समय रहते इस इल्ली का प्रकोप नहीं रोका गया तो फसल की पैदावार में 10 से 90 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है। इसके लिए समय रहते इल्ली नाशक दवाओं का छिड़काव करना चाहिए इसके नियंत्रण हेतु 5 फेरोमोन ट्रैप और 2 प्रकाश प्रपंच प्रति हे. की दर से खेतों में लगाएं तथा नीम के बीज आर्क (5 प्रतिशत) प्रति लीटर पानी के साथ या इंडोक्साकारब 14.5 एस.सी. की 200 मिली दवा को 600 लीटर पानी में मिलाकर या इमामेक्टिन बेन्जोएट 5 एस जी की 0.2 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर का की दर से छिड़काव करें। मौसम खुलने पर मटर की फसल में यूरिया या पोटेशियम सल्फेट 2 प्रतिशत के घोल का छिड़काव करें। जिससे मटर की फलियों की सख्याँ में बढोत्तरी होती है साथ ही फसल का पाले से भी बचाव होता है।
अभी गेहूं में खरपतवार नियंत्रण करें
झाँसी। रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा के मार्गदर्शन में गेहूं में खरपतवार नियंत्रण की सलाह जारी की है। कृषि वैज्ञानिक डॉ. गुंजन गुलेरिया और डॉ. योगेश्वर सिंह ने बताया कि गेहूं में किसान खरपतवारों के नियंत्रण पर ध्यान नहीं देते हैं जिससे उपज 37 प्रतिशत तक कम हो जाती है। खरपतवार फसल के पोषक तत्व, नमीं, प्रकाश, स्थान आदि के लिए प्रतिस्पर्धा करके फसल की वृद्धि, उपज एवं गुणों में कमी कर देते हैं।गेहूं में गेहूंसा (गेहूं का मामा) एवं जंगली जई (सकरी पत्ती) और चौड़ी पत्ती प्रकार के बथुआ, सेन्जी, कृष्णनील, हिरनखुरी, चटरी-मटरी, अकरा-अकरी, जंगली गाजर, ज्याजी, खरतुआ, सत्याशी आदि खरपतवार पाए जाते हैं। खरपतवार को निवारण विधि से खेतों में प्रवेश करने से रोका जा सकता है, जैसे प्रमाणित बीजों का प्रयोग, अच्छी सड़ी गोबर एवं कम्पोस्ट खाद का प्रयोग, सिंचाई की नालियों की सफाई, पलवार का उपयोग, खेत की तैयारी एवं बुवाई के प्रयोग में किये जाने वाले यंत्रों का प्रयोग से पूर्व अच्छी तरह से साफ-सफाई इत्यादि। खरपतवारों के नियंत्रण के लिए विभिन्न तरह के खरपतवार रसायन का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। सकरी पत्ती खरपतवारों के नियंत्रण के लिए सल्फोसल्फ्यूरॉन /25 ग्राम प्रति हे0, फिनोक्साप्राप-पी /80-120 ग्राम प्रति हे., क्लोडीनाफॅाप प्रोपैरजिल / 400 ग्राम प्रति हे. तथा चौड़ी पत्ती के खरपतवारों नियंत्रण के लिए 2-4 डी सोडियम सॉल्ट /500 ग्राम प्रति हे., कार्फेन्ट्राजॉन इथाइल /50 ग्राम प्रति हे., मेट सल्फ्यूरॉन इथाइल /4 ग्राम प्रति हे. इस्तेमाल कर सकते हैं। दोनो (सकरी पत्ती और चौड़ी पत्ती) तरह के खरपतवार नियंत्रण के लिए सल्फोसल्फ्यूरॉन/25 ग्राम प्रति हे. मेट सल्फोसल्फ्यूरॉन मिथाइल /4 ग्राम प्रति हे., सल्फोसल्फ्यूरॉन / 25 ग्राम प्रति हे. कार्फेन्ट्राजॉन इथाइल / 50 ग्राम प्रति हे. इस्तेमाल कर सकते हैं।
आलू की फसल को झुलसा रोग से बचाएँ
झाँसी। रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा के मार्गदर्शन में आलू की फसल को झुलसा रोग से बचाने की सलाह जारी की है। कृषि वैज्ञानिक डॉ. अर्जुन लाल ओला और डॉ. प्रशान्त जांभुलकर ने बतायाआलू उत्तर प्रदेश में उगाई जाने वाली एक महत्व पूर्ण फसल है। आजकल वातावरण में नमीं अधिकता व तापमान में गिरावट होने के कारण आलू की फसल में झुलसा रोग लगने की संभावना बढ गई हैं। यह रोग फाइटोपथोरा नामक कवक के कारण फैलता है। इस बीमारी में आलू के पौंधो की पत्तियां झुलस जाती हैं तथा पत्तियों की निचली सतहों पर सफेद रंग के गोले बन जाते हैं, जो बाद में भूरे व काले हो जाते हैं। प्रभावित पौंधे में आलू के कंदों का आकार छोटा हो जाता है और उत्पादन में कमीं आ जाती है। इस रोग के कारण आलू की पूरी फसल नष्ट होने की संभावना होती है। अतः किसान भाइयों को अपनी फसल को इस रोग से बचाने के लिए क्लोरोथलोनील 0.2 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से या मैंकोजेब (75 फीसदी) का 0.2 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से या मेटालेक्सिल 0.25 ग्राम या मेफेनोक्साम 1 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए।
अभी काला माहू से मटर फसल के बचाव की जरूरत
झाँसी। रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा के मार्गदर्शन में काला माहू से मटर की फसल को बचाने की सलाह दी है। कृषि वैज्ञानिक डॉ.ऊषा और डॉ. माईमॉम सोनिया देवी ने बताया कि यह एक काले रंग का छोटा सा कीट होता है। जो पौधों की पत्तियों, तनों और फूलों से रस चूसता है जिससे पत्तियां पीली होकर सिकुड़ जाती हैं। और फूल पूर्णतया सूखकर गिर जाते हैं। पौधों का रस चूसने के उपरांत ये कीट एक शहद जैसे पदार्थ का स्त्राव करते हैं। जिन पर काले रंग के फफूंद पनपने लगते हैं। जिससे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया रुक जाती हैं। जिससे उपज में भारी कमी आती है। इसके नियंत्रण के लिए माहू की उपस्थिति का पता लगते ही खाली टिन के 10 डब्बों को पीला रंग से पोत कर उनके ऊपर एक परत पारदर्शी ग्रीस लगाये और लम्बे लकड़ी के डंडे पर लगाकर 25 मीटर की दूरी पर इन सभी डब्बों को एक हेक्टेयर क्षेत्र में लगा दें। एसीटामिप्रिड 20 एस.पी. की 50 ग्राम 600 लीटर पानी में मिलाकर या इमिडाक्लोपिड 17.8 एस.एल. 0.2 मिली. प्रति लीटर पानी के साथ मिलाकर या थाइमेथोक्सम 25 डब्लू जी/0.006 प्रति हे. की दर से छिड़काव करें।
बुंदेलखण्ड में स्ट्राबेरी की फसल की अपार संभावनाए
झाँसी। स्ट्राबेरी दिल जैसी बनावट बाली स्ट्राबेरी फल को सबसे आर्कषक फल कहा जाता है। चटक लाल रंग का दिखने बाला यह फल जितना स्वादिष्ट है उतना ही सेहतमंद भी होता है। स्ट्राबेरी में विटामिन ए, बी, सी, एंटीऑक्सीडेंट, खनिज पदार्थ प्रचुर मात्रा में पायी जाती है। सौंदर्य प्रसाधन में भी इन फलों का प्रयोग किया जाता है। वजन कम करने में सहायक यह कम कैलोरी वाला फल है, जिसके सेवन से वजन घटाया जा सकता है। इसका रसदार खट्टा-मीठा स्वाद लोगों को वेहद भाता है। स्ट्राबेरी को झाँसी सहित बुन्देलखण्ड के अन्य जनपदों में भी प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। अनेक किसानों ने विश्वविद्यालय भ्रमण करने के बाद स्ट्राबेरी की खेती करने की इच्छा समय-सयम पर व्यक्त की है। स्ट्राबेरी की बुआई 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक होती है। अच्छे फलों का मूल्य बाजार में लगभग 250 से 300 रूपये प्रति किलोग्राम तक प्राप्त की जा सकती है। शहरी उपभोक्ताओं के बीच में इस फल की काफी मांग देखी गई है। विश्वविद्यालय भ्रमण को आये किसानों को स्ट्राबेरी की फसल तथा इसकी तकनीक से अवगत कराया गया।
बुंदेलखंड क्षेत्र में चितकबरा (पेन्टेड बग) कीट से सरसों की फसल की बचाव
झाँसी। रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा के मार्गदर्शन में चितकबरा कीट से सरसों की फसल को बचाने की सलाह जारी की है। कृषि वैज्ञानिक डॉ. विजय कुमार मिश्रा और डॉ. अर्तिका सिंह ने बताया कि यह कीट काले रंग का होता है जिस पर कालेे पीले, व नारंगी रंग के धब्बे होते है। इस कीट के शिशु एवं वयस्क दोनों ही दोनों की पौधों को नुकसान पहुँचाते हैं । इस कीट के शिशु एव वयस्क पौधों के विभिन्न भागो जैसे पत्तियाँ फूल, फली इत्यादिं से रस चूसते है जिससे उनकी वृद्धि और विकास रूक जाती है। अधिक आक्रमण से पौधों में फूल एवं फलियाँ कम लगती है। तथा बीजों में तेल की मात्रा कम हो जाती है। इससे फसल की गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। जिस स्थान पर यह कीट आक्रमण करता है वहाँ पर काले फंफूद का संक्रमण हो जाता है एवं प्रकोपित पौधे रोगी दिखाई देते है। इसके नियंत्रण के लिए खेत में सिंचाई कर देना चाहिए अथवा नीम के बीज के रस की 5 प्रतिशत की दर से छिड़काव करें अथवा फ्लोनिकामाइड 50 डब्लु. जी. की 80 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति एकड अथवा फिप्रोनिल की 5 एस. सी. की 500 मिली लीटर दवा प्रति हेक्टेयर अथवा इमिडाक्लोप्रिड की 5 मिली लीटर दवा को 15 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
अमरुद मे फूलों को नियंत्रित कर पाए अधिक लाभ
झॉसी। रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झाँसी के कुलपति डॉ. अरविंद कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस.एस.सिंह के मार्गदर्शन में अमरुद से अधिक पैदावार लेने की सलाह दी हैं । वैज्ञानिक डॉ. गोविन्द विश्वकर्मा एवं डॉ. रंजीत पाल बताते हैं कि अमरुद के फूलो को अभी से नियंत्रित कर अधिक लाभ अर्जित किया जा सकता हैं । अमरुद मे पूरे वर्ष में तीन बार-वर्षा़, शीत एवं ग्रीष्म ऋतु में फल लगते है, जिसमे से शीत ऋतु के फल काफी स्वादिष्ट एवं गुणकारी होते है । वही वर्षा ऋतु के फल इसके विपरीत गुण वाले होते है जिसमे फल छेदक कीट का ज्यादा प्रकोप होता है, अतः इस लिए वर्षा ऋतु की फसल नही लेना चाहिए। इसके लिए विभिन्न उपाय अपनाना चाहिए जैसे फरवरी से मध्य मई माह के दौरान अमरुद के बागो मे सिचाई रोक देनी चाहिए, जिससे पत्तियां गिर जाती है एवं पौधे सुसुप्तावस्था मे चले जाते है । अप्रैल से मई माह मे जड़ो के आस-पास की ऊपरी मृदा को सावधानी पूर्वक खोदकर जड़ो को खुला छोड़ दे। इन सबके परिणाम स्वरुप पत्तियां गिर जाती हैं और पौधे सुसुप्तावस्था मे चले जाते है। इसके पश्चात खुली हुई जड़ो को मिट्टी द्वारा ढक दे तथा जून के महीने मे खाद देकर सिंचाई कर दे जिससे अधिक मात्रा मे फूल आते है। इसके अलावा पौधो पर लगे फूलों पर वृद्धि नियामक जैसे एन.ए.ए. (100 मिग्रा./ली. पानी) या यूरिया (100 ग्रा.ली/पानी) या 2-4 डी. (50 से 100 मि.ग्रा.ली /पानी) का घोल बनाकर छिड़काव कर दे जिससे पौधो पर लगे फूल झड़ जाते है और वर्षा ऋतु की फसल नही आते हैं । इन सब प्रक्रिया को अपनाने से उच्च गुणवत्तायुक्त फल प्राप्त होते है जिसे बेचकर किसान उचित बाजार मूल्य प्राप्त कर सकते है।
बुंदेलखंड क्षेत्र में मधुमक्खी पालन की अपार संभावनाएं
झांसी। रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ. विजय कुमार मिश्रा और डॉ. उषा ने किसानों के लिए सलाह जारी की है, कि बुंदेलखंड क्षेत्र के किसान मधुमक्खी पालन भी कर सकते हैं। वैज्ञानिकों ने कहा कि यहां का एक बड़ा भू-भाग फसलों, सब्जियों, फलों, फूलों, जड़ी बूटियों, तथा विशाल वन क्षेत्र आदि से आच्छादित है। यह सब प्रतिवर्ष फल एवं बीज के साथ ही मकरंद और पराग धारण करते हैं, किंतु उसका भरपूर सदुपयोग नहीं हो पाता है, अपितु इस बहुमूल्य उपज के अंश का उपयोग ना किए जाने से धूप ,वर्षा और अन्य प्राकृतिक आपदाओं के कारण प्रकृति में पुनः विलीन हो जाते हैं। जिसे प्राप्त करने के लिए मधुमक्खी पालन ही एकमात्र उपाय है। । वर्तमान में बढ़ती आबादी एवं सीमित संसाधनों के कारण रोजगार की समस्या दिन-प्रतिदिन विकराल रूप धारण करती जा रही है कृषि, जोतों के निरंतर बंटवारे के कारण एकमात्र कृषि कार्य के भरोसे पूरे परिवार का पालन पोषण नहीं हो सकता है, ऐसी स्थिति में मधुमक्खी पालन व्यवसाय एक ऐसी कृषि आधारित गतिविधि है जो आसानी से ग्रामीण परिवेश में शुरू की जा सकती है। मधुमक्खी पालन बेरोजगार युवकों भूमि-हीन,अशिक्षित व शिक्षित परिवारों को कम लागत से अधिक लाभ देने वाला व्यवसाय ही नहीं है अपितु इससे कृषि उत्पादन में भी वृद्धि होती है । बुंदेलखंड में मधुमक्खी पालन झांसी, ललितपुर, जालौन, बांदा, चित्रकूट, महोबा, दतिया, निवाड़ी, छतरपुर एवं पन्ना आदि जिलो में जलवायु तथा फसलों को देखते हुए किया जा सकता है।
बुंदेलखंड क्षेत्र में उपयुक्त वृक्षों का चयन
झाँसी। रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा के मार्गदर्शन में बुंदेलखण्ड क्षेत्र के किसानों को उपयुक्त वानिकी के वृक्षों का चयन कर आय बढ़ाने की सलाह दी है। कृषि वैज्ञानिक डॉ. रविन्द्र ढाका एवं डॉ. दीपिका आयते ने बताया कि वृक्षारोपण के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले पौधो एवं बीजों की जरुरत होती है। इसके लिए किसान, नर्सरी धारकों द्वारा विभिन्न वन-वृक्ष प्रजातियों के बीजों का संग्रह उपयुक्त वृक्षों का चयन करके उचित समय पर करें । यदि वन वृक्ष प्रजातियों के बीज सामान्य वनों से एकत्र किया जाना है तो बीज एकित्रत करने में बीज वृक्ष के चयन का विशेष महत्व रहता है। बीज वृक्ष के चयन में अग्रलिखित बातों पर ध्यान दिया जाना अतिआवश्यक है। बीज ऐसे वृक्षों से एकत्र किया जाये जिनका आकार अच्छा हो, वे स्वस्थ हों और अच्छी वृद्धि कर रहे हों। पुराने वृक्षों और अल्प व्यस्क वृक्षों से बीज एकत्र नही किया जाना चाहिए, क्योंकि ऐसे वृक्षों से प्राप्त बीज कम अंकुरण क्षमता वाले होते हैं । दूर-दूर खड़े हुये वृक्षों से बीज एकत्र नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसे वृक्षों से प्राप्त बीज अंततः आपस में परागण से प्राप्त होते हैं जिनकी अंकुरण क्षमता कम होती है। बीज हमेशा अच्छे वन क्षेत्रों से ही एकत्र किये जाना चाहिए। जिस वन में खराब, पतले तथा निम्न गुण श्रेणी के वृक्ष हों वहां से बीज एकत्र नहीं किया जाना चाहिए। यदि बीज की आवश्यकता कम है और 2-4 वृक्षों से ही पर्याप्त बीज प्राप्त हो सकते हैं तो भी यह उचित रहेगा कि 10-15 वृक्षों से ही बीज एकत्र किया जाये। यदि बीज उत्पादन क्षेत्रों से बीज एकत्र किया जाना है तो भी इन्हीं बातों को ध्यान में रखना अतिआवश्यक रहेगा।
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खेतों कि गहरी जुताईः किसान भाई गर्मी में खेतों कि गहरी जुताई (लगभग 9 से 12 इंच गहरी) करें। पूरे खेतों की एक समान जुताई करनी चाहिए तथा बिना जुताई वाला स्थान नहीं रहना चाहिए। जिन खेतों में कठोर तह (हार्ड पैन) बन गया हो उन खेतों में चिजलर का प्रयोग कर गहरी जुताई करें। गहरी जुताई तीन वर्ष में एक बार अवश्य करें। इस गहरी जुताई से जल संरक्षण, खरपतवार नियंत्रण कीट और रोग नियंत्रण में लाभ मिलता है।
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वर्षा जल संरक्षणं हेतु असमतल बड़े खेतों का सुधारः भू क्षेत्र की बनावट (टोपोग्राफी) को देखते हुए कि किस स्थान पर नलकूप व सड़क बनाना उचित होगा, ऐसे स्थान को नियोजित योजना के अनुसार सर्वप्रथम मेड़ बन्दी करके खेत को समतल कर लें। यदि ढाल अधिक हो तो 0.4 से 0.5 हेक्टेयर आकार के खेत बनाये जाए। मेड़ मजबूत बनायी जाए ताकि यह वर्षाकाल में जल बहाव के कारण बह न जाए। वर्षा जल संरक्षण हेतु किसान भाई मेड़बन्दी एवं खेत के चारों तरफ नाली बनाकर वर्षा जल को सिंचाई हेतु संग्रहीत करें एवं भूगर्भ जल स्तर में वृद्धि करें।
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ऊसर भूमि सुधारः ऊसर खेत को गहरा जोतकर लेवलर की सहायता से समतल कर लेना चाहिए और लेविल खेत में पानी भरके एकत्रित कर लेना चाहिए। नई तोड़ी गई ऊसरीली भूमि को 15-20 से०मी० की गहरी जुताई आवश्यक है जिससे नमक रिसाव क्रिया (लीचिंग) में सुविधा हो। जल निकास नाली का निर्माण चकरोड के दोनों ओर खेत की सतह से 60-90 से०मी० गहरी और 1.2 मीटर चौड़ी होनी चाहिए। मृदा सुधारक (जिप्सम/पाइराइट) का प्रयोग मिट्टी परीक्षण परिणाम के आधार पर करना चाहिए। इसके प्रयोग के पूर्व खेत में 5-6 मीटर चौड़ी क्यारियां लम्बाई में बना लेना चाहिए। जिप्सम का प्रयोग इसे फैलाने के बाद तुरन्त कल्टीवेटर या देशी हल से भूमि की ऊपरी 8-10 से०मी० की सतह में मिलाकर और खेत को समतल करके पानी भर करके रिसाव क्रिया सम्पन्न करना चाहिए। पहले खेत में 12-15 से०मी० पानी भरकर छोड़ देना चाहिए। 7-8 दिनों बाद जो पानी बचे उसे जल निकास नाली द्वारा बाहर निकालकर पुनः 12-15 से०मी० पानी भरकर रिसाव क्रिया सम्पन्न करना चाहिए।
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मिट्टी की जांचः फसल की कटाई हो जाने के उपरांत मिट्टी में उत्पन्न विकारों की जानकारी हेतु मिट्टी की जांच हेतु मिट्टी नमूना एकत्रित कर नमूना प्रयोगशाला को प्रेषित करें तथा मृदा परीक्षण करवाएँ ।
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सारे कामों को करते हुये वर्तमान कोविड-19 वायरस के प्रकोप को देखते हुये मॉस्क/गमछा का प्रयोग, हाथों की साबुन से नियमित अन्तराल पर धुलाई और सामाजिक दूरी का पालन अवश्य करे। (परामर्शी वैज्ञानिकः- डॉ योगेश्वर सिंह, डॉ सुशील कुमार सिंह, डॉ सौरभ सिंह)
कोविड-19 परिस्थिति में पशुपालको के लिये सलाह
झॉसी। रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय ने कोविड-19 परिस्थिति में कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन में पशुपालको के लिये सलाह जारी किया है। इस समय पूरे बुन्देलखण्ड में लॉकडाउन घोषित है। ऐसे कठिन समय में खेती बाड़ी सहित पशुधन की सुरक्षा अति आवश्यक है। यह समय रबी फसलों जैसे दलहन, तिलहन, गेहूॅ एवं अन्य फसलों की कटाई समाप्ति की ओर है। इस समय में तापमान बढना शुरू हो रहा है। पशुओं में पानी व नमक की कमी, भूख कम होना एवं कम दूध उत्पादन जैसी समस्याऐं आना शुरू हो जाती है अतः पशुओं को अत्यधिक तापक्रम से बचाने के उपाय करें। मालवाहक पशुओं को दोपहर से शाम 5 बजे तक छाया वाले एवं हवादार स्थान में आराम करने दें। पशुओं को दिन में कम से कम 4 से 5 बार पानी पिलाने का प्रयास करें। कुछ मादा पशुओं में गर्मी के लक्षण रात्रि में अधिक तथा दिन में कम दिखाई देते है। इसका पशुपालक नियमित ध्यान दें। थनैला रोग की पहचान एवं रोकथाम के उपाय करे। मैमनो को फडकियॉ व भेड़ चैचक रोग का टीका लगवाऐ। गाभिन पशुओं को प्रोटीन युक्त अतिरिक्त पशु आहार दे।
इस समय चरागाह में हरे चारे का अभाव है तथा पोषण अपर्याप्त होता है ऐसे में पशुओं में पाईका रोग के लक्षण प्रकट होते है। इससे रक्षा हेतु मिनिरल ब्लॉक में लवण मिश्रण अवश्य मिलाऐ।
सामूहिक प्रयासो से किसान सुनिश्चित करे कि मृत पशु, हड्डी चमड़ा, कंकाल आदि चारागाह के रास्तों एवं उन स्थानों पर इक्ट्ठा नही होने पाऐ जहा से पशुओं का रोजाना आना- जाना रहता है। एसे स्थानो की तार बन्दी कर पशुओं को रोके क्योकि मृत पशुओं के अवशेषों को खाने व चबाने से प्राणघातक बाटुलिनता रोग हो सकता है। जिसका कोई उपचार नही है। चारे के लिये बोई गई मक्का, बाजरा एवं ज्वार की कटाई 45 से 50 दिन की अवस्था में करें। पशुधन की देखभाल करते हुये मॉस्क का प्रयोग, हाथों की साबुन से नियमित अन्तराल पर धुलाई और सामाजिक दूरी का पालन अवश्य करे
बुन्देलखण्ड में गरमी में खेतो की तैयारी एवं भूमि सुधार की सलाह
बुन्देलखण्ड में रबी फसल कटाई समाप्ति कि ओर है ऐसे में भूमि सुधार एवं वर्षा जल संरक्षणं का कुछ काम अभी सामयिक एवं आवश्यक है इसमें असमतल बड़े खेतों का सुधार वर्षा जल संरक्षणं खेतों कि गहरी जुताई ऊसर भूमि सुधार एवं मिट्टी की जांच सम्मलित है । रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झॉसी के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के दिशानिर्देशन में सामयिक सलाह जारी की गई है। किसान भाई भूमि विकास कार्य हेतु भू क्षेत्र की बनावट (टोपोग्राफी) को देखते हुए कि किस स्थान पर नलकूप व किस स्थान पर सिंचाई जल निकास नाली व सड़क बनाना उचित होगा, ऐसे स्थान को नियोजित योजना के अनुसार सर्वप्रथम मेड़ बन्दी करके खेत को समतल कर लें। यदि ढाल अधिक हो तो खेत का आकार छोटा अन्यथा 0.4 से 0.5 हेक्टेयर आकार के खेत बनाये जाए। मेड़ मजबूत बनायी जाए ताकि यह वर्षाकाल में जल बहाव के कारण बह न जाए। मेंड़ 165×45×30 से०मी० या 120×45×30 सेमी० जिसका क्रास सेक्शन 0.44 या 0.34 मीटर हो, उपयुक्त होगी।वर्षा जल संरक्षण हेतु किसान भाई मेड़बन्दी एवं खेत के चारों तरफ नाली बनाकर वर्षा जल को सिंचाई हेतु संग्रहीत करें एवं भूगर्भ जल स्तर में वृद्धि करें ऊसर क्षेत्र का चयन, सर्वेक्षण एवं मृदा सुधारक रसायन का प्रयोग गर्मी में भूमि सुधार का यह काम जरूर करना चाहिये मेड़बन्दी का कार्य पूरा हो जाने के पश्चात् खेत को 15-20 से०मी० गहरा जोतकर लेवलर की सहायता से समतल कर लेना चाहिए और लेविल खेत में पानी भरके एकत्रित कर लेना चाहिए। नई तोड़ी गई ऊसरीली भूमि को 15-20 से०मी० की गहरी जुताई आवश्यक है जिससे नमक रिसाव क्रिया (लीचिंग) में सुविधा हो। ऊसर सुधार में जल निकास का बहुत अधिक महत्व है, जिससे खेत के हानिकारक घुलनशील लवणों को बाहर निकाला जां सकता है। जल निकास नाली का निर्माण चकरोड के दोनों ओर खेत की सतह से 60-90 से०मी० गहरी और 1.2 मीटर चौड़ी होनी चाहिए। इन जल निकास नालियों का नियोजन इस प्रकार किया जाए जिससे खेत का लवणयुक्त पानी किसी नदी नाले में बहा दिया जाए।ऊसर सुधार हेतु जिप्सम और रसायन का प्रयोग बहुतायत से किया जाता है। ऊसर योजना वाले जनपदों में मृदा सुधारक (जिप्सम/पाइराइट) का प्रयोग मिट्टी परीक्षण परिणाम के आधार पर करना चाहिए। इसके प्रयोग के पूर्व खेत में 5-6 मीटर चौड़ी क्यारियां लम्बाई में बना लेना चाहिए। मृदा परीक्षण परिणाम की संस्तुति के अनुसार मृदा सुधारक (पायराइट/जिप्सम) का प्रयोग किया जाये। जिप्सम का प्रयोगरू इसे फैलाने के बाद तुरन्त कल्टीवेटर या देशी हल से भूमि की ऊपरी 8-10 से०मी० की सतह में मिलाकर और खेत को समतल करके पानी भर करके रिसाव क्रिया सम्पन्न करना चाहिए। पहले खेत में 12-15 से०मी० पानी भरकर छोड़ देना चाहिए। 7-8 दिनों बाद जो पानी बचे उसे जल निकास नाली द्वारा बाहर निकालकर पुनः 12-15 से०मी० पानी भरकर रिसाव क्रिया सम्पन्न करना चाहिए। मिट्टी की जांचरू फसल की कटाई हो जाने के उपरांत मिट्टी में उत्पन्न विकारों की जानकारी हेतु मिट्टी की जांच हेतु मिट्टी नमूना एकत्रित कर नमूना प्रयोगशाला को प्रेषित करें तथा मृदा परीक्षण करवाएँ । किसान भाई गर्मी में खेतों कि गहरी जुताई (लगभग 9 से 12 इंच गहरी) करें। गर्मी में खेत मुख्यतः खाली पड़े रहते हैं। इसलिए अगली फसल की बुवाई की तैयारी एवं भूमि सुधार के लिए गर्मीं में गहरी जुताई का सर्वाधिक महत्व है। पूरे खेतों की एक समान जुताई करनी चाहिए तथा बिना जुताई वाला स्थान नहीं रहना चाहिए। जिन खेतों में कठोर तह (हार्ड पैन) बन गया हो उन खेतों में चिजलर का प्रयोग कर गहरी जुताई करें। गहरी जुताई तीन वर्ष में एक बार अवश्य करें। इस गहरी जुताई से जल संरक्षण, खरपतवार नियंत्रण कीट और रोग नियंत्रण में लाभ मिलता है। सारे कामों को करते हुये वर्तमान कोविड-19 वायरस के प्रकोप को देखते हुये मॉस्क/गमछा का प्रयोग, हाथों की साबुन से नियमित अन्तराल पर धुलाई और सामाजिक दूरी का पालन अवश्य करे।
अप्रैल-मई माह में सब्जियों के खेती-बाड़ी की सलाह
झॉसी। रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय ने कोविड-19 परिस्थिति में कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन में सब्जी उत्पादको के लिये सलाह जारी की है। इस समय पूरे बुन्देलखण्ड में लॉकडाउन घोषित है। कद्दू वर्गीय फसलों में 4-5 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करें, आवश्यकतानुसार यूरिया की टॉप ड्रेसिंग कर दें। ध्यान रखें कि यूरिया पत्तियों पर न गिरे अन्यथा फसल जल जायेगी।लाल भृंग कीट की रोकथाम के लिए सुबह ओस पड़ने के समय राख का बुरकाव करने से कीट पौधों पर नही बैठते हैं या इस कीट का अधिक प्रकोप होने पर मैलाथियान चूर्ण 5 प्रतिशत या कार्बारिल 5 प्रतिशत के 25 किग्रा चूर्ण को राख में मिलाकर सुबह पौधों पर बुरकना चाहिये। भिण्ड़ी की फसल में नाइट्रोजन की प्रति हेक्टेयर 35-40 किग्रा मात्रा (76-87 किग्रा यूरिया) की पहली टाप ड्रेसिंग बोआई के 30 दिन बाद व शेष एक तिहाई 35-40 किग्रा नाइट्रोजन (76-87 किग्रा यूरिया) की दूसरी टाप ड्रेसिंग बोआई के 45-50 दिन बाद करें। भिण्ड़ी व लोबिया की फसल को पत्ती खाने वाले कीट से बचायें।भिण्ड़ी की फसल में फलो की तुड़ाई प्रत्येक तीसरे दिन करें अन्यथा तुड़ाई नियमित न करने पर फल बड़े हो जाते हैं तथा संख्या में कम प्राप्त होते है और उनकी गुणवत्ता प्रभावित होती है। लहसुन व प्याज की खुदाई करें। खुदाई के 10-12 दिन पूर्व सिंचाई बन्द कर दें।पूर्व मे ंरोपी गई मिर्च में रोपाई के 25 दिन बाद प्रतिहेक्टेयर 35-40 किग्रा नाइट्रोजन (76-87किग्रा यूरिया) की प्रथम टॉप ड्रेसिंग व इतनी ही मात्रा की दूसरी टॉप ड्रेसिंग रोपाई के 45 दिनों बाद करें।ग्रीष्मकालीन बैगन में रोपाई के 30 दिन बाद प्रति हेक्टेयर 50 किग्रा नाइटोजन (108किग्रा यूरिया) की पहली टॉप ड्रेसिंग व इतनी हीमात्रा की दूसरी टॉप ड्रेसिंग रोपाई के 45 दिन बाद करें। वर्षा कालीन बैगन की नर्सरी यदि तैयार हो तो उसकी रोपाई 75-90×60 सेंमी की दूरी पर, जहाँ तक सम्भव हो, रोपाई शाम के समय करें तथा रोपाई के तुरन्त बाद हल्की सिंचाई कर दें। वर्षा कालीन बैगन की फसल के लिए नर्सरी में बीज की बोआई इस माह भी कर सकते हैं। नर्सरी तैयार करने के लिए लोटनल पॉली हाउस (एग्रोनेट युक्त) का प्रयोग करने से अच्छी गुणवत्ता की पौध तैयार होगी।टमाटर की फसल में आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहें। फलों में छेद करने वाले कीट से बचाने के लिए फल तोड़ने के बाद मैलाथियान 0.1 प्रतिशत का छिड़काव करें। छिड़काव के 3-4 दिन बाद तक फलो की तुडाई न करें। बैंगन मैदानी क्षेत्रों में फरवरी-मार्च में लगाई नर्सरी को अप्रेल में रोपाइ की जा सकती है। पूसा भैरव व पूसा पर्पललॉग किस्में उपयुक्त हैं।पहाडी क्षेत्रों में पूसा पर्पल कलस्टर किस्म अप्रैल में रोपने से बढिया उपज देती है। बैगन में तना छेदक कीट से बचाव के लिए नीमगिरी 4 प्रतिशत का छिड़काव 10 दिन के अन्तराल पर करने से अच्छा परिणाम मिलता हैं। या मार्सल (कार्बोसल्फान 20 ई.सी.) 2 मिली लीटर प्रति लीटर पानी में धोल बनाकर 15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करें। सूरन की बोआई पूरे माह तथा अदरक व हल्दी की बोआई अप्रैल माह के दूसरे पखवाड़े से शुरू की जा सकती हैं।
प्रति हेक्टेयर अदरक की बोआई के लिए लगभग 18 कुन्टल, हल्दी के लिए 15-20 कुन्टल व सूरन के लिए 75 कुन्टल बीज की आवश्यकता होती हैं। बोआई से पूर्व हल्दी व अदरक के बीज को 0.3 प्रतिशत का पर आँक्सीक्लोराइड के धोल में उपचारित कर लें।
बोआई से पूर्व सूरन के बीज को 0.2 प्रतिशत बावेस्टीन या गोबर के धोल में डुबा दें। पुन उसे छाव में सुखाकर बोआई करनी चाहिए।हल्दी, अदरक व सूरन की बोआई के बाद खेत में सूखी पुवाल, धास-फूस या पत्ती से ढ़क दें। इससे खेत में खरपतवार का जमाव नही होता है, नमी संरक्षित रहने से फसल का जमाव भी अच्छा होता है तथा साथ ही इनके सड़ने से खेत में जीवांश पदार्थ की मात्रा भी बढ़ती हैं।चौलाई एक हरी पत्तेदार सब्जी है। पूसा कीर्ती व पूसा किरण किस्मों की बुआई अप्रेल के दूसरे पखवाडे. में कर सकते है। एक हैक्टर में बुवाई के लिए 1000 ग्राम बीज पर्याप्त रहता है। मूली की पूसा चेतकी किस्म की बुवाई अप्रेल में कर सकते है। बीजां की बुवाई के लिए कतार से कतार की दूरी 30 सेमी तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी रखते हुए 1-1.5 सेमी गहराइ पर लगाएं। बुवाई से पूर्व 10 टन कम्पोस्ट, 80 -100 किग्रा नत्रजन, 50 किग्रा फास्फोरस तथा 80-100 किग्रा पोटाश प्रति हैंक्टर की दर से डालें। फसल में जल्दी-जल्दी हल्की सिंचाईयां करें। ग्वार फलियों के लिए पूसा सदाबहार, पूसा मौसमी व पूसा नववहार किस्में अप्रैल में लगा सकते है। 8-10 कि.ग्रा. बीज को 45 सेमी दूरी पर लाईनों में लगाएं तथा बुवाई से पूर्व 10 टन कम्पोस्ट, 50 किग्रा नत्रजन, 60 किग्रा फास्फोरस तथा 60 किग्रा पोटाश प्रति हैंक्टर की दर से डालें। फलियाँ सब्जी के लिए जून में तैयार मिलती है। वर्तमान कोविड-19 वायरस के प्रकोप को देखते हुये मॉस्क/गमछा का प्रयोग, हाथों की साबुन से नियमित अन्तराल पर धुलाई और सामाजिक दूरी का पालन अवश्य करे। (परामर्शी वैज्ञानिकः- डॉ ए0 के0 पाण्डेय, डॉ अर्जुन लाल औला)
महुआ फूलो के संकलन पर सलाह
झॉसी। रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय ने कोविड-19 परिस्थिति में कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन में महुआ उत्पादको के लिये सलाह जारी की है। महुआ बुन्देलखण्ड की एक प्रमुख फल वृक्ष है। अप्रैल में इसके फूलो का संकलन किया जाता है। फूलो को इक्ठ्ठा करते समय कुछ सावधानियॉ किसानों को बरतने की जरूरत है। महुआ के फूल, पेड़ पर चढ़कर वृक्ष की टहनियों को हिलाकर जमीन पर गिरा कर एकत्रित किये जा सकते है। समान्यतः आदिवासी, वृक्ष पर चढ़ने में निपुण होते है जो पेड़ पर चढ़कर फूलों के एकत्रित करते है। लेकिन जमीन पर खड़े रहकर, एक लम्बे डंडे या बांस का उपयोग कर फूलों को जमीन पर गिराना उचित रहेगा। भालू, हिरन, सांबर को महुआ का फूल बहुत प्रिय होते है जिससे वह अपने पौष्टिक आहार की पूर्ति करते है।जंगली हिरन, सांबर पर शेर, तेंदुआ घात लगाए रहते है। इन जंगली जानवरों से अपना बचाव करे।पेड़ से नीचे गिरे फूलों को उठाने के लिए ज्यादा देर झुक कर काम ना करे। इससे शेर तथा तेंदुए को यह आभास होता है की आप हिरन है, और आप पर हमला कर सकते है। सामान्यतः जंगलों में मनुष्य इस के फूलों का संकलन समूह में करते है, जिससे एक - दूसरे को जंगली खतरों से सावधान किया जा सके। महुआ के फूलों के अंदर बहुत गाढ़ा- चिपचिपा रस भरपूर होने कारण, पेड़ पर मधुमख्खियाँ होती है। फूल इकठ्ठा करने से पहले यहाँ सुनिश्चित करले ही पेड ़पर मधुमख्खियों का छत्ता नहीं है। अगर है तो किसी प्रकार मख्खियों को भगाकर अपना बचाव करें। महुआ के फल बहुत नाजुक होने कारण, बड़ी सावधानी से उन्है एकत्रित करें। सामान्यतः फूलों को एकत्रित करने से पहले, पेड़ की निचली जमीन सांफ करने हेतु आग लगाई जाती है। इससे जंगलों में आग फैलने का खतरा होता है। इस विधि को अपनाने के बजाय जमीन पर चादर, दरी, फर्श या प्लास्टिक की चादर बिछाकर, लम्बे डंडे का प्रयोग कर फूलों को गिराया जा सकता है। एकत्रित किये गए फूल बोरी में भरकर एक स्थान पर लाए जाए और धूप में सूखा दे। सुखाये जाने पश्चात, यह सुनिश्चित किया जाये की फूल धूल , मिटटी एवं कंकड़ से मुक्त हो, और छोटी थैलियों में भरकर उन्हें व्यापार हेतु भेजा जा सके। सूखा हुआ फूल बाजार में ९० - ११० रुपये प्रति किलो बेचे जा सकते है। वर्तमान कोविड-19 वायरस के प्रकोप को देखते हुये मॉस्क/गमछा का प्रयोग, हाथों की साबुन से नियमित अन्तराल पर धुलाई और सामाजिक दूरी का पालन अवश्य करे।
पोषक सुरक्षा और कोरोना वायरस के प्रति अवरोधक क्षमता बढ़ाने हेतु मोटे अनाजों पर बल दे
वर्तमान में सम्पूर्ण विश्व कोरोना वायरस की महामारी से जूझ रहा है। समृद्ध देशों के हजारों लोग अपनी जान गवां चुके हैं और अभी इसके समाधान का कोई कारगर उपाय नहीं निकल पाया है। कोरोना वायरस के वचाव हेतु कई उपायों की सिफारिश की जा रही है जैसे कि अपने घर में ही बन्द रहना, सामाजिक दूरी बनाए रखना, अपने आप को और आस-पास के वातावरण को स्वच्छ रखना, खान-पान में कुछ खास पदार्थों को शामिल करना, इत्यादि। ऐसा लगता है कि कोरोना वायरस की समस्या जल्द खत्म होने वाली नहीं है और अभी काफी समय तक हमें इस के साथ जीना होगा।
मानव शरीर में बीमारियों के प्रति अवरोधक क्षमता विकसित करने में खान-पान का काफी महत्व है। कुछ लोग अति संवेदनशील होते हैं और जल्द ही बीमारी के प्रकोप में आ जाते हैं। लेकिन कुछ लोगों में बीमारियों के जनक विभिन्न जीवाणुओं विषाणुओं एवं अन्य कीटाणुओं के प्रति अवरोधक क्षमता होती है और वह उनको काफी हद तक सहन कर जाते हैं और इनसे बच जाते हैं। कोरोना के सम्बंध में भी यह सत्य है। हल्दी, लहसुन, जीरा, फल-सब्जी आदि की सिफारिश की जा रही है। जिससे की शरीर में अवरोधक क्षमता विकसित हो सके। इस सन्दर्भ में मोटे अनाजों जैसे ज्वार, बाजरा, कोदो, कुटकी, सांवा आदि फसलों की महत्तवपूर्ण भूमिका है, जिनके सेवन से कोरोना के प्रति अवरोधक क्षमता को बढ़ाया जा सकता है। मोटे अनाज वाली फसलों में धान-गेहूं की तुलना में मिनरल, प्रोटीन, विटामिन आदि पोषक तत्त्व ज्यादा मात्रा में पाए जाते हैं और पाचक दृष्टि से भी स्वास्थ्य के लिये बड़ी हितकारी मानी जाती है। इन फसलों में पाये जाने वाले रेशे पाचन तंत्र के लिये उपयोगी प्रोबायोटिक की वृद्धि में महत्तवपूर्ण योगदान देते हैं। इसलिये ज्यादा शारीरिक कार्य करने वाले एवं कठिन परिस्थितियों में भी रहने वाले लोग इनका सेवन कर अच्छे से गुज़ारा कर लेते हैं।
हमारे देश में और खासकर बुंदेलखण्ड क्षेत्र में मोटे अनाज की फसलों की खेती किसी ज़माने में बड़े व्यापक तौर पर की जाती थी लेकिन धीरे-धीरे इन फसलों का क्षेत्रफल कम होता गया क्योंकि इन फसलों की अधिक पैदावार देने वाली प्रजातियों का विकास और मंडी में उचित समर्थन मूल्य नहीं मिल पाया। पिछले कुछ वर्षों में भारत सरकार ने इस ओर ध्यान दिया है और इन पोषक अनाजों की गुणवत्ता युक्त प्रजातियों का विकास हुआ है एवं उनके समर्थन मूल्य में भी उत्साहवर्धक वृद्धि की गयी है ताकि किसान भाई दोवारा इन फसलों की खेती की तरफ आकर्षित हों और अपनी पोषक सुरक्षा एवं बीमारियों के प्रति अवरोधक क्षमता को बढ़ायें। यह भी सच है कि बीमारियों के पनपने में व्यक्ति के जीनोम में पाये जाने वाले विभिन्न जीनों, पोषकता एवं पर्यावरण, और परस्पर संबंधों का योगदान रहा है।
कृषि विशेषज्ञों द्वारा सिफारिश की गई है कि वर्तमान समय में जबकि हमारे पास खाद्यानों का पर्याप्त भण्डार मौजूद है, ज्वार, बाजरा एवं अन्य मोटे अनाजों की तरफ भी ध्यान देना जरूरी है ताकि खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ पोषक सुरक्षा एवं कोरोना अवरोधक क्षमता को भी सुधारा जा सके। डा. एम. एस. स्वामीनाथन के अनुसार श्खाद्य सुरक्षा ही काफी नहीं है देश को तेज गति से पोषक सुरक्षा की तरफ ले जाना है। इसके लिये दलहन, तिलहन और मोटे अनाजों को बढ़ावा देना होगा।ष्ष् एक अन्य अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के मशहूर वैज्ञानिक डा. राजीव वार्ष्णेय का मानना है श् भारत इन फसलो की पैदावार में दुनिया में श्रेष्ठ है और अपने लोगो को स्वस्थ रखना एवं कोरोना के प्रति अवरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिये पोषक दृष्टि से महत्तवपूर्ण मोटे अनाजो को प्रोत्साहन देना अत्यंत जरूरी है।ष्ष्
झॅासी में स्थापित रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय में कार्यरत निदेशक शिक्षा डा.अनिल कुमार ने मण्डुआ (रागी) पर शोध कार्य करते हुये इसे न्यूट्री डेन्स अद्भुत अनाज की संज्ञा देते हुये बताया कि इस छोटे दाने वाली मिलेट फसल में शरीर के लिये अति आवश्यक अमीनो एसिड से युक्त गुणक्ता प्रोटीन के अलावा देर से पचने वाले कार्बोहाइड्रेट एवं हड्डियों को मजबूती प्रदान करने वाले अवयव पाये जाते हैं। इन्हीं गुणों के कारण रागी एवं अन्य मिलेट परिवार वाली फसलों से डायविटीज, ह्नदयरोग, आस्टीयोफेरोसिस, रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने एवं पाचन तंत्र आदि के लिये मूल्य संबर्धित उत्पादों की श्रृंख्ला बनाने हेतू विश्वविद्यालय आने वाले समय में कार्य करने जा रहा है।
विश्वविद्यालय के निदेशक शोध डा. ए. आर. शर्मा ने बताया कि दलहनी, तिलहनी फसलों के अलावा मोटे अनाज की फसलों को बुन्देलखण्ड क्षेत्र में बढ़ावा देने हेतु पहल की गई है। ज्वार, बाजरा, कोदो, सांवा आदि फसलों की उन्नत प्रजातियों का शुद्ध बीज तैयार किया गया है जो आने वाले खरीफ मौसम में किसानों के लिये उपलब्ध होगा। यह फसलें कम उपजाऊ शक्ति वाली जमीन में भी अच्छे से उगाई जा सकती हैं। ज्यादा खाद पानी की जरूरत भी नहीं होती है और जलवायु परिवर्तन की दृष्टि से भी बड़ी सहनशील मानी जाती हैं। जो किसान भाई इन फसलों का उत्पादन करना चाहते हैं वह विश्वविद्यालय से सम्पर्क कर सकते हैं।
विश्व पृथ्वी दिवस पर बुन्देलखण्ड के किसानो को भूमि सुधार की सलाह
बुन्देलखण्ड में रबी फसल कटाई समाप्ति कि ओर है ऐसे में भूमि सुधार एवं वर्षा जल संरक्षणं का कुछ काम अभी सामयिक एवं आवश्यक है इसमें
अप्रैल-मई माह में पौध सरक्षण सलाह
वर्तमान में मूंग, कद्दू वर्गीय फसलें और भिन्डी खेत में लगी हैं। इसमें कीडे और बीमारी लग रहे हैं जिनसे फसल की बचाव करना है। अतः किसानों को सामयिक सलाह दी जा रही है।
मूंग का पीला मोजेक विषाणु रोग
नियंत्रणः रोग की शुरुवाती अवस्था में रोगग्रस्त पौधे उखाड़कर नष्ट करे। सफेद मक्खी के नियंत्रण हेतु इमिडाक्लोप्रीड १७.८ एस एल ०.५ मिली या ऐसीटामिप्रीड २० एस पी. ०.५ ग्राम या डायमिथोएट २ मिली प्रति लीटर पानी की दर से छिडकाव करे। प्रति एकड़ खेत में १० पीला चिपचिपा पाश लगायें।
मूंग का चूर्णिल आसिता (पाऊडरी मिल्डयू )
नियंत्रण : सल्फर फफूंद नाशी ४ ग्राम या केराथेन १ मिली प्रति लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें
कद्दू वर्गीय फसलों में मृदुरोमिल असिता (डाउनी मिल्डयू) रोग
नियंत्रण : रोग के लक्षण दिखाई देते ही मेटाल्याक्सिल या रिडोमिल एम झेड १ ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिडकाव करें
कद्दू वर्गीय फसलों में लाल भृंग (रेड पम्पकिन बीटल) कीट
मैलाथियान 50 ईसी / 500 मिली या डाइमेथोएट 30 ईसी 500 मिली या मिथाइल डेमेटोन 25 ईसी / 500 मिली हेक्टेयर का छिड़काव करें क्लोरपायरीफॉस 100 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करने से करनवयस्क कद्दू के बीटल मर जाते हैं
भिन्डी में पीत शीरा मोजेक रोग
नियंत्रणः खेत में पीला चिपचिपा पाश १० प्रति एकड़ खेत में खड़ा करें रोग की शुरुवाती अवस्था में रोगग्रस्त पौधे उखाड़कर नष्ट करे सफेद मक्खी के नियंत्रण हेतु इमिडाक्लोप्रीड १७.८ एस एल ०.५ मिली या ऐसीटामिप्रीड २० एस पी. ०.५ ग्राम या डायमिथोएट २ मिली प्रति लीटर पानी की दर से छिडकाव करे।
अन्य सावधानियाँ
कृषि श्रमिक एवं समस्त किसान कार्य मे क्रियान्वयन होने से पहले, कार्यो के दौरान एवं कार्यो के उपरांत व्यक्तिगत स्वछता तथा उचित दूरी को सुनिश्चित करें। यथा संभव गेंहू की कटाई के लिए कम्बाइन कटाई मशीन का उपयोग किया जाना चाहिए। फसल कटाई एवं मशीनों के रख रखाव मे लगे श्रमिकों की सावधानी एवं सुरक्षा सुनिश्चित करना आवश्यक है। फसलों की हाथ से कटाई एवं तुड़ाई के दौरान कार्यरत श्रमिकों के बीच उचित दूरी का ध्यान रखें । कार्यरत सभी किसान श्रमिकों को सुनिश्चित करना चाहिए कि वे मास्क पहनकर ही काम करे तथा बीच-बीच मे साबुन से हाथ धोते रहे। किसी अनजान श्रमिक को खेत मे कार्य से रोके ताकि वो इस महामारी का कारण न बन सके। जहां तक संभव हो परिचित व्यक्ति को ही खेतो के कार्य मे लगाए। कृषि कार्य मे प्रयुक्त सन्यंत्रों को कार्यों के पूर्व तथा कार्यो के दौरान स्वच्छ किया जाना चाहिए। साथ ही भण्डारण समग्रियों को भी साफ किया जाना चाहिए। खलिहानों मे कटी हुई फसल को छोटे-छोटे ढेरों मे इकठ्ठा करे जिनकी आपस मे दूरी 1 मीटर से अधिक हो। साथ ही प्रत्येक ढेर पर भीड़ इकठ्ठा करने से बचे। प्रक्षत्रो पर कृषि कार्यो दौरान किसानों श्रमिकों को चेहरे पर मास्क अवश्य लगाना चाहिए ताकि वायु-कण एवं धूल-कण से बचा जा सके और श्वास संबन्धित तकलीफों से सावधान रहा जा सके। अनाजों तथा दालों को कीटों से बचाने हेतु, भंडारण के पूर्व उन्हे पर्याप्त सुखा ले कृषक भाई अपने उत्पादो को बाजार स्थल तक ले जाने के दौरान अपनी निजी सुरक्षा का भरपूर ध्यान रखे। कृषक बंधु हरी खाद के सनई, ढैचा की बुवाई के लिए खेत तैयार करें तथा ४५-५० किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें। साथ ही खरीफ फसलों कि तैयारी हेतु खेतों कि ग्रीष्मकालीन जुताई का कार्य भी करें।
(श्रोत-पी.पी. जाम्भूलकर, अनीता पूयाम)
पर्यावरण एवं खेत की मिट्टी का स्वास्थ्य बचाने हेतु गेंहूॅ की नरवाई न जलाएं
बुंदेलखण्ड में आजकल देखा जा रहा है कि कहीं कहीं किसान भाई गेहू कटाई के बाद खेत में शेष बचे अवशेष (नरवाई) में आग लगा रहे है,जबकि राज्य सरकार एवं कृषि वैज्ञानिकों द्वारा समय-समय पर नरवाई नहीं जलाने हेतु जागरूकता रैली, कृषक प्रशिक्षण, कृषक संगोष्ठी व मिडिया का सहयोग लेकर अखबार, रेडियों एवं टीवी के माध्यम से जानकारी दी जाती रहती है। साथ ही जिला प्रशासन द्वारा भी नरवाई जलाने को गम्भीर अपराध की श्रेणी में लेकर सजा का प्रावधान किया गया है। नरवाई जलाने के बारे में किसान भाईयों में विगत वर्षो में काफी जागरूकता आयी है। फिर भी कुछ किसान सहयोग नहीं कर रहें एवं चोरी छुपे सुबह, शाम या देर रात में खेत में नरवाई जला देते है।अतः किसानभाईयों से आग्रह है, कि वे अपने खेत में आग न लगाएं एवं नरवाई न जलाएं। अपने खेत की मिट्टी को जीवित रखे एवं शासन प्रशासन का सहयोग करें, पर्यावरण को बचाएं। नरवाई जलाने से नुकसान-कृषि वैज्ञानिक डॉ. आशुतोष शर्मा ने बताया कि,गेहू की फसल काटने के बाद जो नरवाई होती है, किसानभाई उसे आग लगाकर नष्ट कर देते है। नरवाई में लगभग नत्रजन 0.5 प्रतिशत, स्फुर 0.6 और पोटाश 0.8 प्रतिशत पाया जाता है, जो नरवाई में जलकर नष्ट हो जाता है। गेहू फसल के दाने से डेढ़ गुना भूसा होता है। यदि एक हेक्टर में 40 क्विंटल गेहू का उत्पादन होगा, तो भूसे की मात्रा 60 क्विंटल होगी, भूसे से 30 किलों नत्रजन, 36 किलों स्फुर, 90 किलों पोटाश प्रति हेक्टेयर प्राप्त होगा। जो वर्तमान मूल्य के आधार पर लगभग रूपए 3000 का होगा, जो जलकर नष्ट हो जाता है। भूमि में उपलब्ध जैव विविधता समाप्त हो जाती है, अर्थात् भूमि में उपस्थित सूक्ष्म जीव एवं केचुआं आदि जलकर नष्ट होने से खेत की उर्वरकता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। भूमि क उपरी पर्त में उपलब्ध पोषक तत्व आग लगने के कारण जलकर नष्ट हो जाते है। भूमि की भौतिक दशा खराब हो जाती है। भूमि कठोर हो जाती है, जिसके कारण भूमि की जल धारण क्षमता कम हो जाती है। फलस्वरूप फसलें जल्द सूखती है। भूमि में होने वाली रासायनिक क्रियाएं भी प्रभावित होती है, जैसे कार्बन-नाईट्रोजन एवं कार्बन-फास्फोरस का अनुपात बिगड़ जाता है। जिससे पौधों को पोषक तत्व ग्रहण करने में कठिनाई होती है। नरवाई की आग फैलने से जन-धान की हानि होती है एवं पेड़ पौधे जलकर नष्ट हो जाते है। नरवाई नहीं जलाने के फायदे प्रति हेक्टेयर लगभग रूपये 3000 की बचत,भूमि में पाये जाने वाले लाभदायी जीवणुओं का संरक्षण, पोषक तत्वों का संरक्षण,भूमि की भौतिक दशा में सुधार होगा।भूमि की रासायनिक क्रियाओं में सन्तुलन होने से पोषक तत्वों की उपलब्धता सुलभ होगी।पर्यावरण प्रदुषण में कमी आवेगी।अतः किसान भाई नरवाई में आग न लगाये। खेत की जुताई करे या रोटावेटर चलाकर नरवाई को यथास्थान जमीन में मिला दे। जिससे जैविक खाद तैयार होगी और नरवाई जलाने के दुष्परिणामों को कम किया जा सकेगा।
गर्मियों में प्राकृतिक जूस से शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता तथा जल की मात्र बढ़ाएं
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झॉसी के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन में एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ अमित सिंह , डॉ धनश्याम अवरौल तथा डॉ रंजीत पाल ने बताया है कि इस समय कोरोना वायरस के प्रकोप में शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता तथा जल की मात्रा बढाना आवश्यक है। इसके लिये मौजूद प्राकृतिक रसों का उपयोग किया जा सकता है ऐसी स्थिति में अधिक से अधिक पानी और जूस पीने की सलाह दी जाती है। क्योंकि गर्मियों में हमारी बॉडी डिहाइड्रेट हो जाती है, आप अपने शरीर में पानी की कमी जूस के जरिए भी पूरी कर सकते हैं। टेस्ट के साथ-साथ अपनी हेल्थ का भी ध्यान रखते हुए गर्मियों में अपनी बॉडी को स्वच्छ, स्वस्थ और रिफ्रेश रखने के लिए परंपरागत जूस के साथ-साथ कुछ नए ड्रिंक का भी प्रयोग कर सकते हैं। पूरे दिन की थकान और गर्मी को भगाने के लिए इन अलग-अलग जूस का सेवन कर सकते हैं। आम, बेल, गन्ना, नीबू, पपीता, पुदीना, मौसमी तरबूज आदि का रस प्राकृतिक रूप से गर्मियों में उपलब्ध होता है। इनसें विटामिन, लवण, प्रोटीन, और अन्य पोषक तत्व मिलते है।
आम का जूस
-आम के सेवन करने से कई बीमारियों से छुटकारा मिल सकता है इसके साथ ही यह स्वाद में काफी अच्छा होता है। इसमें विटामिन्स और मिनरल्स अधिक मात्रा में होता है। जिनकी जरूरत बॉडी को गर्मियों में अधिक होती है। यह पेट और दिल से संबंधित बीमारियों को भी कम करता है। आम के जूस में विटामिन सी की प्रचुर मात्रा पाई जाती है जो प्रतिरक्षा तंत्र को सुदृढ़ बनाने में एक अहम भूमिका निभाता है। एक गिलास आम के जूस हमारे शरीर में 70 से 80 प्रतिशत विटामिन सी की पूर्ति करता है। विटामिन सी श्वेत रक्त कणिकाओं के उत्पादन में भी लाभप्रद है।
बेल का जूस या शरबत
-बेल के जूस में प्रोटीन, थायमिन, राइबोफ्लेविन और विटामिन सी भरपूर मात्रा में पाया जाता है। इसके नियमित सेवन से एसिडिटी नियंत्रण के साथ-साथ मुंह में छाले और मधुमेह का भी नियंत्रण होता हैं।
गन्ने का रस
-गर्मियों में हीट स्टोक अथवा डिहाइड्रेशन से बचने के लिए गन्ने का रस सबसे बेहतर विकल्प है। इसमें ग्लूकोज, मैग्नीशियम, कैल्शियम अधिक मात्रा में होता है। यह बहुत ही तेजी से बॉडी को हाइड्रेट करता है। इसके साथ ही ज्वाइंडिस जैसी घातक बीमारी में कारगर है साथ ही गर्भवती महिलाओं के लिए बेहतरीन पेय पदार्थ है। इस कारण एनीमिया कैंसर आदि बीमारियों से हमें बचाता है।
लेमन जूस
-अदरक के साथ नींबू का जूस गर्मियों में काफी लाभदायक होता है इसमें विटामिन सी पाई जाती है जो पेट के लिए काफी लाभदायक है। नींबू अदरक का जूस बालों, स्किन के साथ-साथ मसूड़ों की बीमारियों और पथरी को भी ठीक करता है।
पपीते का जूस
-पपीते के जूस में विटामिन ए, विटामिन बी, विटामिन सी, फाइबर, मैग्नीशियम और फलेवोनाईडस प्रचुर मात्रा में पाया जाता है जो पेट से संबंधित समस्याओं से लड़ने में एक दवा की तरह काम करता है। इसे खाने से पाचन प्रणाली भी अच्छी रहती है तथा गर्मियों में आपके दिल की भी देखभाल करता है।
मिंट आईस टी
-पुदीने की साथ आईस टी पीने से चाय की जो गर्माहट होती है वह कम हो जाती है। क्योंकि पुदीना शरीर को ठंडा करता है। पुदीने की पत्तियां गर्म पानी में उबाल लें और फिर आईस टी बनाते वक्त उसमें डाल दें। इसे बनाने के कई तरीके हो सकते हैं। यह शरीर को सिर्फ ठंडक ही नहीं पहुंचाता बल्कि मिंट से पेट से संबंधित समस्याएं भी कम होती हैं।
मौसमी का जूस
-यह विटामिन सी, आयरन, पोटैशियम, कॉपर आदि का अच्छा स्त्रोत है। मौसमी का जूस स्किन, पिंपल, बदहजमी, कब्ज जैसी समस्याओं से आराम दिलाने में सहयोगी है। विटामिन सी की प्रचुरता से ये स्कर्वी-मसूड़ों में खून का आना जैसी बीमारी को नियंत्रित करने में सहयोग करता है।
तरबूज का जूस
-तरबूज लाइकोपीन का बहुत अच्छा स्त्रोत है। यह एक एंटीऑक्सीडेंट है जो फ्री रेडिकल्स को कम करने में मदद करता है। इसके जूस से किडनी से संबंधित रोग नहीं होता साथ ही साथ पथरी को भी बढ़ने से रोकता है और स्किन के लिए भी फायदेमंद है। तरबूज में काफी मात्रा में पानी पाया जाता है जो कि शरीर के लिए लाभदायक है।
फूलो की खेती में सामयिक सलाह
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झॉसी के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में फूलो की खेती में सामयिक सुझाव जारी किया है। इस समय लॉकडाउन के कारण फूलो की खेती में किसानों को बाजार के अभाव में काफी परेशानी हो रही है। फिर भी इसकी उपयोगिता और लाभ देखते हुये सामायिक सस्य क्रियाओं को करना आवश्यक है। रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ गौरव शर्मा ने फूलों की खेती हेतु समसामयिक सलाह दी है कि लॉकडाऊन के कारण गेंदा के जो फूल लगें रह गए हों उन्हे बीज के लिए अब छोड़ दें। जो फूल नहीं बिके उन्हे छांव में सुखाएँ एवं हो सके तो प्राकृतिक रंग या खाद के लिए उपयोग में लें। ग्रीष्म कालीन गेंदे के लिए नर्सरी की तैयारी करें। ग्लेडिओलस के कंद को मिट्टी से निकालने का उपयुक्त समय है। अगर लॉकडाऊन के कारण कोल्ड स्टोरेज में पहुंचाने में दिक्कत हो तो एक बार सिंचाई कर दें। सेवन्ति (गुलदाउदी) में उसके तने के पास से निकलने वाली सकर्स को अलग कर लगा दें। अगर अभी अलग नहीं किया है तो फिर पौधों में नाइट्रोजन वाले खाद को डालें। गुलाब में पाऊड्री मिलड्यू फफूंद जनित बीमारी के बचाव हेतु 0.02 प्रतिशत बाविस्टीन फफूंद नाशक का प्रयोग करें। ग्रीष्मकाल में खेत खाली होने पर मिट्टी परीक्षण हेतु खेत से मिट्टी के नमूने लें। गर्मी के फूलों जैसे जीनिया, पोर्चुलाका व कोचिया के पौधों की सिंचाई एवं निराई-गुड़ाई कर दें।
पशुपालकों एवं दूध विक्रेताओं के लिए सामायिक सलाह
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झॉसी के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में पशुपालकों एवं दुग्ध विक्रेताओं के लिए सामायिक सलाह जारी किया है। इस समय कोविड-19 के विश्व व्यापी संक्रमण रोग की परिस्थिति में दुधारू पशुओ से जुड़े किसानों और दूध विक्रेताओं को सतर्क और सजग रहने की आवश्यकता हैं। इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण सलाह डॉ संजीव कुमार एवं डॉ आशुतोष ने बताया कि कुछ बातों का मान पूर्वक अनुसरण करे। दूध विक्रेता अथवा पशुपालकों द्वारा विभिन्न ग्राहकों को दूध की आपूर्ति करते समय, बीच-बीच में अपने हाथों को सैनिटाइज करते रहना चाहिए या साबुन से नियमित अन्तराल पर हाथ धोते रहना चाहिए। एकत्र किये गए दूध को तुरंत साफ कपड़े से छानना चाहिए और इसे ठंडे स्थान में ढककर रखना चाहिए। यदि दूध को खुले में बेचा जाना है, तो इसे जल्द से जल्द ढके बर्तन व शीतल परिस्थितियों में उपभोक्ता खुदरा बाजार तक ले जाना चाहिए । यदि पैकिंग सुविधाएँ उपलव्ध हैं, तो दूध की पैकिंग और पैक किये गए दूध की विक्री को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए । यदि संभव होतो ऑनलाइन लेन देन हेतु उपयुक्त संसाधन का उपयोग करे और नगद भुगतान से बचें। बीमार महसूस होने पर दूध या दूध के प्रसंस्करण के कार्यों में शामिल न हों।दूध बेचते समय विक्रेता को हाथो में हर समय दस्ताने पहनने चाहिए परन्तु ये नहीं समझे कि दस्ताना पहनना हाथ धोने का विकल्प है। अतः दूध विक्री के दौरान भी नियमित अंतराल पर हाथ धोना अनिवार्य है। उपयोग पश्चात उचित रूप से दस्ताने और मास्क निकले और उन्हें सुरक्षित रूप से ढक्कन युक्त कचरे के डब्बे में डाल दें। घर पर बनाये गए मास्क को दोबारा उपयोग से पहले अच्छी तरह धो कर सुखा लेना चाहिए । दूध मापने हेतु लंबे हैंडल वाल बर्तन का प्रयोग करें, यदि बीच-बीच में आपने किसी और भी चीज को छुआ हो तो हाथों को साफ करने के बाद ही पुनः इसे छुएं। दूध बेचने वाले व्यक्ति को पूर्ण (फुल) आस्तीन वाली कमीज पहननी चाहिए एवं अन्य व्यक्ति से सुरक्षित दुरी (कम से काम 6 फीट) से बनाकर रखे । कार्य के बाद वापस घर आने पर तुरंत कपड़े हटादें और उन्हें धो ले। परिवार के किसी सदस्य विशेषकर बुजुर्गो और बच्चों के साथ बातचीत करने से पहले स्नान करे । घर के बाहर जूते निकले और उन्हें अलग रखें।दूध वितरण को इस तरह से नियमित करे कि जिनसे मानव संपर्क न्यूनतम हो, जैसे कि एक क्षेत्र में दो दिनों में एक बार पहुंचाना। दूध और दूध उत्पादों का वितरण हेतु उत्पाद को क्रेता के दरवाजे पर छोड़कर या कम से कम 6 फीट के अंतर को बनाए रखे ताकि मानव संपर्क से बचाजा सके। घरों में ज्यादा स्पर्श बिन्दुओ जैसेकी दरवाजे की घंटी, उनके हैंडल आदि से संपर्क से बचा जाना चाहिए और यदि संपर्क में आते हैं तो हाथ अच्छी तरह से साफ किया जाना जाना चाहिए । बिक्री काउंटर पर मास्क और दस्ताने पहनें और ग्राहकों से सामाजिक दूरी बनाए रखने के लिए कहें। यदि दूध या दूध उत्पादों को वितरित करने के लिए उपयोग किया जाने वाला वाहन हॉट स्पॉट के रूप में चिन्हित क्षेत्र में प्रवेश करता है, तो इसे दूसरे उपयोग से पहले अच्छी तरह से साफ किया जाना चाहिए। कोविद -19 से खुद को बचाने के लिए स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा हाल ही में जारी किये गए दिशा-निर्देशों का पालन करें।
फूलो की खेती में सामयिक सलाह
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झॉसी के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में फूलो की खेती में सामयिक सुझाव जारी किया है। इस समय लॉकडाउन के कारण फूलो की खेती में किसानों को बाजार के अभाव में काफी परेशानी हो रही है। फिर भी इसकी उपयोगिता और लाभ देखते हुये सामायिक सस्य क्रियाओं को करना आवश्यक है। रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ गौरव शर्मा ने फूलों की खेती हेतु समसामयिक सलाह दी है कि लॉकडाऊन के कारण गेंदा के जो फूल लगें रह गए हों उन्हे बीज के लिए अब छोड़ दें। जो फूल नहीं बिके उन्हे छांव में सुखाएँ एवं हो सके तो प्राकृतिक रंग या खाद के लिए उपयोग में लें। ग्रीष्म कालीन गेंदे के लिए नर्सरी की तैयारी करें। ग्लेडिओलस के कंद को मिट्टी से निकालने का उपयुक्त समय है। अगर लॉकडाऊन के कारण कोल्ड स्टोरेज में पहुंचाने में दिक्कत हो तो एक बार सिंचाई कर दें। सेवन्ति ;गुलदाउदीद्ध में उसके तने के पास से निकलने वाली सकर्स को अलग कर लगा दें। अगर अभी अलग नहीं किया है तो फिर पौधों में नाइट्रोजन वाले खाद को डालें। गुलाब में पाऊड्री मिलड्यू फफूंद जनित बीमारी के बचाव हेतु 0ण्02 प्रतिशत बाविस्टीन फफूंद नाशक का प्रयोग करें। ग्रीष्मकाल में खेत खाली होने पर मिट्टी परीक्षण हेतु खेत से मिट्टी के नमूने लें। गर्मी के फूलों जैसे जीनियाए पोर्चुलाका व कोचिया के पौधों की सिंचाई एवं निराई.गुड़ाई कर दें।
पशुपालकों एवं दूध विक्रेताओं के लिए सामायिक सलाह
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झॉसी के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में पशुपालकों एवं दुग्ध विक्रेताओं के लिए सामायिक सलाह जारी किया है। इस समय कोविड.19 के विश्व व्यापी संक्रमण रोग की परिस्थिति में दुधारू पशुओ से जुड़े किसानों और दूध विक्रेताओं को सतर्क और सजग रहने की आवश्यकता हैं। इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण सलाह डॉ संजीव कुमार एवं डॉ आशुतोष ने बताया कि कुछ बातों का मान पूर्वक अनुसरण करे। दूध विक्रेता अथवा पशुपालकों द्वारा विभिन्न ग्राहकों को दूध की आपूर्ति करते समयए बीच.बीच में अपने हाथों को सैनिटाइज करते रहना चाहिए या साबुन से नियमित अन्तराल पर हाथ धोते रहना चाहिए। एकत्र किये गए दूध को तुरंत साफ कपड़े से छानना चाहिए और इसे ठंडे स्थान में ढककर रखना चाहिए। यदि दूध को खुले में बेचा जाना हैए तो इसे जल्द से जल्द ढके बर्तन व शीतल परिस्थितियों में उपभोक्ता खुदरा बाजार तक ले जाना चाहिए । यदि पैकिंग सुविधाएँ उपलव्ध हैंए तो दूध की पैकिंग और पैक किये गए दूध की विक्री को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए । यदि संभव होतो ऑनलाइन लेन देन हेतु उपयुक्त संसाधन का उपयोग करे और नगद भुगतान से बचें। बीमार महसूस होने पर दूध या दूध के प्रसंस्करण के कार्यों में शामिल न हों।दूध बेचते समय विक्रेता को हाथो में हर समय दस्ताने पहनने चाहिए परन्तु ये नहीं समझे कि दस्ताना पहनना हाथ धोने का विकल्प है। अतः दूध विक्री के दौरान भी नियमित अंतराल पर हाथ धोना अनिवार्य है। उपयोग पश्चात उचित रूप से दस्ताने और मास्क निकले और उन्हें सुरक्षित रूप से ढक्कन युक्त कचरे के डब्बे में डाल दें। घर पर बनाये गए मास्क को दोबारा उपयोग से पहले अच्छी तरह धो कर सुखा लेना चाहिए । दूध मापने हेतु लंबे हैंडल वाल बर्तन का प्रयोग करेंए यदि बीच.बीच में आपने किसी और भी चीज को छुआ हो तो हाथों को साफ करने के बाद ही पुनः इसे छुएं। दूध बेचने वाले व्यक्ति को पूर्ण ;फुलद्ध आस्तीन वाली कमीज पहननी चाहिए एवं अन्य व्यक्ति से सुरक्षित दुरी ;कम से काम 6 फीटद्ध से बनाकर रखे । कार्य के बाद वापस घर आने पर तुरंत कपड़े हटादें और उन्हें धो ले। परिवार के किसी सदस्य विशेषकर बुजुर्गो और बच्चों के साथ बातचीत करने से पहले स्नान करे । घर के बाहर जूते निकले और उन्हें अलग रखें।दूध वितरण को इस तरह से नियमित करे कि जिनसे मानव संपर्क न्यूनतम होए जैसे कि एक क्षेत्र में दो दिनों में एक बार पहुंचाना। दूध और दूध उत्पादों का वितरण हेतु उत्पाद को क्रेता के दरवाजे पर छोड़कर या कम से कम 6 फीट के अंतर को बनाए रखे ताकि मानव संपर्क से बचाजा सके। घरों में ज्यादा स्पर्श बिन्दुओ जैसेकी दरवाजे की घंटीए उनके हैंडल आदि से संपर्क से बचा जाना चाहिए और यदि संपर्क में आते हैं तो हाथ अच्छी तरह से साफ किया जाना जाना चाहिए । बिक्री काउंटर पर मास्क और दस्ताने पहनें और ग्राहकों से सामाजिक दूरी बनाए रखने के लिए कहें। यदि दूध या दूध उत्पादों को वितरित करने के लिए उपयोग किया जाने वाला वाहन हॉट स्पॉट के रूप में चिन्हित क्षेत्र में प्रवेश करता हैए तो इसे दूसरे उपयोग से पहले अच्छी तरह से साफ किया जाना चाहिए। कोविद .19 से खुद को बचाने के लिए स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा हाल ही में जारी किये गए दिशा.निर्देशों का पालन करें।
मई माह में वन पौधशाला हेतु सलाह
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झॉसी के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में वन पौधशाला के लिए सामायिक सलाह जारी किया है। वैज्ञानिकगण डा.ॅ पंकज लवानिया तथा डॉ. पी.पी. जाम्बोलकर ने सलाह दी है कि पौधशाला में पौधों की सिचाई सुबह 9 बजे से पहले या शाम को 5 के बाद करनी चाहिए। दोपहर के समय तापमान अधिक होने कारण बाष्पीकरण की दर अधिक होती है। बाष्प पौधों की पत्तियों के लिए नुकसानदायक होती है। पौधशाला में कम से कम दिन में एक बार सिचाई अवश्य करें। जिससे नवजात पौधों को उच्च तापमान के प्रभाव से बचाया जा सके। पौधशाला में छायाजाल (ग्रीनशेडनेट - ७५) द्वारा छाया प्रबंधन सुनिश्चित करें, जिससे बाष्पीकरण की दर को कम कर, मृदा नमी को बचाया जा सके। काला सिरिस, सफेद सिरिस, गुलमोहर, देशी बबूल आदि में बीजों द्वारा प्रवर्धन करें। पिछले वर्ष लगे फौधों का क्यारियों को परिवर्तित कर दे, जिससे पौधों की जड़ें जमीन को न पकड़ें। स्थान परिवर्तित करते समय, उचित छाया व नमी पर विशेष ध्यान दे, और थालियों में लगे पौधों को तुरंत पानी दे। ग्रीष्मकाल में पानी की कमी के कारण दीमक का प्रकोप बढ़ जाता है, जिसके परिणाम स्वरूप पौधे मरने लगते है।इस स्थिति से पहले ही क्लोरोपाइरीफास नामक दवा का उचित मात्रा (१.५-२.०मि.ली. लीटर) का घोल बनाकर क्यारी को उपचारित करे।
बुंदेलखंड में मई मे आम के कृषि संबंधी कार्य
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झॉसी के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में आम उत्पादको के लिए सामायिक सलाह जारी किया है। वैज्ञानिक डॉ रंजीत पाल ने बताया कि मई के महीने में आम के पौधे से फल का गिरना एक बहुत बड़ी समस्या होती है। इसके रोकथाम के लिए नैफ्थलीन एसीटिक ऐसिड (एनएए 20 पीपीएम - यानी 2 ग्राम प्रति 100 लीटर पानी) की दर से छिड़काव करना चाहिए। सूक्ष्म तत्व (जिंक, कापर, मैंगनीज, आयरन, बोरॉन इत्यादि) के मिश्रण को 2 एमएल/लीटर की दर से 2-3 बार छिड़काव जब फलमार्बल अवस्था पर हो तब10-12 दिन के अंतराल पर करना चाहिए। दीमक प्रबंधन के लिए क्लोरोफाइरिफास (200 मि.ली. प्रति100 लीटर पानी) का उपयोग करना चाहिए। मई के महीने में जो भी फूल गुच्छा/गुम्मा रोग दिखाई दे उसको एक तेज धारदार तथा रासायन से उपचारित चाकू से काटना चाहिए तथा मिट्टी मे दबा देना चाहिए। आम मे फलों के विकास के लिए मई का महीना सबसे महत्वपूर्ण होता है क्योंकि ग्रीष्म ऋतु मे शुष्कता तथा जल की समस्या होती है जिससे फलों का विकास पूर्ण रूप से नहीं हो पता है। तथा इसीलिए जब फल मटर से मार्बल का आकार के दाने के आकार का हो तो सिचाई कि शुरुआत कर देनी चाहिए तथा 6-7 दिन के अंतराल पर नियमित देते रहना चाहिए। यदि आम चूषक कीट दिखाई पड़े तो क्लोरोपाइरिफास (1 एम एल प्रति 1 लीटर) अथवा डाईमेथोएट (0.5 मि.ली ) का पर्णीय छिड़काव कर देना चाहिए। फ्रूट फली ट्रेप (जाल) (यूजनोल/0.1 प्रतिशत़$़ मेलाथियान/0.1 प्रतिशत ) को आम के बगीचे मे जगह जगह टांग कर फल मक्खी को नियंत्रित करना चाहिए । आम के फलों मे कायिक विकार जैसे ब्लैक टिप और अंदरूनी ऊतक की समस्या भी देखने को मिलती है खासकर के उन क्षेत्रों मे जहां ईट के भट्टे पाए जाते है। अतः, इसके नियंत्रण के लिए बोरैक्स (1 किग्रा प्रति 100 लीटर पानी) का छिड़काव मई के प्रथम या द्वितीय सप्ताह मे करना चाहिए। तना भेदक तथा पत्ती काटने वाले कीट भी मई के महीने मे बहुतायत रूप से पाए जाए है जिसका नियंत्रण करना भी अत्यंत आवश्यक हो जाता है। इसके नियंत्रण के लिए कार्बारिल (0.2ः) प्रतिशत अथवा मोनोक्रोटोफॉस (0.05ः) प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए। मई के महीने मे जीवाणु कैंकर रोग भी आम मे पाया जाता है। अतः उचित नियंत्रण करने के लिए स्ट्रेप्टोमाइसिन (200 पीपीएम अथवा 20 ग्राम प्रति 100 लीटर पानी) का छिड़काव करना चाहिए।
बुंदेलखंड के किसानों को मई माह में "अमरूद"के कृषि कार्य
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झॉसी के निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में अमरूद उत्पादको के लिए सामायिक सलाह जारी किया है। वैज्ञानिक डॉ रंजीत पाल ने बताया कि बरसात वाली फसल के लिए फूल आना मई के महीने में शुरू हो जाते है। बरसात वाली फसल गुणवत्ता पूर्ण नहीं होती है तथा बहुत से रोग और कीटों की भी समस्या पाई जाती है अतः इस ऋतु की फसल को न लेने के लिए फसल नियमन का उपयोग करते है।निम्नलिखित कारकों को अपनाकर बरसात वाली फसल से बचा जा सकता है ग्रीष्मकालीन फूलों को हाँथ से तोड़ देना चाहिए नए तनों की कटाई, 2 पत्ती तक अप्रैल-मई महीनों मे कर देने से अच्छा परिणाम मिलता है एनएए का दो स्प्रे, पहला 800 पीपीएम के दर से 50 प्रतिशत पुष्पन के दौरान तथा दूसरा छिड़काव पहली छिड़काव के 20 दिन के उपरांत करना चाहिए। यूरिया का छिड़काव 8-10 प्रतिशत के दर से भी करना चाहिए। सामान्यतः, पुष्पन के दौरान कीटनाशी दवाओं का उपयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि इसके उपयोग से परागण के धुलने तथा परागित करने वाले लाभदायक कीटों कि मरने की संभावना होती है। बोरान की कमी से पत्तियों का छोटा होना, फलों का फटना तथा फलों का कठोर होना जैसी समस्या पाई जाती है अतः इसकी कमी से बचने के लिए बोरैक्स/0.3 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए।
कद्दूवर्गीय फसल में सामयिक कीटों का प्रवंधन
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झॉसी के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में कद्दूवर्गीय फसल उत्पादको के लिए सामायिक सलाह जारी किया है। वैज्ञानिक डॉ. उषा मौर्या, डॉ. विजय कुमार मिश्रा और डॉ. मैमोम सोनिया ने बताया कि इस समय कद्दूवर्गीय फसलो में लाल कद्दू बीटल, चूसने वाले कीट, फल की मक्खी और हड्डा बीटल का प्रकोप बढ जाता है। लाल कद्दू बीटल के प्रकोप से बचने के लिए नवम्बर में खरीफ फसलो की कटाई के बाद खेतों की गहरी जुताई करें ताकि लाल कद्दू बीटल के छुपे हुए वयस्क नष्ट हो जाएँ। वर्तमान में खेत में दिख रहे लाल कद्दू बीटल के वयस्क को इकट्ठा करके नष्ट कर दें। इसके अलावा मेलाथियान 50 ईसी / 500 मि.ली. या डाइमेथोएटे 30 ईसी / 500 मिली या मिथाइल डेमेटोन 25 ईसी / 500 मिली प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें। जब लाल कद्दू बीटल के वयस्क पौधों की पत्तियों पे दिखाई दें तब उन्हें मारने के लिए क्लोरपयेरीफोस 100 ग्राम ए. आई का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें। पौधों का रस चूसने वाले कीटों की रोकथाम के लिए फसल की प्रारंभिक अवस्था में नीम सीड कर्नल एक्ट्रेक्ट 5 प्रतिशत का एक बार तथा 15 दिनों के बाद दोबारा छिड़काव अवश्य करें। फल की मक्खी से ग्रसित फलों को एक गडढे में इकट्ठा करके नियमित रूप से नष्ट कर दें। सिरका और चीनी के घोल का प्रपंच की तरह प्रयोग करें। फल की मक्खी के प्यूपा को नष्ट करने के लिए पेड़ों की जड़ों में मेलाथियान 5 प्रतिशत डस्ट का २० किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें। हड्डा बीटल से बचाव हेतु खेत की सफाई करें। इस कीट की रोकथाम हेतु 625 मि.ली. मेलाथियान 50 ईसी का 325 लीटर पानी के साथ घोल बनाकर छिड़काव करें और बीटल दोबारा दिखने पर 10 दिनों के बाद दोबारा छिड़काव करें
ंऊसर भूमि सुधार हेतु हरी खाद लगाऐं।
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झॉसी के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में ऊसर भूमि सुधार हेतु किसानो के लिए सामायिक सलाह जारी किया है। वैज्ञानिकगण डॉ योगेश्वर सिंह, डॉ अनिल कुमार राय डॉ सुशील कुमार सिंहने बताया ऊसर होती मिट्टी को बचाने के लिय मई माह मे किसान भाई ढैंचा की बुवाई कर। ऊसर भूमि वह होती है जिसकी मिट्टी का पी.एच. मान लगभग 8.5 के ऊपर जा रहा हो। ऐसी मिट्टी के लिए ढैचॉ एक उपयुक्त खाद है यह मिट्टी की क्षारीयता को कम करता है। जिन खेतों में मृदा सुधारक रसायन जैसे जिप्सम या पायराईट का प्रयोग हो चुका है और लवण निच्छालन की क्रिया सम्पन्न हो चुकी हो वहॉ ढैचॉ की हरी खाद लगाना चाहिये। हरी खाद वायुमंडलीय नत्रजन को मृदा में स्थिर करती है एवं मिट्टी में भौतिक, रसायनिक एवं जैविक क्रियाशीलता में वृद्धि लाती है साथ-साथ उत्पादकता एवं गुणवत्ताशील उपज प्राप्त करने में सहायक होती है। हरी खाद की सबसे प्रचलित विधि प्रथम है इसके लिए रबी की फसल काटने के बाद एवं खरीफ की फसल लगाने के पूर्व करीब 90 दिन का समय किसान भाइयो को मिलता है। इस समय अप्रैल, मई माह मे अगर खाली खेत मे पर्याप्त नमी लाकर 40-45 किलो ढैंचा बीज की बुवाई कर करके लगभग 45 दिन बाद ढैंचा को किसी मिट्टी पलटने वाले हल से मिट्टी मे दबा देने चाहिये। इससे धान की रोपाई या खरीफ फसल लगाने के पहले एक अच्छी हरी खाद तैयार हो जाती है। इसे मिट्टी मे दबाने के लगभग एक सप्ताह के बाद जब ढैचॉ सड़ जाये तब धान की रोपाई करनी चाहिये। ढैचॉ की जड़ें गहरी तथा मजबूत होने के कारण कम उपजाऊ भूमि में भी अच्छी उगती है। भूमि को पत्तियों एवं तनों से ढक लेती है जिससे मृदा क्षरण कम होता है। इससे मिट्टी में जैविक पदार्थों की अच्छी मात्रा एकत्रित हो जाती है। राइजोबियम जीवाणु की मौजूदगी में ढैचॉ की फसल में 80-150 किग्रा० नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर स्थिर करने की क्षमता होती है। इससे मिट्टी के भौतिक एवं रासायनिक गुणों में प्रभावी परिवर्तन होता है जिससे सूक्ष्म जीवों की क्रियाशीलता एवं आवश्यक पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि होती है।
मई माह में कृषि वानिकी हेतु सलाह।
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झॉसी के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में कृषि वानिकी के लिए सामायिक सलाह जारी किया है। किसान भाई उद्देशीय वानिकी पौधे जैसे सागौन, शीशम, सहजन, कदम्ब, मिलिया, बबूल, आवला, बेल, खैर, महुआ, इत्यादि को खेतों की मेड व खेत के चारो तरफ, या खेतो में पक्ति फसल के साथ वर्षाकाल में लगाने की तैयारी करे। उपरोक्त पौधों की प्रजातियां वर्षाकाल में लगाने के लिए गडढो की खुदाई अव मई के प्रथम सप्ताह में शुरू कर दे। वृक्ष प्रजातियों के अनुसार गडढो का आकर एवं दूरी सुनिश्चित करें। सागौन और शीशम, नीम, मिलिया, और कदम्ब के लिये 60×60×60 से0मी0 जबकि सहजन, बबूल, और खेर के लिये 45×45×45 से0मी0 आयत के गडढे खोदना चाहिये। सागौन बबूल और खेर के लिये मेड़़ पर 3 मी0 और खेत पर 4 मी0 दूरी पर गडढे खोदना चाहिये। शीशम, नीम, मिलिया और कदम्ब के लिये मेड़़ और खेत दोनो स्थिति में 4 मी0 पर गडढे खोदना चाहिये। सहजन के गडढे मेड़़ पर 1 से 2 मीटर के दूरी पर खोदना चाहिये। यदि इन वृक्षो को खेत में लगाना हो तो सागौन के लिये 5 मी0, शीशम के लिये 4 मी0, अन्य वानिकी पौधो के लिये 6 मी0 पर पंक्ति से पंक्ति की दूरी पर गडढो को रखना चाहिये। कृषि वानिकी प्रणाली में सामान्यता पौधे की पौधे से दूरी व पंक्ति से पंक्ति की दूरी इस प्रकार रखे कि कृषि उपकरण जैसे ट्रेक्टर आदि का आसानी से प्रयोग हो सके। मई माह में इन गडढो को सूर्य ताप से उपचारित होने के लिये छोड देना चाहिये।
किसान उच्च गुणवत्ता के बीज खेती में प्रयोग करें।
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झॉसी के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में उच्च गुणवत्ता के बीज किसानों को अपनाने के लिये समायिक सलाह जारी किया है। वैज्ञानिकगण डा. मनोज कुमार सिंह, डा. अशुमान सिंह और डा. विष्णु कुमार ने बताया कि बुन्देलखण्ड में किसान 95 प्रतिशत अपना बीज प्रयोग करते है जिससे सारी मेहनत के बावजूद उपज कम होती है। बेहतर फसल उपज के लिए उच्च गुणवत्ता के बीज लेने से लगभग 20 प्रतिशत उत्पादकता और उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है । ऐसे बीज में आनुवांशिक शुद्धता लगभग शत-प्रतिशत होती है, अन्य फसल एवं खरपतवार के बीजों से रहित होता है, रोग व कीट के प्रभाव से मुक्त होता है। इसमें शक्ति और ओज भरपूर होने से अंकुरण क्षमता उच्च कोटि की हाती है। जिससे खेत में जमाव और अन्ततः उपज अच्छी होती है। अतः किसान भाईयों से अनुरोध है कि प्रमाणित बीज प्राप्त कर अपने पुराने बीजों को बदलते हुए, बुवाई करें । किसान को चाहिए कि वे अपनी फसलों के बीज जैसे समस्त दलहनी, तिलहनी एवं धान्य फसलों का बीज एक से तीन वर्ष के बीच बदल कर बुवाई करें। कई बीमारियां हैं जो बीज के माध्यम से फैलती है। यदि संक्रमित बीजों का उपयोग अगली फसल के लिए किया जाता है, तो बीज जनित रोग खेत में स्थानांतरित हो जाते हैं। इसलिए बीज, स्वस्थ पौधों से प्राप्त करना चाहिए। यदि अपना बीज प्रयोग करना मजबूरी है तो स्वस्थ और पुष्ट बीज लेकरे इसे साफ करें फिर बोने से पहले इसका उपचार करें। खरीफ फसलों के लिए शोध में उपयोगी पाए गए जैविक एवं रासायनिक बीजोपचार, फसलों की संतुति के अनुसार अवश्य प्रयोग करें । इस समय रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झॉसी में मूगं, उड़द, अरहर, बाजरा, ज्वार, सांवा, कोदों और तिल के बुन्देलखण्ड के लिये उपयुक्त प्रजातियो के आधार एवं प्रमाणित बीज उपलब्ध है।
सामयिक बरसात का लाभ उठाकर खेत की करें तैयारी
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झॉसी के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में समायिक बरसात पर खेत की तैयारी पर सलाह जारी किया है। वैज्ञानिकगण डॉ योगेश्वर सिंह, डॉ सुशील कुमार सिंह एवं डा0 सौरभ सिंह ने बताया कि मई में कई जगहो पर बरसात हुयी है खेत में नमी आ चुकी है । किसानों को चाहिये कि इसका लाभ उठाकर गर्मी की गहरी जुताई तुरन्त कर दें । इससे मिट्टी में वायु संचार होता है, भूमि की जलधारण क्षमता बढ़ती है और धूप में खुला खेत होने से खरपतवार नष्ट हो जाते है और कई बीमारियों एवं कीडे़ का प्रकोप खरीफ की फसलों पर नही होता है । जब 20 से0मी0 से ज्यादा गहरी जुताई हो तो उसे गहरी जुताई कहते है । अन्य जुताईयां गर्मी की जुताई कहलाती है । इसके अलावा वो किसान भाई जिनके खेत ऊसर हो गये है वो किसान ऊसर क्षेत्र का चयन कर उसमें मृदा सुधारक रसायन का प्रयोग करें । गर्मी में भूमि सुधार का यह काम जरूर करना चाहिए । सर्वप्रथम खेत के चारों तरफ मेड़बन्दी करें एवं मेड़बन्दी का कार्य पूरा हो जाने के पश्चात मृदा परीक्षण परिणाम की संस्तुति के अनुसार मृदा सुधारक (पायराइट/जिप्सम) का प्रयोग किया जाये । खेतों में जिप्सम डालने एवं इसे फैलाने के बाद तुरन्त कल्टीवेटर या देशी हल से भूमि की ऊपरी 10-15 से0मी0 की सतह में मिला दें । तत्पश्चात खेत को समतल कर पानी भर कर के रिसाव क्रिया सम्पन्न करनी चाहिये । पहले खेत में 12-15 से0मी0 पानी भरकर छोड़ देना चाहिये । 7-8 दिनों बाद जो पानी बचे उसे जल निकास नाली द्वारा बाहर निकालकर पुनः 12-15 से0मी0 पानी भरकर रिसाव क्रिया सम्पन्न करनी चाहिए ।
कीमती अनाजों (गेंहू) को देशी विधि से भी भण्डारित कर बचा सकते है।
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झॉसी के निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह ने बताया कि कटाई उपरान्त् भण्डारित अनाजों को देशी विधि से कैसे बचा सकते है। बुन्देलखण्ड के किसानों के लिए सामायिक सलाह जारी की गई है। वैज्ञानिक डॉ. विजय कुमार मिश्रा, डॉ. उषा और डॉ. एम0 सोनिया देवी ने बताया कि आज कल मडाई के बाद अनाजों को भण्डारित करने की प्रक्रिया चल रही है। इसमें सबसे पहले हमारे किसान भाई भंडार गृह को अच्छी तरह से साफ कर ले और फिर भंडार गृह को धूएँ से उपचारित करें। भंडारित करने वाले अनाज को सूरज की कड़ी रोशनी में तब तक सुखाएँ। सुरक्षित भण्डारण हेतु अनाज फसलों के लिये 13 प्रतिशत दलहनी फसलों के लिये 14-15 प्रतिशत नमी पर भण्डारण करना चाहिये अन्यथा कीडों का प्रकोप बहुत बढ जाता है। कुछ देशी विधियॉ से अनाज को उपचारित कर इन्है सुरक्षित रखा जा सकता है जैसे- नीम की पत्तियों को सूखा कर नमक और सरसों के तेल में मिला कर (250 ग्राम नीम की पत्तियॉ, 200 ग्राम नमक और 50 ग्राम सरसों तेल) आपस में मिश्रित करके पर 1 क्विंटल अनाज मिश्रित करके भंडारण में रख दे दूसरा तरीका है कि नीम की पत्ती, गोट खरपतवार की पत्ती एवं लहसुन 2ः1ः1 अनुपात में सूखा कर मिश्रण तैयार करें। इस मिश्रण में 500 मि0ली0 सरसों अथवा 50 मि0ली0 अरण्डी अथवा अलसी का तेल मिलाएँ। यह मिश्रण 1 क्विंटल अनाज को उपचारित कर भण्डारण के लिए पर्याप्त है। इस विधि से अनाज उपचारित कर कीट पतंगों से अनाज को बचा सकतें है।
खरीफ फसलो में बुआई पूर्व करें बीजोपचार
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झॉसी के निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस िंसंह के निर्देशन मे वैज्ञानिकों ने किसानों को अपने सुझाव दिये जिसमें वैज्ञानिक डॉ प्रशांत जाम्भुलकर. डॉ वैभव सिंह, डॉ सुनैना सिंह ने आगामी खरीफ मौसम में बुंदेलखंड में तिलहनी (सोयाबीन, मूंगफल्ली, तिल), दलहनी (उड़द, मुंग, अरहर), अनाज (धान, मक्का, ज्वार), मोटे अनाज (बाजरा, रागी), कपास और गन्ना जैसी फसलें प्रमुख रूप से उगायी जाती हैं। इनमे आने वाली रोगों के उपचार के लिए बुआई से पूर्व बीजोपचार करना अनिवार्य रूप से आवश्यक है, जो मृदा एवं बीज जनित रोगों के रोकथाम के लिए सहायक हैं। इसके उपचार के लिए किसान थिरम या कार्बेन्डाजिम या कॅप्टन कवक नाशकों को उपलब्धता के अनुसार, २ ग्राम प्रति किलोग्राम बीजों में प्रयोग करें। बीजोपचार हेतु बीजोपचार ड्रम का उपयोग करें। सबसे पहले बीज को तोलकर ड्रम में डालें। आवश्यक मात्रानुसार दावा को बीज के ऊपर डालें तथा ड्रम को लगातार हिलाएं जब तक दावा पूरी तरह से बीज में चिपक न जाये। दलहनी फसलो में विषाणु रोग नियंत्रण हेतु इमिडाक्लोप्रीड 600 नामक कीटनाशक का 1.5 मिली लीटर प्रति किलोग्राम बीज में प्रयोग करें। अक्सर गन्ने में लाल सडन रोग हो जाता है जिसके निवारण हेतु घेडी (बोने हेतु कटे हुए गन्ने के तने के टुकडें) का उपचार 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति लीटर पानी के घोल में 4 घंटे डूबा कर रखें तथा अतिरिक्त पानी निथरने के लिए छाया में रखें ।
उत्पादित फल और सब्जियों को खराब होने से कम खर्च में कैसे बचाये
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झॉसी के निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के निर्देशन मे वैज्ञानिकों डॉ घनश्याम अबरोल, डॉ अमित कुमार, डॉ अजय पांडेय (अधिष्ठाता उद्यानिकी एवं वानिकी) ने बताया कि कोरोना संकट काल के इस समय में जो किसान भाई अपनी ऊपज को बेच नहीं पा रहे हैं या अपने पास रखने के लिए मजबूर हैं, ऐसे किसान भाइयों को शून्य ऊर्जा शीतकक्ष का इस्तमाल करने की सलाह देना चाहूंगा। गर्मियों के दिन आ गए हैं इस समय फल एवं सब्जियाँ बहुत जल्दी खराब होने लगती है जिसका कारण तापमान की अधिकता और कम आर्द्रता का होना है। चूँकि किसान भाइयों के पास भंडारण की उचित व्यवस्था नहीं होती है इसलिए ऐसे समय में जीरो एनर्जी कूल चैम्बर (शून्य ऊर्जा शीतकक्ष) एक सबसे सस्ता उपाय है। किसान भाई इसे अपने घर में स्वयं ही बना सकते है। यह एक दोहरे ईंट-दीवार की संरचना है, जिसके रिक्त स्थान को रेत से भरा जाता है। इसका निर्माण बहुत ही सरल है और इसमें किसी विशेष कौशल की आवश्यकता नहीं होती है। कूल चेंबर्स 10-15 प्रतिशत तक तापमान कम कर सकते हैं और लगभग 95 प्रतिशत की उच्च आर्द्रता बनाए रख सकते हैं जो फल और सब्जियों को अधिकतम समय तक ताजा बनाये रखने में सक्षम है। इसके निर्माण में राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड, किसानों के लाभ के लिए 100 प्रतिशत अनुदान देता है। इसे संचालित करने के लिए किसी बिजली की आवश्यकता नहीं होती है और आसानी से ईंट, रेत, बांस आदि से बनाया जा सकता है। इसके निर्माण के लिए एक छायादार क्षेत्र चुने जो की आस पास की भूमि से ऊंचाई पर हो और हो सके तो एक नजदीकी जल स्रोत हो। ईंट के साथ 165 सेमी 115 सेमी0 का फर्श बनाये और इसके ऊपर 7.5 सेमी0 का अंतराल छोड़कर 67.5 सेमी की ऊंचाई तक दोहरी दीवार का निर्माण करें साथ ही छोड़े हुए अंतराल में रेत भरे। इसे ढकने के लिए एक बांस का (165 सेमी0 115 सेमी0) फ्रेम का पुआल या सूखी घास के साथ बनाये। इस पूरी सरंचना को ढकने के लिए किसान भाई घास या फिर टिन शेड को सीधे धूप या बारिश से बचाने के लिए बना सकते हैं। शोध में पाया गया है की यह शीतकक्ष केले को 20 दिन, किन्नौ को 60 दिन, भिंडी को 6 दिन, गाजर को 12 दिन, आलू को 97 दिन और गोभी को 12 दिन तक सरंक्षित रख सकते है जबकि सामन्यतः केले को 14 दिन, किन्नौ को 14 दिन, भिंडी को 1 दिन, गाजर को 5 दिन, आलू को 46 दिन और गोभी को 7 दिन तक सरंक्षित रख सकते है।
कोरोना काल में प्रतिरोधक क्षमता बढानें हेतु मसालेदार स्क्वाश का उपयोग करें
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झॉसी कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के निर्देशन मे वैज्ञानिकों ने बताया कि इस कोरोना काल एवं भीषण गर्मी में रोग प्रतिरोधक एवं पाचन क्षमता बढानें के लियें मसालेदार स्क्वाश का उपयोग करना चाहिए जिसे सभी आसानी से घर में बना सकते हैं। यह पेय विटामिन, पोषक तत्वों, एंटीऑक्सिडेंट और रोगाणु रोधी से भरपूर होता है। इसके निर्माण में घर पर आसानी से मिलने वाले मसालों और जड़ी बूटियों का इस्तेमाल होता है जैसे कि चीनी, अदरक, काली मिर्च, पुदीना का अर्क, बड़ी इलायची और जीरा। इसे बनाने के लिए नीबूँ का इस्तेमाल करते हैं जो कि विटामिन बी से भरपूर होता है इसलिए यह पेय औषधीय और चिकित्सीय मूल्यों से भरपूर है। डॉ घन श्याम अबरोल, डॉ अमित कुमार, डॉ अजय कुमार पांडेय ने बताया कि इसके निर्माण के लिए ताजे परिपक्व और ठोस फलों का ले। ताजे पानी में अच्छी तरह से धोएं और स्टेनलेस स्टील के चाकू से दो भागों में काटिये और रस निकल कर छान कर 400 मि. ली. रख ले। चीनी (1.6 किलो ग्राम) की चाशनी बना कर सभी मसलों को पुदीने का रस 20 मि. ली., सफेद नमक 25 ग्राम, कला नमक 15 ग्राम, सौंठ, अदरक का रस 5 ग्राम, जीरा 10 ग्राम, बड़ी इलायची 4 ग्राम और काली मिर्च 10 ग्राम डाल कर अच्छे से उबाल ले और ठण्डा होने पर नीबूँ रस मिलाये। इसे बना कर फ्रिज में रख ले। अब इसके उपयोग के लिए एक भाग (मसालेदार स्क्वाश) एपिटाइजर में तीन भाग पानी मिलाऐं। यह पेय पदार्थ बच्चों से ले कर बड़े लोगों के लिए बहुत ही उपयोगी रहेगा ये न केवल पाचन क्षमता बढ़ाने में लाभदायक सिद्ध होगा अपितु प्रतिरोधक तंत्र को बढ़ाने में भी सक्षम है।
फलों को सुरक्षित पकाऐं
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय ने फलों के पकाने पर सलाह जारी किया है। डॉ रंजीत पाल डॉ आशुतोष शर्मा , डॉ संजीव कुमार ने बताया कि इस समय बुन्देलखण्ड में पके आम बाजार में आना शुरू हो गये है। इसमें ज्यादातर स्वास्थय के दृष्टि से काफी आम असुरक्षित होते है। सुरक्षित तकनीकों को अपनाकर स्वास्थयवर्धक आम बाजार में भेजा जा सकता है। कुछ तकनीके निम्नलिखित है।
● साधारण तकनीक के अनुसार एक हवा अवरोधी वर्तन के अंदर कुछ पके हुए फलों को पकने वाले फलों के साथ रखें । पहले से ही पकने वाले फल एथिलीन को छोड़ते हैं, इसलिए अपने आप फलो का पकना तेज होगा।
● फलों को हवा अवरोधी कक्ष के अंदर पकने के लिए रखा जाए और कक्ष में धुआं किया जाये. धुआं एसिटिलीन गैस का उत्सर्जन करता है। कई फल व्यापारी इस तकनीक का पालन करते हैं, खासतौर पर केले और आम जैसे खाद्य फलों में एकसमान पकने के लिए। लेकिन इस पद्धति का मुख्य दोष यह है कि फल एक समान रंग और स्वाद प्राप्त नहीं करते हैं। इसके अलावा, उत्पाद पर धुएं की गंध इसकी गुणवत्ता को बाधित करती है
● एक सप्ताह के लिए धान की भूसी या गेहूं के भूसे के ऊपर फल फैलाना कर भूसे से ही ढकने से भी फल पक जाते हैं
● कुछ किसान 0.1 प्रतिशत ईथरल (1 लीटर पानी में 1 मिलीलीटर) के घोल में परिपक्व फलों को डुबोते हैं और इसे सूखा पोंछते हैं। तब एक दूसरे को छूने के बिना फल को अखबार में फैलाते हैं और एक पतली सूती कपड़ा इस पर कवर किया जाता है। इस विधि में, फल दो दिनों के भीतर पक जाएंगे। लेकिन खाद्य सुरक्षा और मानक नियमों के अनुसार ईथरल का फलों से स्पर्श वर्जित है.
● एक सरल और हानिरहित तकनीक में, 10 मिली लीटर ईथरल और 2 ग्राम सोडियम हाइड्रॉक्साइड को एक चौड़े मुंह वाले बर्तन में पांच लीटर पानी में मिलाया जाता है। इस बर्तन को फलों और कमरे के पास पकने वाले कक्ष (वायु रोधी) के अंदर रखा जाता है। कमरे का लगभग एक तिहाई हिस्सा हवा के संचलन के लिए शेष क्षेत्र को छोड़कर फलों से भरा होता है। फलों को 12 से 24 घंटों के लिए इस कक्ष में रखा जाता है। रसायन की लागत को कम करने के लिए, इथाइलीन उत्सर्जन करने वाले फल जैसे पका पपीता और केला जैसे फल भी उसी कमरे में रखने से फल जल्दी पक जाते हैं ।
● कुछ आम के व्यवसायी ज्यादा मुनाफे और जल्द बेचने के लालच में कच्चे आम को पकाने के लिए औद्योगिक ग्रेड कैल्शियम कार्बाइड का इस्तेमाल करते हैं जो सस्ता होने के साथ साथ बाजार में आसानी से उपलब्ध है. औद्योगिक ग्रेड कैल्शियम कार्बाइड में आमतौर पर आर्सेनिक, सीसा और फॉस्फोरस के अवशेष होते हैं जो स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा हो सकता है. आम पकाने के उद्देश्य के लिए कैल्शियम कार्बाइड का उपयोग भारत सहित अधिकांश देशों में अवैध है।
● आम पकाने के कक्ष में एथिलीन गैस का आम पकाने के उपयोग सुरक्षित और दुनिया भर में स्वीकृत विधि है. एथिलीन गैस के कैन से स्प्रे भी 24-48 घंटों में फल पकने को बढ़ावा देता है. एथिलीन एक प्राकृतिक हार्मोन होने के कारण फलों के उपभोक्ताओं के लिए कोई स्वास्थ्य खतरा नहीं है। यह एक डी-ग्रीनिंग एजेंट है, जो छिलके को हरे रंग से परिपूर्ण पीले (केले के मामले में) में बदल सकता है और फलों की मिठास और सुगंध को बनाए रख सकता है, इस प्रकार फल में मूल्यवर्धन संभव है क्योंकि यह अधिक आकर्षक लगता है तथा पूर्णतया सुरक्षित है
बुंदेलखण्ड में शुष्क टिड्डी दल के आक्रमण से बचाव कैसे करें
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झॉसी के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में बुंदेलखण्ड में शुष्क टिड्डी दल के आक्रमण से बचाव हेतु सामायिक सलाह जारी किया है। बुंदेलखण्ड में दिनांक 22 मई 2020 को हुये टिड्डी दल के आक्रमण को देखा गया है, टिड्डी दल पाकिस्तान से भारतीय सीमाओं को लाघते हुये पंजाब, राजस्थान और बुंदेलखण्ड के क्षेत्रों में भी सभी प्रकार की फसलों तथा पेड़ पौधों को नुकसान पहुॅचा दिया है। टिड्डी दल हमेशा झुण्ड में आक्रमण करती है तथा बहुभक्क्षी प्रकृति की होती है और सभी फसलों को चट कर जाती है जिनसे भीषण नुकसान होता है। टिड्डियों की संख्या 1 वर्ग किलोमीटर में 4 से 8 करोड़ तक होती है। यह 5 से 150 किलोमीटर की रफ्तार से प्रतिदिन उड़ सकते है। रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डा0 ऊषा, डा0 सुन्दर पाल, डा0 एम0 सोनिया देवी व डा0 विजय कुमार मिश्रा ने टिड्डी दल के प्रबन्धन के सुझाव दिया। टिड्डी दल का आक्रमण खेतों में होने पर किसान भाइयों को उनके पास स्टील या टीन के खाली डिब्बों को जोर से पीटकर आवाज करने से टिड्डी दल को भगाया जा सकता है। किसान भाई टिड्डी दल को अपने खेतों से भगाने के लिए 5 मीटर लम्बे बांस के डण्डें पर 3ग2 मीटर आकार का सफेद कपड़ा बांधकर लहराने से भी इनको भगाया जा सकता है। खेतों में सूखा चारा या भूसा जलाकर धुआं करने से टिड्डी दल स्वंय खेत को छोड़कर भाग जाते हैं। जो टिड्डियां खेतों में रह जाती है उनको इक्कठा करके नष्ट कर देना चाहिये। अपने खेतों के चारो तरफ 2 फुट गहरी और 2 फुट चौड़ी आकार की खाईयां खोदे और आक्रमण के बाद जो टिड्डियां खाई में गिर जाती है उनको मिट्टी से दबा देना चाहियें। टिड्डियों को मारने के लिए किसान भाई पेरिस ग्रीन का जहर चारा प्रयोग करें। टिड्डी दल के नियंत्रण के लिये नीम की निबोरी के रस का 5 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव करें। रासायनिक उपचार जैसे साइपर मैथरीन 25 ईसी की 25 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर या डेल्टामैथ्रिन 28 ईसी या लैम्डासायहैलोथ्रिन 5 प्रतिशत ईसी की 2.5 मि0ली0 दवा का प्रति लीटर पानी में घोलकर या हाई वोल्यूम स्प्रेयर से छिड़काव करें।
बुंदेलखंड क्षेत्र मे मूँगफली की कम लागत की उत्पादन तकनीक
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झाँसी के कुलपति डॉ अरविंद कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन मे बुंदेलखंड क्षेत्र के लिये मूँगफली की कम लागत वाली उत्पादन तकनीक किसानो को अपनाने के लिए सामयिक सलाह जारी की गई है। जैसा कि ज्ञात है इस क्षेत्र में सर्वाधिक मूँंगफली की फसल किसान पैदा करते हैं मूँगफली की तकनीक को वैज्ञानिकगण डॉ निशांत भानु, डॉ मनोज सिंह और डॉ विष्णु कुमार ने बताया की बुंदेलखंड क्षेत्र मे यदि किसान मूँगफली के उन्नत प्रजाति जैसे सी एस एम जी 2003-19, टी 28,टी 64, जे जी 3, डी आर जी 17, टी जी 37।, जी 201, झुनकु, इंदौरी के साथ साथ उन्नत फसल पद्धति को अपनाते है तो किसान कम लागत मे अधिक पैदावार, भूमि सुधार और आर्थिक स्थिति में भी सुधार ला सकते हैं। इसके लिए किसानों को चाहिए की वो अधिक गुणवत्ता वाली बीजों का चयन करें। इससे बीज की लागत कम एवं अंकुरण ज्यादा होती है। अच्छी उपज के लिए बीज की बुवाई सदैव उचित गहराई मे करनी चाहिए। इसलिए बुवाई के समय यह ध्यान रखे की बीज की गहराई 5-7 से०मी० से अधिक न हो। बीज की बुवाई हमेशा जुड़वा क्यारी (30-60-30 ग 10 से०मी०) मे करे। ऐसा करने से उपज सामान्य बुवाई की तुलना मे 20 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। इसके साथ ही थीरम या कार्बेण्डाजिम से बीजोपचार करें और अच्छी उपज के लिए राइजोबियम, पी एस बी और राइजोबक्टेरिया जैसे जीवाणु खाद से बीजों का उपचार करे। ऐसा करने से फली की उत्पादकता 15 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। संतुलित पौध पोषण के लिए सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे कैल्सियम, जिप्सम के माध्यम से (250 किलोग्राम प्रति हैक्टर) एवं बोरॉन, बोरेक्स के माध्यम से (4 किलोग्राम प्रति है0) प्रयोग करें जिससे मूँगफली की उपज मे बढ़ोत्तरी होती है। जिप्सम की आधी मात्रा बुवाई के समय एवं बोरेक्स की समस्त मात्रा बुवाई के 20 से 25 दिनो के बाद प्रयोग करने से फलियो का उत्पादन बढ़ जाता है। मूँगफली की खेती मे मुख्यता सिंचाई की कम जरूरत होती है, फिर भी जिस खेत मे पर्याप्त नमी न हो ऐसी परिस्थिति मे फसल रक्षक सिंचाई 3 चरणों मे-फूल आते समय, पेगिंग (सूईयां) एवं फलियो के विकास के समय मे दी जानी चाहिये। सभी प्रकार के रोग, कीट एवं पतंगो को नियंत्रण मे रखने के लिए समग्र जीव नाशी प्रबंधन अवश्य अपनाएं। बीजो के भंडारण से पूर्व उन्हे छाया मे सुखाले और फिर पालिथीन स्तर युक्त जूट के बोरो मे रखें। फलियों को कैल्सियम क्लोराइड 250 ग्राम प्रति 30 किलो के दर से उपचार करें इससे बीज की जीवन क्षमता 80 प्रतिशत तक बढ़ जाती है तथा गुणवत्ता को प्रभावित किए बिना अधिक समय तक भंडारण किया जा सकता है।
गर्मी में भूमि उपचार कर खेत की मिट्टी स्वस्थ बनायें
"गर्मी में भूमि उपचार कर खेत की मिट्टी स्वस्थ बनाने पर रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय ने अपनी राय कृषकों को दी है। डॉ वैभव सिंह, और डॉ प्रशांत जाम्भूलकर ने बताया है कि खरीफ मौसम की बुवाई के पूर्व ग्रीष्म ऋतू में खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए। गहरी जुताई से मिट्टी की कड़ी परत टूट जाती है जिससे वर्षा के पानी खेत में समां जाता है तथा खेत का जलस्तर बढ़ जाता है। खेत की जुताई खेत की ढाल की दिशा में करनी चाहिए। यह विधि वर्षा आधारित खेती के लिए बहुत उपयुक्त है एवं अनिवार्य रूप से कर मई माह में कर लेनी चाहिए। गहरी जुताई से खेत में पनप रहे हानिकारक कीट जो मिट्टी की गहराई में छुपे रहते हैं वह ऊपरी सतह पर आ जाते हैं और भीषण गर्मी के कारण अथवा चिड़िया द्वारा खा लिए जाते हैं । इसी प्रकार रोगों के बीजाणु जो मिट्टी में दबे रहते हैं, वह बुवाई से पूर्व भीषण गर्मी के संपर्क में आने से नष्ट हो जाते हैं। खरपतवार के प्रबंधन में भी यह क्रिया काफी लाभदायक है जिससे मुख्य फसल में खरपतवार के प्रकोप में भारी कमी देखी जा सकती है। इसके अतिरिक्त खरपतवार के विषैले तत्व जो मिट्टी में दबे रहते हैं जुताई करने से वह नष्ट हो जाते हैं। यह जुताई मई माह में दो बार 15 से 20 दिन के अंतराल पर करनी चाहिए। ज्यादा खरपतवार की स्थिति में यह जुताई तीन बार भी कर सकते हैं। गहरी जुताई के बाद किसान बंधुओं को मृदा उपचार के लिए विभिन्न प्रकार की खली ( नीम, मूंगफली, महुआ, सरसों इत्यादि), गोबर की खाद या एफ वाई एम के उपयोग से जैव संशोधन उपलब्धता अनुसार करना चाहिए। इससे मृदा स्वस्थ, मित्र सूक्ष्मजीव में वृद्धि व हानिकारक सूक्ष्मकृमि का नाश होता है। मृदा जनित रोगों के नियंत्रण हेतु बुवाई पूर्व ट्राईकोडर्मा संवर्धित गोबर खाद का प्रयोग करें। इसके लिए 200 किलो गोबर खाद में 1 किलो ट्राईकोडर्मा पाउडर मिलाएं तथा नमी के लिए पानी छिडकें। इस ढेर को प्लास्टीक की तिरपाल से ढके एवं लगभग 20-25 दिनों पश्चात् ट्राईकोडर्मा संवर्धित खाद उपयोग हेतु तैयार हो जाती है। खेत तैयार करते समय इस मिश्रण के उपयोग से उर्वरा वृद्धि के साथ मृदा जनित रोगों का प्रकोप भी कम होता है।
टिड्डियों की उत्पत्ति और उनका प्रकोप
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन में टिड्डियों की उत्पत्ति और उनका प्रकोप पर डॉ. उषा, डॉ. एम. सोनिया देवी और डॉ. विजय कुमार मिश्रा डॉ.सुन्दर पाल ने सलाह जारी किया है। भारत में, पिछले कुछ हफ्तों में, रेगिस्तानी टिड्डियों के छोटे झुंड, पाकिस्तान से, पूर्व में, राजस्थान की ओर से बुंदेलखण्ड तक पहुँच चुकी हैं। इसकी उत्पत्ति पूर्वी अफ्रीका, पाकिस्तान, ईरान, मिश्र और भारत के राजस्थान एवं गुजरात के रेगिस्तानों में मानी जाती है। रेगिस्तानी टिड्डियां सीमाओं का सम्मान नहीं करती है। यह एक दिन में 150 किमी तक की यात्रा कर सकता है और भोजन में अपना वजन लगभग 2 ग्राम प्रतिदिन खाता है। एक वर्ग किमी को मापने वाले एक झुंड में 8 करोड़ तक टिड्डे हो सकते हैं, जबकि अधिकांश झुंड लगभग 10-500 वर्ग किमी के होते हैं। रेगिस्तानी टिड्डी का जीवनकाल लगभग तीन से पांच महीनों का होता है। किन्तु इनका जीवनकाल बेहद परिवर्तनशील है और मौसम तथा अन्य पारिस्थितिक स्थितियों पर भी निर्भर करती है। इसके जीवन चक्र में तीन चरण शामिल हैं- अंडा, हॉपर (अप्सरा) और वयस्क। इनके अण्डे सेने की समय सीमा तापमान के आधार पर लगभग दो सप्ताह (10-65 दिन) तक होती है। हॉपर लगभग 30-40 दिनों की अवधि में विकसित होते हैं। वयस्क टिड्डे लगभग तीन सप्ताह से नौ महीने तक जीवित रह सकते हैं। शुष्क और आद्रता वाले वातावरण में इनका प्रकोप बढ़ जाता है और ये महामारी का रूप ले लेते हैं। इसलिये आगे भी इनके प्रकोप के प्रति तैयार रहने की जरूरत है। यह जानकारी निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस. एस. सिंह ने दी।
बुंदेलखण्ड में जैबिक खेती के बढ़ावे के लिये नीम अर्क का करें प्रयोग
बुंदेलखण्ड में जैबिक खेती को सरकार बढ़ावा दे रही है जिसमें नीम अर्क के उपयोग का विशेष महत्तव हैं। रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झाँसी के वैज्ञानिक डॉ सुन्दर पाल और डाॅ प्रशान्त जाम्बोलकर ने बताया कि नीम के फूल, फल, बीज, पत्तियां, जड़ और छाल में औषधीय गुण होने के साथ-साथ यह फफूंदी नाशक, कीट नाशक और सूक्ष्मकृमि नाशक गुण रखते है। नीम अर्क गैर विषैले होने के कारण अन्य जीवो पर कोई नुकसान नहीं पहुंचाता और स्थलीय एवं जलीय वातावरण को भी दूषित नहीं करता। नीम अर्क का उपयोग सभी प्रकार के रस चूसने वाले कीड़ों एवं सुंडीयों के साथ-साथ यह 100 से भी अधिक कीटों की वृद्धि और विकास पर सीधे प्रभाव डालता है। नीम की पत्तियों का अर्क तैयार करने के लिए इनकी पत्तियों को पेड़ से तोड़कर अच्छी तरह से साफ कर इन्हें छायादार स्थान पर रखकर सुखाते हैं। सूखी हुई पत्तियों को पीसकर पाउडर बना कर एक मिली मीटर व्यास वाली छलनी से छान लें। सूखी पत्तियों के पाउडर की 100 ग्राम मात्रा को 300 मिलीलीटर पानी के साथ-साथ 5 मिलीलीटर अदरक का रस या 5 मिली ग्राम सर्फ पाउडर डालकर अच्छी तरह मिला दें और इसे रात भर के लिए छोड़ दें। अगले दिन इस मिश्रण को हिलाकर, पतले कपड़े से छान लें और कपड़े में बचे मिश्रण में इतना पानी डाले कि अर्क की मात्रा 2 लीटर हो जाए। मिश्रण की मात्रा को और बढ़ाने के लिए नीम की पत्तियों के पाउडर की मात्रा को इसी अनुपात में बढ़ा लें। इसी प्रकार से हम मिश्रण की मात्रा को बढ़ा सकते हैं। अब यह रसायन फसलो में छिड़कने के लिए तैयार है। नीम की फलियों से अर्क बनाने के लिए इसकी निबोरियों को पानी से भरी बाल्टी में डाल कर तब तक मसलते हैं जब तक कि बीजों से छिलका व गूदा अलग न हो जाए। निकाले गए बीजों को हवादार छाया में एक चादर के ऊपर एक समान रूप से फैला दें और 6 से 7 दिन तक सुखाने के बाद बीजों को छोटे-छोटे हवादार थेलो में भरकर रखें। कुछ समय पश्चात बीजों से कठोर छिलका निकाल कर गिरी को घरेलू मिक्सी में या सिलबट्टी की सहायता से पीसकर पाउडर बना लें और उसे 1 मिली मीटर व्यास वाली छलनी से छान लें। 100 ग्राम गिरी पाउडर को 300 मिलीलीटर पानी के साथ 5 मिलीग्राम सर्फ का पाउडर मिला दे और एक रात के लिए छोड़ दें। सुबह में इसे हिलाकर महीन सूती कपड़े से छान लेते हैं। कपड़े पर बचे हुए मिश्रण में से फिर इतना पानी डालते हैं कि जिससे घोल की मात्रा 2 लीटर हो जाए। इस घोल को एक स्प्रेयर मशीन में डालकर शाम के समय फसलों पर छिड़काव करने से फसलों के कीड़ो से रक्षा की जा सकती है। नीम की पत्तियों एवं फलियों का अर्क को ४ मिली प्रति लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करने से फसलों में रस चूसक कीट के नियत्रण कर विषाणु रोग के प्रसार का जैविक प्रबंधन किया जा सकता है।
सूचना प्रोद्योगिकी अपनाकर किसान आय बढ़ाए
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झाँसी के कुलपति डॉ अरविंद कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन मे बुंदेलखंड क्षेत्र के लिये वर्तमान समय में वैज्ञानिकगण डा. प्रिंस कुमार सोम, डा. डेविड भास्कर ने बताया कि कोविड-19 महामारी के प्रकोप से किसानो को परम्परागत तरीके अर्थात कृषि विभाग, कृषि विज्ञान केंद्र, व ई-चोपाल, से कृषि सम्बंधित जानकारी न मिलने के कारण किसानो के अधिकतर फसल उत्पाद, फसल कटाई का मौसम होने के कारण किसानो को कृषि सम्बन्धी जानकारी का अभाव हुआ है। इसी कारण से किसानो की आय भी प्रभावित हुई है इसके लिए किसान सूचना प्रोद्योगिकी को अपनाकर अपनी आय स्तर बढ़ा सकते है। सूचना प्रोद्योगिकी कोविड-19 के संक्रमण को कम करने के साथ ही कृषि क्षेत्र में उत्पादक व उपभोक्ता का सामंजस्य स्थापित करने में सफल रही है। किसान सूचना प्रोद्योगिकी के माध्यम से किसान किसान कॉल सेंटर न. 18001801551 के द्वारा व किसान मोबइल एप्प द्वारा भी मौसम सम्बन्धी, पोध संरक्षण, कीटनाशक, भंडारण, विपणन, व पशु चिकित्सा से सम्बन्धित जानकारी प्राप्त कर सकते है। किसान ष्कृषि विज्ञान केन्द्रष् द्वारा सूचना क्रान्ति के माध्यम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म जैसे गूगल मीट, जूम एप्प, व्हाट्सप ग्रुप तथा फेसबुक आदि के माध्यम से भी कृषि संबंधित जानकारी प्राप्त कर लाभ उठा सकते हैं। समाचार पत्र भी विभिन्न श्रोतों से कृषि संबंधी जानकारी देते हैं। आधुनिकी सूचना प्रोद्योगिकी ई-नाम पोर्टल के माध्यम से भी किसानो को बाजार की जानकारी के साथ उपज बेचने के लिए बाजारो के बारे में महत्वपर्ण जानकारी प्रदान की जाती है। साथ ही बाजार की वर्तमान कीमत और बाजार में वस्तुओ की माँग की जानकारी भी उपलब्ध कराई जाती है इससे किसान उचित समय पर व् उचित मूल्य पर फसल उत्पादन को बेचने का निर्णय लेकर अपनी आय का स्तर बढ़ा सकते है। इसके साथ ही एम-किसान पोर्टल पर अपना पंजीकृत कराकर मोबईल पर एस. एम. एस. द्वारा जानकारी प्राप्त कर सकते है।
गर्मियों में भूमि की नमी बचाकर पौधों को सुरक्षित रखें
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डाॅ अरविन्द कुमार के निर्देशन में गर्मियों में भूमि की नमी बचाकर पौधों को सुरक्षित रखने हेतु डाॅ प्रभात तिवारी एवं डाॅ एम. जे. डोबरियाल ने सलाह जारी किया है। वे कहते हैं कि ग्रीष्म ऋतु जब आती है तो अपने साथ कई सारी परेशानियों को भी लेकर आती है, और मुख्यतः बुंदेलखंण्ड क्षेत्र में तापमान में और भी अधिकता हो जाती है। इस अवस्था में वृक्षों को बचाना भी अत्यंत दुर्लभ कार्य होता है, इसलिए हमें वृक्षों का भी निरंतर ख्याल रखना चाहिए। सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि उन्हें तेज धूप से बचाया जाए और इसके लिए वृक्षों के चारों ओर पॉलिथीन या कपड़े का जाल बनाकर तेज गर्मी से उनकी रक्षा कर सकते हैं। गर्मियों में वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया भी बहुत अधिक होती है, जिससे मिट्टी तथा पौधों में उपस्थित जल भाप बनकर उड़ जाता है और पौधे नमी की कमी होने के कारण झुलस जाते हैं। इसके लिए आवश्यक है कि हम पौधों को निरंतर जल का प्रवाह देते रहें एवं उसके लिए हमें जल एक साथ ना देकर कुछ समय अंतराल पर देना चाहिए और हो सके तो सिंचाई की उन्नत तकनीकों जैसे माइक्रो तथा स्प्रिंकलर सिंचाई का प्रयोग लाना चाहिए। पौधे मुख्यतः जल अपनी जड़ों द्वारा भूमि के अंदर से खींचकर अपने तमाम अंगों में भेजते हैं। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि भूमिगत जल व भूमिसतह में भी नमी बनी रहे और इसके लिए किसानों को फसलों की भूसें, पाॅलीथीन, सूखी हुई खरपतवार, पेड़ों की पत्तियां इत्यादि का भी इस्तेमाल मल्चिंग के रूप में कर सकते हैं। गर्मियों के मौसम इन तरीकों को अपनाकर हम सब वृक्षों की देखभाल सुनिश्चित कर सकते हैं।
कम लागत में पोषण सुरक्षा और अधिक आय के लिये कोदो का करे उत्पादन
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिकों ने कम लागत में पोषण सुरक्षा और अधिक आय के लिये बुंदेलखण्ड में खरीफ के मौसम में कोदो की फसल लगाने की सलाह दी। विवि के कुलपति डाॅ0 अरविन्द कुमार एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डाॅ0 एस. एस. सिंह के निर्देशन में वैज्ञानिक डाॅ अमित तोमर एवं डाॅ0 विष्णु कुमार ने बताया कि बुंदेलखंड की प्राचीन फसलों में मोटे अनाज का कभी वहुलता में कृषि हुआ करती थी। लेकिन बदलते समय के साथ सांवा-कोदो जैसी फसलें तो गायब ही हो गई। लेकिन एक बार फिर इन फसलों के दिन आने वाले हैं। रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय ने मिलेट्स बीज हब के अन्र्तगत कोदो का बीज उत्पादन शुरू किया है। बुंदेलखंड का मुख्य व्यवसाय खेती है। प्राचीन समय यहाँ लोग मोटे अनाजों की खेती करते रहे हैं। लेकिन समय के साथ खेती का स्वरूप भी काफी बदल गया। मोटे अनाजों की जगह धान, गेहूं, चना, मटर, मसूर जैसी फसलों ने ले ली है। सरकार का जोर किसानों की आय दोगुना करने पर है। स्थानीय स्तर पर रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय ने सांवा और कोदो की पैदावार की योजना बनाई है। एक बार फिर मोटे अनाजों के उत्पादन पर जोर दिया जा रहा है। कोदो की बोआई का समय 15 जुलाई तक है। इसे पंक्तियों में बोने से उत्पादन अच्छा होता है। पंक्ति से पंक्ति की दूरी 40 से 50 सेमी, पौध से पौध की दूरी 8 से 10 सेमी व गहराई 3 सेमी होनी चाहिए। एक हेक्टेयर में 10-15 किलो ग्राम बीज की जरूरत होती है। इससे औसत उत्पादन 20 से 22 कुन्तल प्रति हेक्टेयर तक तथा सिंचित कृषि में कुल उत्पादन 25 से 30 कुन्तल प्रति हेक्टेयर तक होती है। इस फसल में कम पानी में भी अच्छा उत्पादन होता है। कोदो बुंदेलखंड के लिए मुफीद फसल है। क्योंकि यहां सिचाई की समस्या रहती है। जबकि इस फसल में यदि लंबे समय तक बारिश न हो तो एक या दो सिंचाई ही करनी पड़ती है। ।
फसल उत्पादन बेचने की आधुनिक विधि अपनाकर अधिक लाभ उठायें
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झाॅसी के कुलपति ड अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डाॅ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में फसल उत्पादों को बेचने के लिये आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल की सलाह दी है। इस सम्बंध में डॉ डेविड और डाॅ. पी. के. सोम ने बताया कि काविड-19 के कारण देश में कृषि उत्पादों की बिक्री पर प्रत्यक्ष रूप से बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। जिसके कारण किसानों को अपनी फसल उपज की बिक्री व उचित मूल्य जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इस प्रक्रिया में ई.नाम (इलेक्ट्रॉनिक नेशनल एग्रीकल्चर मार्केटिंग) किसानों के लिए हितैषी बनकर उभरा है। इसके माध्यम से किसान अपनी उपज को सही समय पर व उचित मूल्य पर बेच सकते हैं। यह माध्यम किसानों को अपनी फसल उपज बेचने के लिए बेहतर विपजन अवसरों को बढ़ावा देता है। इसके साथ ही कृषि उत्पाद विपणन आयोग से संबंधित जानकारी और सेवाओं के लिए एकल खिड़की प्रदान करता है। इस माध्यम से वस्तुओं की पहुंच, गुणवत्ता, उचित कीमतें व ई भुगतान से किसानों के खाते में सीधे धनराशि प्रदान करने से संबंधित खरीदना बेचना शामिल है। कृषि मंत्रालय थोक बाजारों में सामान्य स्थिति बाहल करने के लिये कई ठोस कदम उठाए गए हैं। जिनमें ई.नाम मोबाइल ऐप्प ने किसानों हितेषी सुविधाओं को और मजबूत किया है किसानों के लिए वस्तुओं के विपणन को आसान बनाने व उनकी आवश्यकताओं को पूरी करने के लिए 14 अप्रैल 2016 को ई.नाम को 21 मंडियों में लागू कर दिया था। वर्तमान समय में यह सुविधा ष्एक राष्ट्र-एक बाजारष् (ई.नाम ) को साकार बनाने की दृष्टि से अब 16 राज्यों और 2 केंद्र शासित प्रदेश के 585 मंडियों तक पहुंच गई है। इसीलिए बुंदेलखण्ड के किसानों को भी अपनी अजीविका को सुचारू रूप से चलाने व प्रतिकूल स्थिति का सामना करने के लिए ई.नाम प्लेटफॉर्म को अपनाना चाहिए।
लम्बी अवधि में बड़ी आय का श्रोत है सागौन
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झाॅसी के निदेशक प्रसार शिक्षा डाॅ एस एस के निर्देशन में डाॅ पवन कुमार ने सुझाव दिया कि दीर्ध अवधि में अच्छी आय प्राप्त करने के लिये सागौन लगाने की जरूरत है। इसे मेड़ो पर और खेतों में भी लगाया जा सकता है। सागौन से प्राप्त आय बच्चों की उच्च शिक्षा, मकान बनाने और वैवाहिक काम के लिये खर्च किया जा सकता है। इसे किसी भी मौसम में लगाया जा सकता है। इस पौधे से 15-20 सालों में लकड़ी मिलना शुरू हो जाता है। लकड़ी मजबूत व सुनहरी पीली और उच्च गुणवत्तायुक्त होती है। रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय के डा. वैज्ञानिक डॉ मनमोहन डोबरियाल ने बताया कि सागौन से खेत में जानवर नहीं घुस पाते और उनकेे फसल की सुरक्षा भी होती है। सागौन की नर्सरी के लिए हल्की ढाल युक्त अच्छी सूखी हुई बलुई मिट्टी होनी चाहिये। मिट्टी को भुरभुरा बनाने के लिए खेत की 2-3 बार जुताई करने पशचात मिट्टी को समतल करें ताकि खेत में पानी भर ना हो सके। नए पौधों की रोपाई के लिए 2×2 मीटर की दूरी पर 45×45×45 सैं0मी0 के आयतन का गड्ढे खोदे। प्रत्येक गड्ढे में गली हुई रूड़ी की खाद के साथ कीटनाशक का प्रयोग करें। रोपाई के लिए पूर्व अंकुरन पौधों का ही प्रयोग करें। मॉनसून का मौसम सागौन की रोपाई के लिए सबसे अच्छा मौसम माना जाता है। नर्सरी में बुआई से पहले सागौन के बीजों को 12 घंटे के लिए पानी में भिगो कर अगले 12 घंटे के लिए धूप में सुखाया जाता है। यह प्रक्रिया 10-14 दिनों तक बार बार दोहराई जानी चाहिये। नियमित समय पर गोड़ाई। सागौन बहुत जल्दी बढ़ने वाला पौधा है। समय समय पर पौधों की जांच करते रहना चाहिए और आवश्यक खाद भी देते रहना चाहिए। चार साल में एक पंक्ति के अन्तराल को छोडकर सागौन की लाईन काटकर बेच देना चाहियें इससे पूरी लागत निकल आती है। इसे परिपक्व होने पर 10-25 साल के बीच में बेचने पर भारी मुनाफा (पचास लाख से एक करोड़ रूपये) होता है। अतः दीर्ध अवधि में सागौन अतिरिक्त आय का श्रोत बन सकता है।
खरीफ सब्जियों की पौध स्वयं तैयार करें
खरीफ सब्जियों की खेती बुंदेलखण्ड के किसान बहुतायत में करते हैं। बाजार में मिलने बाले पौधों में बीमारियों के साथ महंगी भी होती हैं। वैज्ञानिक तरीके से इन पौधों को स्वयं तैयार एवं बेचकर अतिक्ति आय प्राप्त कर सकते हैं। रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झाॅसी के कुलपति डाॅ. अरविन्द कुमार एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डाॅ एस एस सिंह के निर्देशन में डाॅ. अर्जुन लाल ओला, डाॅ. मनीष पाण्डेय एवं डाॅ. ए. के. पाण्डेय ने सुझाव दिया कि वर्षा ऋतु की हल्की शुरूआत हो चुकी है, और जल्द ही मानसून भी आने वाला है। मृदा में नमीं की मात्रा पर्याप्त है और इसे ध्यान में रखते हुये वर्षाकालीन टमाटर, बैंगन व मिर्च की फसल लेने के लिए नर्सरी में बीजांे की बुआई जून के प्रथम पखवाडे में करंे। बीजों की बुआई करने के लिए सबसे पहले पौधशाला के लिए स्थान का चुनाव करना चाहिए, पौधशाला के लिए चुना हुआ स्थान सामान्य धरातल से कुछ ऊँचा होना चाहिए। भूमि उपजाऊ एवं जल निकास की उचित व्यवस्था के साथ सिंचाई का स्त्रोत भी पौधशाला के पास ही होना चाहिए। पौधशाला की भूमि को निजर्मीकृत करने के लिये 50 ग्राम ट्राइकोडर्मा नामक कवक को प्रति लीटर जल घोल कर उपयोग में लेते है जिससे कवक जनित रोगो का निवारण किया जा सकता है। पौधशाला में दीमक व अन्य भूमिगत कीटो की रोकथाम के लिये क्लोरोपाॅयरिफाॅस या नीम की पत्तियों की खाली भूमि में मिलाते है। पौधशाला की क्यारियों को 1.0 मी. चैड़ी व 3-8 मी. लम्बी बनाते है। प्रत्येक नर्सरी बेड मे 3 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति वर्ग मीटर की दर से एवं 50 ग्राम नत्रजन, फास्फोरस व पोटाश का मिश्रण समान मात्रा में डाले। पौधशाला में दो क्यारियों के बीच 30-40 सेमी. चैड़ी नाली छोड़ते है। बीज की बुवाई से पहले बीज को थाइरम या बाविस्टन या कैप्टान कवकनाशी 2 ग्राम/किग्रा. की दर से उपचारित करें। उसके बाद क्यारी के समानांतर 5 से 7 सेमी की दुरी पर लाईन खीचें। उसके बाद बीज उस लाइन में 1-1.5 सेमी. गहराई पर बुआई कर हल्का दबायें, और अंत में घास-फूस से ढक दें। बुआई के तुरन्त बाद र¨जकेन (फव्वारे) से हल्की सिंचाई करें। बीज की क्यारी क¨ प्रति दिन द¨ बार र¨जकेन से हल्की सिंचाई तब तक करे जब तक अंकुरण न ह¨ जाए। बीज के अंकुरण के बाद घास फूस क¨ हटा दें। पौधशाला में बुआई के 25-30 दिन बाद पौधे खेत में रोपाई के लिए तैयार हो जाती है।
बुआई के पहले किसान सरलता से करें अपने बीज का परीक्षण
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डाॅ. अरविन्द कुमार एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डाॅ एस एस के निर्देशन में डाॅ. नीलम बिसेन, डाॅ. विष्णु कुमार, डाॅ. गुँजन गुलेरिया, एवं डाॅ तनुज मिश्रा ने बताया कि किसान बुआई के पहले सरलता से बीज की अंकुरण क्षमता का परीक्षण कर सकते हैं। बरसात के आगमन के साथ किसान खेत की तैयारी में लग जाते हंै, लेकिन उसके साथ ही साथ बीज की अंकुरण क्षमता का सही आकलन भी अच्छे उत्पादन के लिए आवश्यक है। बुन्देलखण्ड के किसान मुख्यतः स्वयं के बीज का उपयोग करते है, और ऐसे में यह अत्यंत जरुरी हो जाता है की वो अपने बीजों की अंकुरण क्षमता का परीक्षण पहले से ही करके रखे ताकि उचित बीज दर पर बुआई की जा सके। बीज के परीक्षण की विधि बहुत ही आसान है जिसे किसान स्वंय अपने घर पर कर सकते हंै। इसके लिए 100 बीजों को एक मोटे सूती कपड़े में या जूट की बोरी में दूर दूर रख कर इसे गीला करके छाँव में नमी बनाकर रखंे और 4-5 दिन बाद में अंकुरित बीजों की गिनती करंे। दूसरी विधि में अखबार की 4-5 पन्ने लेकर इसे 4-5 बार उल्टा सीधा मोड़कर उनके बीच में बीज को रखकर और इनके किनारो को मोडकर दोनों छोरों पर धागे से बाँध दे और पानी में भिगों दें। अतिरिक्त पानी को निकाल कर पेपर को पॉलीथिन में रख कर घर के अंदर खूंटी पर लटका दें। चार से पाॅच दिनों में अंकुरित बीजों की गिनती करना चाहिये। साधारणतया अंकुरित बीजो की संख्या अगर 80-90 के बीच आती है तो बीज उत्तम किस्म का माना जाता है, और 60-70 बीज के अंकुरण पाये जाने पर 30-40 प्रतिशत बीज दर बढ़ाकार बोने की सलाह दी जाती है। इसी प्रकार यदि अंकुरित बीज की संख्या 60 से कम आती है तो बीज बदल देना ही उचित होगा। इस प्रकार किसान बीज की गुणवत्ता का पता करके अच्छा उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं।
अखबार विधि द्वारा बीजों के अंकुरण क्षमता का परीक्षण
सफेद मूसली की खेती - लाभकारी सौदा
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डाॅ. अरविन्द कुमार एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डाॅ एस एस के निर्देशन में डाॅ विनोद कुमार, डाॅ पंकज लावानिया, डाॅ अमेय काले ने बताया कि म्ूासली मूलतः एक कन्द है जिसकी बढोत्तरी जमीन के अन्दर होती है। सफेद मूसली प्रयः दवाओं के लिये उगायी जाती हैं। प्रति एकड़ कृषक इससे 2.0 लाख रूपये तक लाभ कमा सकते हैं। मूसली की फसल के लिये खेत की तैयारी करने के लिये सर्वप्रथम खेत मे गहरा हल चलाऐं। अच्छी जल निकास वाली रेतीली दोमट मिटटी जिसमंे जीवाश्म की पर्याप्त मात्रा उपस्थित हो, इसकी खेती के लिये सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। यदि खेत में हरी खाद के लिए अल्पावधि वाली फसल लगायी गयी हो तो उसे काटकर खेत में मिला दें, तदुपरांत एक खेत में 20-25 क्विंटल वर्मीकम्पोस्ट, 5 क्विंटल बोनमील, बायो एंजाइम 16 किलोग्राम, 5 ट्राली सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति एकड़ की दर से प्रयोग करना चाहिए । सभी खादों को खेत की अंतिम जुताई से पहले खेत में डाल कर अच्छी तरह से मिला देनी चाहिए तदुपरांत पाटा चलाकर भूमि को समतल बना लेना चाहिए। मूसली की अच्छी पैदावार के लिए खेत में क्यारियाॅ बना ली जाये, इस सन्दर्भ में सामान्य खेत में 3-3.5 फीट चैड़े ओर कम से कम 6 इंच से 1.5 फीट ऊँचे उठी क्याॅरियाॅ बनाए। क्यारियों के किनारों पर आने-जाने के लिए 50 से0मी0 चैडा रास्ता छोड़ा जाना आवश्यक है। आलू की तरह सिंगल बेड् भी बनाये जा सकते है हालाँकि इसमे ज्यादा जगह लगती है परन्तु मूसली उखाड़ते समय यह सुविधाजनक होते है। पानी की उचित जल निकासी हेतु नालियों की पर्याप्त व्यवस्था की जानी चाहिऐ। मूसली की बीजाई इसकी धन कंदों /टयूवर्स/ फिंगर्स से की जाती है। अच्छी फसल की प्राप्ति के लिये अच्छी गुणवत्ता तथा प्रमाणिक बीज आवश्यक होती है। जिसके लिये 5-10 ग्राम तक वजन के क्रउन युक्त फिंगर्स को 15-20 से0मी0 की दूरी पर लगाऐं। इस प्रकार प्रति एकड़ 4 क्विंटल या प्रति हैक्टैयर 10 क्बिंटल फिंगर्स /पौध सामग्री की जरूरत पडती है। सम्पूर्ण पौधे जिसमें फिंगर्स की संख्या 10-15 होती है उन्हे तेज व्लेड से एक से दो क्रउन युक्त फिंगर्स में विभाजित कर रोपण करे। प्रयुक्त किये जाने वाले फिंगर्स का छिलका क्षतिग्रस्त ना हो यह सावधानी जरूर बरतें। जून से जुलाई माह के प्रारम्भ में तैयार बेड र्समेंल कडी की सहायता से उचित गहराई के गढढे बनाकर कन्दों का रोपण़ 6×6 इंच की दूरी पर करे।
फूल उत्पादन के लिये इस समय क्या करें
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय के निदेशक प्रसार शिक्षा डाॅ एस एस के निर्देशन में डॉ गौरव शर्मा, डॉ प्रियंका शर्मा एवं डॉ ए के पाण्डे ने बताया कि फूलों की खेती करते हुए किसान भाई सामाजिक दूरी बनाए रखे, मुँह ढक कर रखें एवं कार्य के बीच में साबुन से हाथ साफ करते रहें। गुलाब के फूल जो बिके न हों उन्हें फेंकने के बजाय गुलकंद बनाएँ। गुलाब में पाउडरी मिल्डु नामक बीमारी को बाविस्टीन 0.2 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिला कर छिड़काव करें। गुलाब में थ्रिप्स एवं माइट्स का प्रकोप इस गर्मी एवं सूखे वातावरण में ज्यादा होता है। इसके रोकथाम के लिए थाइओमेथोएक्जाम 3 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी का घोल बना कर छिड़काव करें। गेंदा, गेलार्डिया एवं अन्य बरसाती फूलों के लिए खेत की तयारी शुरू करें। अच्छी गहरी जुताई कर खेत को सोलाराइजेसन के लिए छोड़ दें। सेवन्ती (गुलदाउदी) की खड़ी फसल को काट दें (जमीन से 7 से मी ऊंचाई तक) एवं सिंचाई कर के कोई भी नाइट्रोजन युक्त खाद दें। ग्लाडिओलस के कन्द खोद कर निकालें एवं 2ग्राम प्रति लीटर के कार्बेण्डजीम के घोल में 15 मिनट डाल कर निकाल लेवे एवं छायादार स्थान में एक सप्ताह के लिए सूखने दें। कोई भी फूल या अलंकृत पौधा जो कि खेत या गमले में हो उसकी सिंचाई अवश्य करें साथ में खरपतवार को भी निकालते रहें।
जून माह में कृषि वानिकी हेतु सलाह
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झाॅसी के कुलपति डाॅ अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डाॅ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में कृषि वानिकी के लिए सामायिक सलाह जारी किया है। डा.ॅ पंकज लवानिया, डाॅ. प्रभात तिवारी तथा डाॅ. मनमोहन डोबरियाल ने सलाह दी है कि किसान भाई उद्देशीय वानिकी पौधे जैसे सागौन, शीशम, सहजन, कदम्ब, मिलिया, बबूल, आवला, बेल, खैर, महुआ, इत्यादि को खेतों की मेड व खेत के चारो तरफ, या खेतो में पक्ति फसल के साथ वर्षाकाल में लगाने की तैयारी करे। उपरोक्त पौधों की प्रजातियां वर्षाकाल में लगाने के लिए गडढो की खुदाई अव मई के प्रथम सप्ताह में शुरू कर दे। वृक्ष प्रजातियों के अनुसार गडढो का आकर एवं दूरी सुनिश्चित करें। सागौन और शीशम, नीम, मिलिया, और कदम्ब के लिये 60×60×60 से0मी0 जबकि सहजन, बबूल, और खेर के लिये 45×45×45 से0मी0 आयत के गडढे खोदना चाहिये। सागौन बबूल और खेर के लिये मेड़़ पर 3 मी0 और खेत पर 4 मी0 दूरी पर गडढे खोदना चाहिये। शीशम, नीम, मिलिया और कदम्ब के लिये मेड़़ और खेत दोनो स्थिति में 4 मी0 पर गडढे खोदना चाहिये। सहजन के गडढे मेड़़ पर 1 से 2 मीटर के दूरी पर खोदना चाहिये। यदि इन वृक्षो को खेत में लगाना हो तो सागौन के लिये 5 मी0, शीशम के लिये 4 मी0, अन्य वानिकी पौधो के लिये 6 मी0 पर पंक्ति से पंक्ति की दूरी पर गडढो को रखना चाहिये। कृषि वानिकी प्रणाली में सामान्यता पौधे की पौधे से दूरी व पंक्ति से पंक्ति की दूरी इस प्रकार रखे कि कृषि उपकरण जैसे ट्रेक्टर आदि का आसानी से प्रयोग हो सके। मई माह में इन गडढो को सूर्य ताप से उपचारित होने के लिये छोड देना चाहिये। उपचारित गढ्ढों में पकी हुई गोबर की खाद मिलाकर जून के अंत में बंद कर देना चाहिये।
बुंदेलखंड में किसान करे एरोबिक धान की खेती
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डाॅ0 अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डाॅ0 एस एस सिंह के मार्गदर्शन में बुन्देलखंड में एरोबिक धान की खेती करने के बारे में वैज्ञानिकगण डाॅ0 मनोज कुमार सिंह, एवं डाॅ0 विष्णु कुमार ने सामयिक सलाह जारी की है। इसमें इन्होने बताया कि बुन्देलखंड जहाँ सिंचाई की पर्याप्त सुविधा नहीं है, किसान धान की खेती करते हैं और अक्सर सूखा जैसी स्थिति बनी रहती है, ऐसे में एरोबिक धान की खेती से किसान बिना गाना/सांगा लगाए, सीमित सिंचाई एवं सीधी बुआई से धान पैदा कर सकते हैं। भा.कृ.अ.प.-पूर्वी अनुसंधान परिसर, पटना से विकसित की गई धान की दो प्रजातियां स्वर्ण श्रेया व स्वर्ण शक्ति को विश्वविद्यालय के फार्म एवं कुछ चयनित किसानो के खेतों पर परीक्षण हेतु लगाई जाएगी। भूमि में समुचित नमीं से भी इन प्रजातियों की अच्छी पैदावार हो जाती है। सीधी बुआई के लिए इनका बीज दर 25 से 30 किलोग्राम/हेक्टेयर है। सामान्य परिस्थिति में येे प्रजातियां 45 से 50 कु/हे. और सूखा की स्थिति (30 से 45 वर्षा रहित दिन) में भी 25 से 30 क्विंटल/हेक्टेयर की उपज दे सकती हैं। एरोबिक धान 115-120 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। अतः एरोबिक तरीके से धान की खेती करके 40 से 50 प्रतिशत जल की बचत के साथ अधिक उपज प्राप्त की जा सकती है।
रोग रहित मूगफँली उत्पादन के लिए बीज शोधन करें।
झाँसी। रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डाॅ0 अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डाॅ0 एस एस सिंह के मार्गदर्शन में डाॅ. अनीता पूयाम एवं डाॅ. प्रशांत जाम्भुलकर ने बुन्देलखंड में मूंगफली निरोगी मूगफँली उत्पादन से सम्बिंधित प्रमुख रूप से जानकारी दी है। मूंगफली बुन्देलखण्ड की एक प्रमुख फसल है। इनमें चार तरह रोग प्रमुख है ग्रीवा विगलनए सुखा गलनए पर्ण धब्ब और रतुआ। इन रोगों के प्रकोप से 25 से 90 प्रतिशत उत्पादन में नुकसान हो सकता हैं। खेती के लिये रोग मुक्त बीज किसी विश्ववसनीय स्त्रोत से ही प्राप्त करें। बुवाई से पूर्व कवक नाशको से बीजोपचार करें, इसके लिए तीन ग्राम थिरम या कॅप्टन या 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति किलोग्राम बीज से बीजोपचारित कर ही बोना चाहिए । कवक नाशको के अलावा जैव नियंत्रण भी रोग की रोकथाम के लिए उपयोगी हैं । जैव कारक जैसे की ट्राइकोडर्मा पाउडर से बीजोपचार करने के लिए चार ग्राम प्रति किलोग्राम बीज में मिला कर ही बोएँ । इससे न केवल रोग की रोकथाम होगी बल्कि ये पोधो के रोग प्रतिरोधन में वृद्धि के साथ पौधे के विकास मे भी सहयोगी होते है । मृदा जनित रोग प्रबंधन हेतू मृदा उपचार आवश्यक है । मृदा उपचार हेतु भी ट्राइकोडर्मा पाउडर का 2.5 किलोग्राम सूत्रीकरण को 100 किलोग्राम गोबर की खाद में मिला कर छाया वाली जगह में 30 दिनों के लिए रख दें । तीस दिनों पश्चात गोबर की खाद पर सफ़ेद रंग की कवक का जाल बन जायेगा जो की प्रयोग के लिए तैयार मानी जाती है। इस बात का ध्यान रखे कि जिस खेत में मूंगफली लगती हो उस खेत में गेहूँ और चने को नहीं लगाना चाहिए ।
खेत की मेढ़ पर बाँस लगाकर लाभ उठाए
झाँसी। रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डाॅ0 अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डाॅ0 एस एस सिंह के मार्गदर्शन में डॉ गरिमा गुप्ता एवं डॉ मनमोहन जे डोबरियाल ने बाँस के आर्थिक लाभ की ओर ध्यान दिलाया है। बांस की खेती को बढ़ावा देने के लिए इसे पेड़ की श्रेणी से हटा दिया है जिससे इसकी कटाई में कोई कानूनी वाधा नहीं है। और आसानी से काटा एवं बेचा जा सकता है। किसान अपनी आय दो गुनी कर सकते है। बाँस को कलम और प्रकंद के द्वारा लगाया जाता है। बुंदेलखंड में बाँस की बहुत सारी प्रजातियां आसानी से लगाई जा सकती हैं जैसे बम्बूसा टुल्डा, बम्बूसा वुल्गैरिस, और डेंड्रोकालमुस स्टिक्टुस। बाँस को 1 मीटर चैड़ी मेड पर 2 मीटर और 3 मीटर की दूरी पर लगाया जा सकता है। बाँस को लगाने के लिए पहले हमें निर्धारित दूरी पर 30ग30 सेंटीमीटर के गड्ढे खोदने चाहिए। हर गड्ढे में 1.5 किलोग्राम गोबर की खाद, 100 ग्राम यूरिया, 100 ग्राम सुपरफास्फेट, 50 ग्राम पोटाश मिट्टी के साथ मिला कर डाला जाना चाहिए। सामान्यता बांस को बहुत कम मात्रा में रासायनिक उर्वरक डालने की आवश्यकता होती है। पौधे को गड्ढे में लंबवत रखें, और साथ ही साथ यह सुनिश्चित करते हुए कि जड़ें मुड़नी नहीं चाहिए। रोपण के बाद, वर्तमान जलवायु परिस्थितियों के आधार पर, पानी से सिंचाई करें, यह प्रकंद और जड़ों को आवश्यक नमी प्रदान करेगा, और पौधे के चारों ओर ढीली मिट्टी को संपीड़ित करेगा । यदि लगातार पर्याप्त वर्षा नहीं होती है तो अगले 10 हफ्तों के लिए सिंचाई जारी रखें. बांस की वृद्धि को बढ़ाने के लिए मल्चिंग एक बहुत अच्छा तरीका है उसमें मिट्टी और पत्तियों को मिलाकर बाँस के आधार पर फैला दिया जाता है। गर्मियों में हरे चारे की कमी के समय बाँस को चारे के रूप में भी जानवरों को खिलाया जा सकता है। बाँस को डेयरी, मांस और पोल्ट्री संचालन के दौरान जानवरों के कचरे, नाइट्रेट एकाग्रता और घोल के भंडारण से जुड़ी समस्याओं को सुधारने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है। खेतों की मेड़ पर बाँस की जैविक बाड़, आवारा पशुओं के खिलाफ सुरक्षा के रूप में कार्य करती है और साथ ही किसान अपनी नियमित फसल की खेती के साथ 1 से 1.5 लाख सालाना अतरिक्तआय प्राप्त कर सकते हैं । बाँस को लगाने के चार साल के बाद से हर साल, लगभग 30 से 35 साल तक उत्पादन लिया जा सकता है । इच्छुक किसान कृषि विश्वविद्यालय के वानिकी विभाग से संपर्क कर सकते है।
मोटे अनाज-बाजरा की उत्पादन तकनीक
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झाँसी के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा, डॉ एस एस सिंह के मार्ग दर्शन में खरीफ ऋतु के लिए बाजरा की उत्पादन तकनीक एवं उन्नत किस्मों की जानकारी दी गई है। इस सम्बन्ध में डॉ रूमाना खान और डॉ विष्णु कुमार ने बताया की खेतो में पानी निकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए। बुआई के 15 दिन पूर्व 10 से 15 टन प्रति हेक्टेयर सड़ी गोबर की खाद डाल कर हल द्वारा उसे भली-भॉति मिट्टी में मिला लेना चाहिए। बाजरा की प्रमुख संकर किस्मों में आर एच बी .173, जी एच बी .905, एम पी एच एच.17, एच एच बी.223 तथा संकुल किस्मों में पी सी ब्.701 तथा अई सी वी.8203ए एफ ई.10.2 आदि प्रमुख किस्में बाजार में उपलब्ध है। वर्षा प्रारंभ होते ही जुलाई के दूसरे सप्ताह तक कतारों में बीज को 2 से 3 सेमी. गहराई पर बोना चाहिए। लाइन से लाइन की दूरी 45 से. मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 से 15 से. मी.तथा 3 से 5 किलोग्राम हैक्टेयर बीज दर उपयुक्त होती है। बुआई के पहले 40 कि.ग्रा. नत्रजन, 40 कि.ग्रा. फॉस्फोरस तथा 20 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। बोने के लगभग 30 दिन बाद एवं प्रथम सिंचाई के पश्चात शेष 40 कि.ग्रा. नत्रजन प्रति हेक्टेयर दे देनी चाहिए। बुआई के 20 से 25 दिन पर एक बार निराई कर देनी चाहिए। चैड़ी पत्ती के खरपतवारों के नियंत्रण हेतु बुआई के 25 से 30 दिन पर 2, 4-डी 500 ग्राम मात्रा 400 से 500 ली. पानी मे घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर के लिए छिडकाव करें।
कैसे करें बाजरे के प्रमुख रोगों का प्रबंधन
मोटे आनाजों में बाजरा अर्ध-शुष्क और शुष्क उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के लिए एक महत्वपूर्ण खाद्य एवं चारा फसल है । इनमे होने वाले रोगों में हरित बाली रोग या मृदुरोमिल आसिता, कंडुवा या कांगियारी, गदकरस या शर्करा रोग प्रमुख है । इनके रोकथाम हेतु डाॅ. सुनैना बिष्ट एवं डाॅ. प्रशांत जाम्भुलकर ने समसामयिक सलाह जारी की हैं। इन रोगों से बाजरे में लगभग 10से 50 प्रतिशत तक उत्पादन में नुकसान हो सकता हैं। इन रोगों के संक्रमण का प्राथमिक स्रोत बीज जनित या मिट्टी जनित और पौधे के अवशेष होते हैं। हमेशा रोगरहित स्वस्थ एवं प्रमाणित बीज ही बोना चाहिए । रोगग्रस्त पौधों या बालियों को शुरूवात मे ही काट कर एवं जला कर नष्ट कर देना चाहिए जिससे अवशेषों मे रह रहे कवक नष्ट हो जाये । बीज को बोने के लिए कम जल भराव वाली जमीन का चयन करे । जिस खेत मे पहले से रोग हो उस खेत मे बुवाई नहीं करनी चाहिए बल्कि बाजरे के स्थान पर मक्का, मूंग या कोई दूसरी फसल लगानी चाहिए । मृदुरोमिल आसिता रोग की रोकथाम के लिए बीज को बोने से पहले रिड़ोमील एम जेड 72 (2.5ग्राम प्रति किलोग्राम बीज) के हिसाब से उपचार करे या जैव कारक जैसे की ट्राइकोडर्मा पाउडर से बीजोपचार करने के लिए चार ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज में मिला कर बोए। खड़ी फसल में रोग दिखाई देने पर मैन्कोजेब की 2 किलो ग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर पौधों पर छिडकना चाहिए । कंडुवा रोग हवा मे फफूंद के बीजाणु से फैलता है इसलिए इसकी रोकथाम के लिए कैप्टाफाल 2 ग्राम प्रति लीटर पानी मे मिलाकर खेतों मे छिडकना चाहिए । शर्करा रोग की रोकथाम के लिए बीजों को बुवाई से पूर्व 10 प्रतिशत साधरण नमक के घोल मे डुबाकर रखें फिर तली में पडे बीजों को साफ पानी मे धोकर और सुखा कर ही बुवाई करने से रोग की रोकथाम होती है । रोग की उग्र अवस्था मे बालियों पर जीरम या रिड़ोमील 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर खेतों मे छिडकाव करने से भी रोग पर काबू पाया जा सकता है।
बुंदेलखंड के किसानों के लिए वरदान: मालाबार नीम
झाँसी। रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डाॅ. अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डाॅ. एस एस सिंह के मार्गदर्शन में डाॅ. प्रभात तिवारी, डाॅ. एम.जे. डोवरियाल ने बुंदेलखंण्ड क्षेत्र में वानिकी के लिए समसमायिक सुझाव दिये गये हैं। कई प्रकार के वृक्ष जैसे सागौन, शीशम, नीम इत्यादि वानिकी के अन्तर्गत लगा सकते हैं और मालाबारनीम किसानों के लिए वरदान साबित हो सकता है। मालाबारनीम की गोरानंीम या मीलिया डूबिया भी कहा जाता है, और इसकी विशेषता यह है कि 1 वर्ष में ही 8-10 फीट बड़ा हो जाता है। मालाबारनीम को किसान वानिकी के रूप में, खेतों की मेड़ों पर व कृषि वानिकी में फसलों के साथ भी प्रबंधन के साथ लगा सकते है। मालाबारनीम के रोपड़ के लिए 1 घनमीटर के गड्ढे खोदकर 5×5 मीटर की दूर के अंतर में लगाया जा सकता है। उर्वरको की मदद से पौधे की वृद्धि को बढ़ाया जा सकता है। इसके साथ ही नियमित सिंचाई की आवश्यकता होती है। मालाबारनीम को लगाने पर इसकी कटाई एवं छटाई आवश्यक होती है और इसके साथ कई प्रकार के फसलों की खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है। मानसून इस पौध को लगाने के लिये उपयुक्त माना जाता है। यह 5-7 वर्ष में कटाई के लिए तैयार हो जाता है और इसकी लकड़ी प्लाईवुड उद्योग के लिए सबसे पसंदीदा है, जिससे किसान अतिरिक्त आय प्राप्त कर सकते हैं। इसके अलावा इसकी लकड़ी का उपयोग पैकिंग, छत के तख्तों, भवन निर्माण के उद्देश्यों, कृषि उपकरणों, पेंसिल, माचिस की डिब्बी इत्यादि बनाने में भी किया जाता है। इसकी लकड़ियाँ दीमक प्रतिरोधी होती है, इसलिए इसका उपयोग फर्नीचर बनाने में भी किया जाता है।
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना एक सुरक्षा कवच
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झाँसी के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा, डॉ एस एस सिंह के मार्ग दर्शन में किसानों को सुरक्षित कृषि और इससे होने वाले लाभ की ओर ध्यान दिलाया है। कृषि अर्थ शास्त्री डाॅ. प्रिंस सोम ने बताया हैं कि वर्तमान स्थिति में कृषि में जोखिम को कम करने में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है । बुंदेलखण्ड की कृषि मुख्यतः मौसम व वर्षा आधारित है। जिसके कारण किसानों को मौसम की विभिन्न प्रतिकूल परिस्थिति जैसे सूखा, ओलावृष्टि के कारण फसलें नष्ट हो जाती हैं। इस प्रकार के जोखिम का सामना करने के लिए भारत सरकार द्वारा फरवरी 2016 से प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की शुरुआत की गई है। इस योजना के अंतर्गत खरीफ फसलों के लिए 2 प्रतिशत रबी फसलों के लिए 1.5 प्रतिशत व वाणिज्यक, बागवानी फसलों के लिए 5 प्रतिशत प्रीमियम का भुगतान करना पड़ता है, और शेष धनराशि सरकार द्वारा वहन की जाती है। इस योजना के अंतर्गत खेत में खड़ी फसल व फसल कटाई के 14 दिन तक होने वाले नुकसान की सरकार द्वारा लागत खर्च की भरपाई की जा रही है। वैंक ऋण लेने वाले किसानों को यह सुविधा वैकल्पिक कर दी गई है। वर्तमान समय में किसानों को इस योजना की जानकारी का अभाव होने के कारण किसानों को इस योजना का लाभ नहीं मिल पा रहा है। इस योजना के अन्र्तगत किसानों को भुगतान राशि सीधे उनके खाते में किया जाता है। इस योजना का लाभ लेने के लिए किसानों को अपने क्षेत्र की कृषि विभाग के अधिकारी, कृषि विज्ञान केंद्र व कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों से संपर्क कर सलाह ले सकते हैं। यह योजना किसानों को प्रतिकूल समय में आर्थिक रूप से सशक्त कर एक सुरक्षा कवच के रूप में साबित हो रही है।
अनार के खेती की बुंदेलखंड में अपार संभावनाएँ
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झाँसी के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन व निदेशक प्रसार शिक्षा, डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में बुंदेलखंड में अनार की खेती और इससे होने वाले लाभ की ओर ध्यान आकर्षित किया है। वानिकी वैज्ञानिक डाॅ. रंजीत पाल एवं डाॅ. अमित कुमार सिंह बताते हैं कि सुपरभगवा अनार प्रजाति की खेती कम निवेश में भी फायदेमंद साबित हो सकती है। इसका उपयोग खाने के अलावा जूस, चॉकलेट, केक, जैली आदि को बनाने के लिए किया जाता है। इसकी खेती लगभग हर प्रकार की मिट्टी में कर सकते हैं। बुंदेलखण्ड क्षेत्र की स्वाभाविक गर्म जलवायु इसकी खेती के लिए उपयुक्त है। करीब दो सालों में ही यह पौधा फल देने लग जाते हैं । पौध लगने से एक महीने पहले लगभग 60 सेमी लंबे, 60 सेमी चैड़े और 60 सेमी गहरे गड्ढे बनाना चाहिए । इनकी आपस की दूरी सामान्यतः 3.5 से 4 मीटर तक होनी चाहिए। लगभग 30-40 किग्रा गोबर की खाद डालकर इन गड्ढों को भर दें। गर्मियों में सप्ताह में एक बार ही सिंचाई की जरूरत है, जबकि सर्दियों के मौसम में 15 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए। इसके लिये बूंद- बूंद टपक सिंचाई फायदेमंद के साथ जल उपयोगिता के लिये किफायती भी है। लगभग 130 से 140 दिनों बाद फलों के पकने पर तुड़ाई करना बेहतर है। एक पेड़ से लगभग 80-90 किलो से अधिक फल मिल सकते हैं जिनसे एक हेक्टयर से करीब-करीब 5 से 8 लाख रुपए सालाना कमाई हो सकती है।
टिकाऊ खेती के लिए केचुआ खाद स्वंय बनायें
झाँसी। रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डाॅ0 अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डाॅ0 एस एस सिंह के मार्गदर्शन में डाॅ. अर्पित सूर्यवंशी, डाॅ. संदीप उपाध्याय ने केचुआ खाद की महत्ता पर प्रकाश डाला है। वर्तमान कृषि प्रणाली में उर्वरकों के अधिकाधिक प्रयोग से मृदा का प्राकृतिक स्वास्थय लगातार बिगडता जा रहा हैंै जिससे पैदावार में अनवरत कमी होती जा रही हैं। जैविक खेती तथा मिटटी का स्वास्थ सुधारने के लिए वर्मी कम्पोस्ट (केंचुआ खाद) का उत्पादन व उपयोग सबसे सरल एवं उत्तम है, जिसका उपयोग कर हम टिकाऊ खेती द्वारा कृषि एवं पर्यावरण को संतुलित कर सकते हैं। इसे बेचकर अच्छी आय प्राप्त कर सकते है। केंचुआ खाद बनाने की सामान्य विधि में क्षेत्र का आकार आवश्यकतानुसार रखा जाता है किन्तु माध्यम वर्ग के किसानों के लिए 100 वर्ग मीटर क्षेत्र पर्याप्त रहता है अच्छी गुणवत्ता की केंचुआ खाद बनाने के लिए सीमेंट तथा ईटों से पक्की क्यारियाँ बनाई जाती हैं। 100 वर्ग मीटर क्षेत्रफल में सीमेंट व ईटों की पक्की क्यारियाँ 3 मीटर लम्बी, 1 मीटर चैडी, 30-50 सेमी. ऊंचाई बनाई जाती हैं। क्यारियों को भरने के लिए पेड-पौधों की पत्तियाँ, घास, सब्जी व फलों के छिलके, गोबर आदि अपघटन शील कार्बनिक पदार्थों का चुनाव करते हैं। इन पदार्थों को क्यारियों में भरने से पहले ढेर बनाकर 15 से 20 दिन तक सड़ने के लिए रखा जाना आवश्यक है। सडने के लिए रखे गये कार्बनिक पदार्थों के मिश्रण में पानी छिडक कर ढेर को छोड दिया जाता है। 15 से 20 दिन बाद कचरा अधगले रूप में आ जाता है। ऐसा कचरा केंचुओं के लिए बहुत ही अच्छा भोजन माना गया है। अधगले कचरे को क्यारियों में 50 सेमी. ऊंचाई तक भर दिया जाता हैं। कचरा भरने के 3 से 4 दिन बाद प्रत्येक क्यारी में केंचुए छोड दिए जाते है और पानी छिडक कर प्रत्येक क्यारी को गीली बोरियों से ढक देते है। एक टन कचरे से 0.6 से 0.7 टन केंचुआ खाद प्राप्त हो जाती है। यह सामान्यतः 10 से 15 रूपये प्रति किलों के हिसाब से बेची जाती है। केंचुआ खाद मृदा में सूक्ष्म जीवाणुओं को सक्रिय कर पोषक तत्वों की उपलब्धता बढाता है। केंचुआ खाद के प्रयोग से फलों, सब्जियों, अनाजों के स्वाद, आकार, रंग एवं उत्पादन में वृद्धि होती है। केंचुआ की खाद जल ग्राही होती है, अतः बार-बार पानी की आवश्यकता नहीं होती। केंचुआ खाद के उपयोग से भूमि के भौतिक एवं जैविक गुणों में सुधार होता है।यह खाद 45 से 60 दिन में तैयार हो जाती है।
तिल की खेती किसानों के लिये वरदान
बुंदेलखण्ड में तिल की खेती बहुतायत से होती है। तिल के लिये रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय के डाॅ. राकेश चैधरी एवं डाॅ. मनोज कुमार सिंह ने की वैज्ञानिक खेती सलाह जारी की है। पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से अथवा एक या दो जुताई कल्टीवेटर से करके भूमि को भुरभरा कर लेना चाहिये। वर्षा शुरू होने के बाद मध्य जुलाई तक बुआई कर लेनी चाहिए। बीज दर 2-5 - 3-0 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखे। बीजों को बारीक गोबर की खाद या रेत में 1ः20 अनुपात में मिलाकर सीड-ड्रील या हल के पीछे 30 से.मी. कि दूरी पर कतारों में बोयें तथा पौधे से पौधे कि दूरी 10-15 से. मी. रखनी चाहियें। अधिक उत्पादकता के लिए, बुवाई के 20 दिन पूर्व प्रति हेक्टेयर 8-10 टन गोबर की खाद खेत में डाल कर अच्छे से मिला दें। उर्वरकों में 35-50 किलोग्राम नत्रजन एवं 30-40 किलोग्राम फास्फोरस और 10-20 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर देें। नत्रजन की आधी मात्रा बुवाई के समय तथा शेष आधी मात्रा 30-35 दिन के बाद (फूल लगने के समय) खड़ी फसल में करें। तिल की फसल में 10-20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर गंधक या 200 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर जिप्सम के उपयोग से तेल की मात्रा में वृद्धि होती हैं। बीजोपचार के लिए जैव नियंत्रक ट्राइकोडर्मा विरिडे से 5 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से उपचार करना चाहिए। पेंडीमिथेलीन 1 कि. ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के 48 घंटों के भीतर 500-600 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करने से खरपतवार नियंत्रित हो जाते हैं। बुंदेलखंड क्षेत्र के लिए तिल की उन्नत किस्मों में टी के जी-306, टी के जी -308, आर टी-346, आर टी-351, आर टी- 346, प्रगति, शेखर एवं टाइप -13 को प्रमुख माना हैं।
बीज शोधन करके ही करें तिल की बुआई
तिल को मिट्टी एवं बीज से होने बाले रोगों से बचाव हेतु रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय की वैज्ञानिकों डा. शुभा त्रिवेदी एवं डा. पी. पी. जाम्भुलकर ने सामयिक सलाह जारी की है। वर्तमान समय में किसान तिल की बुआई की तैयारी कर रहे है। बुआई से पूर्व ट्राइकोडर्मा पाउडर से बीज शोधन करने से भूमि एवं बीज जनित रोगों से बचाव किया जा सकता है ।ट्राइकोडर्मा एक मित्र फफूँद है, पौधों का विभिन्न रोगों से बचाव करती है एवं उनकी वृद्धि में सहायक होती है। तिल में विभिन्न रोगों जैसे - फाइटोफ्थोरा अंगमारी, आल्टरनेरिया झुलसा एवं फायलोडी आदि का प्रादुर्भाव होता है। जिससे तिल की फसल को नुकसान होता है। अतः बुआई से पहले तिल के बीज को ट्राइकोडर्मा पाउडर से 4-5 ग्राम/प्रति किग्रा0 बीज की दर से पानी मंे घोल बनाकर उपचारित करें। तत्पश्चात् बीज को आधे घन्टे तक धूप में सूखने दें। उसके पश्चात् ही तिल की बुआई प्रारम्भ करें।
बुंदेलखंड क्षेत्र में खरीफ मक्का लगाकर खाली भूमि का उपयोग करें
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिकों ने बुंदेलखण्ड में खरीफ के मौसम में मक्का की फसल लगाने की सलाह दी। विवि के कुलपति डाॅ0 अरविन्द कुमार एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डाॅ0 एस. एस. सिंह के निर्देशन में वैज्ञानिक डाॅ अमित तोमर एवं डाॅ. विजय कुमार मिश्रा ने बताया कि बुंदेलखंड में खरीफ फसलों में मक्का को लगाया जा सकता है। वर्षा ऋतु में इसकी खेती से खाली भूमि उपयोग में आ सकती है। मक्का की अच्छी उपज के लिए आवश्यक है कि समय से बुवाई, निकाई-गुड़ाई खरपतवार नियंत्रण, उर्वरकों का संतुलित प्रयोग, समय से सिंचाई एवं कृषि रक्षा साधनों को अपनाया जाय। संस्तुत सघन पद्धतियां अपनाकर संकर/संकुल प्रजातियों जेसे की विबेक-5, 15, 17, मालवीय, हाइब्रिड मक्का-2, बायो-9637, एच. एम.-8, 10, एन के-21 एवं प्रताप मक्का की उपज सरलता से 35.40 कु. प्रति हे० प्राप्त की जा सकती है। अच्छी उपज प्राप्त करने हेतु उन्नतिशील प्रजातियों का शुद्ध बीज ही बोना चाहिए। बुवाई के समय एवं क्षेत्र अनुकूलता के अनुसार प्रजाति का चयन करें। शीघ्र पकने वाली मक्का की बुवाई जून के अन्त तक कर ली जाय। बीज बोने से पूर्व यदि शोधित न किया गया हो तो 1 किग्रा० बीज को, थीरम 2.5 ग्राम या 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम से बोने से पहले शोधित कर लें। जिन क्षेत्रों में दीमक का प्रकोप होता है वहां आखिरी जुताई पर क्लोरपाइरीफास 20 ई.सी. की 2.5 लीटर मात्रा को 5 लीटर पानी में घोलकर 20 किलोग्राम बालू में मिलाकर प्रति हे० की दर से बुवाई के पहले मिट्टी में मिला दें। बुवाई हल के पीछे कूंडों में 3.5 सेमी. की गहराई पर करें। लाइन से लाइन की दूरी अगेती किस्मों में 45 सेमी. तथा मध्यम एवं देर से पकने वाली प्रजातियों में 60 सेमी. होनी चाहिये। इसी प्रकार अगेती किस्मों में पौधे से पौधे की दूरी 20 सेमी. तथा मध्यम एवं देर से पकने वाली प्रजातियों में 25 सेमी. होनी चाहिए। मक्का की खेती में निराई गुड़ाई का अधिक महत्व है। मक्का की भरपूर उपज लेने के लिए संतुलित उर्वरकों का प्रयोग आवश्यक है। अतः कृषकों को मृदा परीक्षण के आधार पर उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए। यदि किसी कारणवंश मृदा परीक्षण न हुआ हो तो देर से पकने वाली संकर एवं संकुल प्रजातियों के लिए क्रमशः 120: 60: 60 व शीघ्र पकने वाली प्रजातियों के लिए 100: 60: 40 तथा देशी प्रजातियों के लिए 80: 40: 40 किग्रा. नत्रजनए फास्फोरस तथा बुर्वाइ के समय एक चैथाई नत्रजन, पूर्ण फास्फोरस तथा पोटाश कूड़ों में बीज के नीचे डालना चाहिए।
तिल की पैदावार बढाने करे समन्वित पोषक तत्वो का उपयोग
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डाॅ. अरविन्द कुमार एवं निदेशक प्रसार शिक्षा एस एस सिंह के निर्देशन में तिल की पैदावार बढ़ाने करे समन्वित पोषक तत्वों के उपयोग पर जोर दिया है। मुख्यतः बुन्देलखण्ड में किसान तिल की खेती राखर और पड़वा भूमि में करते है, जो जमीन प्राकृतिक रूप से कम उपजाऊ होती है। यदि किसान तिल में पोषक तत्वों की अनुशंसित मात्रा का समय पर उपयोग करे तो निश्चित ही अधिक एवं उच्च गुणवत्ता की पैदावर प्राप्त कर सकते है। इसके लिए कृषि वैज्ञानिक डा नीलम बिसेन एवं डा योगेश्वर सिंह ने सलाह दी है की खेत की तैयारी के समय गोबर की अच्छी सडी हुई खाद 7-8 ट्राली प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में अच्छे से डालकर कर खेत की जुताई करके मिटटी अच्छी भुरभुरी बना लें। जिन किसान भाइयो में अपने खेत की मिटटी की जाँच करवाई है वे मृदा स्वास्थ कार्ड में अनुशंसित उर्वरको का उपयोग करे और जो कृषक बंधु जाँच नहीं करवा पाए हैं वे 132 किलो यूरिया (60 किलो नत्रजन) 250 किलो एस एस पी (30 किलो स्फुर) एवं 33 किलो एम ओ पी (20 किलो पोटाश) प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग कर सकते हैं। यूरिया की आधी मात्रा खेत की तैयारी के समय और आधी मात्रा 25-30 दिन में निंड़ाई-गुड़ाई के समय दंे। जिन क्षेत्रो में सल्फर की कमी है वहां 3 वर्ष में 1 बार 25 किलो जिंक सल्फेट का उपयोग अवश्य करें। तिलों में पोषक तत्वों के उचित प्रयोग से उत्पादन में 40 प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी कर किसान अपनी आय बढ़ा सकते हैं।
अमरुद को छाल खाने वाली सूंड़ी से बचायें
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झाँसी के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा, डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में उद्यान से सम्बंधित अमरुद में लगने वाले सुंडी कीड़े के लक्षण, उनकी पहचान एवं रोकथाम के उपाय की बात बताई हैं। वैज्ञानिक डॉ रंजीत पाल एवं डॉ सुन्दर पाल बताते हैं की सूंिड़यां प्रोढ़ आकार के एवं पीले भूरे रंग के होती हैं जिनके पहले जोड़ी पंखो पर भूरे रंग की लहरदार धारियाँ होती हैं। अमरूद के युवा पेड़ से लेकर पुराने पेड़ तक इसके शिकार हो सकते हैं। ये शाखाओ पर या शाखाओं के जोड़ो पर छेद बनाकर रहती हैं। ये दिन के समय तने में बनाई गई सुरंगो में छुपी रहती हैं और रात्रि के समय शाखाओं से छाल को काटकर खाती रहती हैं। ये अपने मल को एक चिपचिपे रेशे के साथ मिलाकर शाखाओं पर सुरंग बनती रहती हैं। प्रभावित पेड़ की शाखाओ को काटकर नष्ट कर देना चाहिए। वैकल्पिक पौधों को बगीचे से भी काटकर हटा देना हटाये। इसके अतिरिक्त लोहे के महीन तार से भी कीड़ों द्वारा बनाये सुरंगों में डालकर चुभाने से इसे मारा जा सकता हैं। पेड़ पर दिख रही जालीदार सुरंगो को हटा देना चाहिए। तारकोल और केरोसिन को 1 अनुपात 2 या काॅर्बोरिल 50 डब्लू् पी की 20 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी में मिलाकर पेड़ के तने पर 3 फुट की ऊँचाई तक लेप करने से भी सूंड़ी का प्रकोप कम होता हैं। पेड़ से ढीली छाल को हटा देना चाहियें ताकि प्रोढ़ मादा अंडा न दे सके। इसके अलावा भी अगर संक्रमण गंभीर हो तो पेड़ के तने पर कॅापर आक्सीक्लोराइड का पेस्ट लगाएं। सितम्बर और अक्टूबर के महीने में पेड़ो के तने में डाईक्लोरवॅास का इंजेक्शन लगाना चाहिए।
रोग मुक्त अमरूद के लिए करे कैनोपी प्रबंधन
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झाँसी के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा एवं डॉ एसण् एसण् सिंहण् के मार्ग दर्शन में व्यावसायिक फलों में प्रमुख अमरूद की कम लगत में प्रबंधन की सलाह दी हैं। अमरूद का पौधा मुख्य रूप से जुलाई से अगस्त माह के बीच में लगाया जाता है। कृषि वैज्ञानिक रंजित पाल एवं अंजना खोलिया बताते हैं की आजकल सदारोपण पद्धति के तहत अमरूद के पौधे लगाए जा रहे हैं। परंपरागत पद्धति में 5ग6 मीटर के स्थान पर 3ग3 मीटर और सघन बगीचा पद्धति से 2ग1 मीटर पर पौधे लगाये जाते हैं, जिसकी कैनोपी प्रबंधन करना बहुत जरूरी है। सबसे पहले रोपण के 6 माह बाद दिसंबर या जनवरी में जमीन से 2 फिट ऊपर यानी 60 सेंटीमीटर ऊपर से पूरी शाखाओं को काट दें, इसके बाद फिर शाखाएं निकल आएंगी, जिनको फिर चारों दिशाओं में फैला दें। जब शाखाएं 2 फिट की हो जाएं तो उन्हें 50 प्रतिशत काट दें। बता दें इस तरह हर बार शाखाएं निकलने पर 50 प्रतिशत काटना है। ध्यान रहे कि जहां से पौधे की ग्राफ्टिंग की है, वहां से नीचे की तरफ निकले वाली टहनियों को काट देना चाहिए। इससे पौधे को पोषक तत्व मिलता रहता है। इसके बाद पौधे पर कॉपर ऑक्सी लाइट, 50 प्रतिशत डब्लू. पी. को 250 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर पूरे पौधो और नीचे तने तक छिड़क देना चाहिए, इससे पौधा किसी भी रोग या कीट की चपेट में नहीं आयेंगे।
बुंदेलखण्ड के खरीफ दलहन में उड़द की खेती लाभकारी
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्व विद्यालय झाँसी के कुलपति डॉ अरविंद कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन मे बुंदेलखंड क्षेत्र मे खरीफ ऋतु में उड़द की खेती बहुतायत से होती है। इसकी उत्पादन तकनीक एवं उन्नत किस्मों के संबंध मे डॉ निशांत भानु और डॉ अंशुमान सिंह ने बताया वैज्ञानिक पद्धति द्वारा खेती की तकनीक अपना कर अतिरिक्त आय के साथ-साथ खेत की उर्वरक क्षमता बढ़ायी जा सकती हैं। जहाँ पानी निकास की उचित व्यवस्था हो वो जगह इसके लिए अधिक उपयुक्त होती है। बुंदेलखंड क्षेत्र के लिए आई पी यू 2-43, वल्लभ उर्द-1 एवं पंत उर्द-31 प्रजातियाँ सबसे उपयुक्त है। उड़द के बीज को 4-5 कि॰ ग्रा॰ प्रति एकड़ की दर से, तथा कतारों की दूरी 30 सेमी. तथा पौध से पौध की दूरी 10 सेमी. रखकर 4-6 सेमी. की गहराई पर बोना चाहिए। बुवाई के पूर्व बीज को 2.5 ग्राम थीरम या डायथेन एम-45 प्रति किलो बीज की मात्रा से उपचारित करे। खेत मे उर्वरक के लिए 16 कि॰ग्रा॰ उरिया, 100 कि॰ग्रा॰ एस॰ एस॰ पी॰ और 10 कि॰ ग्रा॰ म्यूरेट ऑफ पोटाश ( एम ओ पी ) प्रति एकड़ अंतिम जुताई के समय खेत मे मिला देना चाहिए। खर-पतवार नियंत्रित करने के लिए बुवाई के तुरंत बाद तथा जमाव के पहले पेंडिमिथिलीन 30 ई॰ सी॰ 1.32 ली॰ प्रति एकड़ अथवा एलाक्लोर 50 ई॰ सी॰ 1.2 ली॰ प्रति एकड़ छिड़काव करने से खरपतवार नियंत्रित हो जाता है। क्रांतिक फूल एवं दाना भरने के समय खेत मे नमी न हो तो एक जीवन दायनी सिंचाई देनी चाहिये। इसमें पीला चित्तेरी रोग सफेद मक्खी के के कारण होता है जिसके नियंत्रण हेतु मेटासिस्टाक्स 1 प्रतिशत या डाइ मेथोएट 0-2 प्रतिशत प्रति हेक्टयर का छिड़काव 500-600 लीटर पानी में घोलकर 3-4 छिड़काव 15 दिनों के अंतर पर करके रोग का प्रकोप कम किया जा सकता है।
पोषण सुरक्षा और अधिक लाभ हेतु रामदाना की फसल की खेती करें
रानी लक्ष्मीबाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डाॅण् अरविन्द कुमार एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डाॅ एस एस सिंह के निर्देशन में खरीफ के मौसम में रामदाना की फसल लगाने की सलाह दी हैं। वैज्ञानिक डाॅ अमित तोमर एवं डाॅ विष्णु कुमार ने बताया कि इसकी खेती से दाने के साथ.साथ जानवरों के लिए चारा भी प्राप्त होता है। इसे बुंदेलखण्ड में कम वर्षा के क्षेत्र में हो सकती है। जी० ए०-1, जी० ए०-2 एवं अन्नपूर्णा किस्मे उर्पयुक्त हैं। खेत की एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा 2-3 जुताई देशी हल से या हैरो से करनी चाहिए और उसके बाद पाटा लगाकर खेत को भुरभुरा कर लेना चाहिए। थीरम 2-2.5 ग्राम प्रति कि०ग्रा० बीज का उपचार करने पश्चात लगभग एक कि०ग्रा० बीज प्रति हेक्टेयर की दर से बुआई करते है। जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के मध्य तक बुआई कर देनी चाहिए। लाइन से लाइन की दूरी 45 सेमी एवं पौधे की दूरी 15 सेमी रखते है। इसकी गहराई 2 इंच पर रखते है। अच्छी उपज लेने के लिये 60 कि० ग्रा० नत्रजन, 40 कि० ग्रा० फास्फोरस एवं 20 कि० ग्रा० पोटाश प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता पड़ती है। बुआई के समय नत्रजन की आधी मात्रा, फास्फोरस एवं पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा देनी चाहिए एवं बचे हुए नत्रजन की आधी मात्रा का दो बार में छिड़काव करना चाहिए। बीज बोने के 20-25 दिन बाद खेतों की निराई-गुड़ाई की जाती है। इसकी पैदावार 20-25 कुन्तल प्रति हेक्टेयर होती है।
कीटनाशकांे का सुरक्षित प्रयोग आवश्यक है
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्व विद्यालय झाँसी के कुलपति डॉ अरविंद कुमार के निर्देशन व निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में कीटनाशकांे के प्रयोग मंें सावधानी बरतने पर जोर दिया हैं। कृषि विशेषज्ञ डॉ सुन्दर पाल व डॉ प्रशांत जाम्भुलकर का कहना हैं कि कीटनाशक मूलतः जहर हैं अतः इनका प्रयोग सावधानी पूर्वक करना चाहिए। अनुमोदित नामपत्र वाले कीटनाशी दवाएं पंजीकृत दुकान से ही खरीदंे। ढीले, कटे-फटे या आधे खुले बैग, डब्बे या बोतल आदि ना खरीदें। धूल व दानेदार कीटनाशक को सिर, कंधे या पीठ पर ले जाने से बचंे। कीटनाशको का भंडारण घर के अन्दर या पशुशाला में न करंे। कीटनाशी दवाओं के घोल में स्वच्छ पानी का प्रयोग करंे। हमेशा अपने आंख, नाख, मुहँ, कान और हाथो को ढक कर रखें। कीटनाशीे डब्बे के ऊपर लिखी जानकारी एवं सुझाव पढ़ कर भली भांति समझ लंे। घोल बनाते समय कीटनाशी दवाओं को खाने, सूंघने एवं छूने से बचें। धूलित कीटनाशको का प्रयोग हमेशा सुबह के समय और तरल कीटनाशको का छिड़काव हमेशा दोपहर के बाद ही करना चाहिएं। सामान्यतयः प्रयोगकर्ता को छिड़काव के हमेशा पीछे की तरफ और हवा के विपरीत दिशा में चलना चाहिए। दानेदार रसायनों का प्रयोग हमेशा पोधौ की जड़ो के पास ही करना चाहिए। प्रयोग के बाद बचे कीटनाशक और खाली डब्बों व बोतलों को तोड़कर मिट्टी में गहरा दबा दें। कीटनाशको के बड़े ड्रम आदि को अपने दैनिक उपयोग वाले समान के लिए प्रयोग न करंे। छिड़काव के बाद उतारे गए वस्त्रों को साबुन से अच्छी तरह से धो व सुखाकर रखना चाहिए। छिड़काव किये क्षेत्रों मे पशु आदि को न घुसने दंे। खाद्य फसलांे की कटाई छिड़काव के तुरंत बाद न करें। यदि फलांे के वृक्षों पर कीटनाशी का प्रयोग किया गया हो तो उसकी तुड़ाई.छिड़काव के तुरंत बाद न करें। ें
भविष्य के लिए वर्षा जल का करे संचय
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्व विद्यालय झाँसी के कुलपति डॉ अरविंद कुमार के निर्देशन वं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में बुंदेलखंड क्षेत्र में वर्षा के जल का संचन कर भू-जल की उपलब्धता बढ़ने पर जोर दिया हैं। डाॅ अर्पित सूर्यवंशी एवं डाॅ संदीप उपाध्याय बताते हैं कि खरीफ के यह मौसम में वर्षा ऋतु का आरम्भ होता है। किसानो को खरीफ की फसलों की बुबाई के पश्चात खेतों की मेढ़बंदी करनी चाहिए। यह समय बुंदेलखंड के सभी किसानों को वर्षा के एक एक बूंद को भूमि में संचित कर जल स्तर बढ़ाने के लिए सबसे उपयुक्त हैं। अतः ऊँची और मजबूत मेड बनाये जिससे सतही भू-क्षरण के समस्या से निदान तथा साथ ही साथ भूमि में उपलब्ध पोषक तत्व दीर्घकाल तक पौधों को पोषण के लिए उपस्थित रहेंगे। कम बरसात में खेतो की नमी, खरीफ की फसलों के लिए संजीवनी का कार्य करेगी। ऐसी स्थिति में वर्षा के जल का खेतो से बाहर निकल जाने पर उन्हें नुकसान का सामना करना पड़ सकता है। इन मेढ़ो पर अरहर की फसल भी लगा सकते हैं, जिससे किसानो को उपरी आमदनी भी हो सकती है।
अनार की फसल में कीड़ो से बचाव के उपाय
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्व विद्यालय झाँसी के कुलपति डॉ अरविंद कुमार के निर्देशन वं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में अनार की फसलों में बीमारियों की रोकथाम के उपाय पर चर्चा की हैं। कृषि विशेषज्ञ डॉ सुन्दर पाल व डॉ प्रशांत जाम्भुलकर बताते हैं की अनार की फसल में तितली, फल बेधक, आटेदार कीड़ा, सफेद मक्खी, माहू कीट अत्यंत क्षति पहुचाते है जिसमे तितली और फल बेधक का प्रकोप सबसे जायदा देखने को मिलता है। इसकी तितलिया नील भूरे रंग की होती है तथा इनकी सुंडिया गहरे भूरे रंग की और शरीर छोटे छोटे बालो से ढाका होता है। सुंडिया से ये नये फलो में छेद बनाकर अन्दर घुस जाती है और दानो को खाकर नष्ट कर देती है। अतंतः प्रभावित फल सड़कर के नीचे गिर जाते है। फल बेधक कीट भी इसी तरह नुकसान पहुचाते है। इनकी रोकथाम के लिए क्षति ग्रस्त फलो को इक्ट्ठा करके मिट्टी में गहरा दबा देना चाहिए। बगीचे को खरपतवार रहित रखना चाहिए। फलो के बचाव के लिए, फलो को पन्नी या कागज के छोटे थैलों में बंाधना चाहिए। 3 से 4 प्रकाश प्रपंच (प्रकाश पाश) प्रति हेक्टेयर लगाने चाहिये। अनार में फूल बनते समय नीम के तेल का 5 प्रतिशत घोल बनाकर छिडकाव करे। डाईमेथोयट 30 इ.सी. की 1.5 मिलीलीटर मात्रा को एक लीटर पानी में मिलाकर छिडकाव करे।
अनार की फसल में बीमारियों की रोकथाम के उपाय
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्व विद्यालय झाँसी के कुलपति डॉ अरविंद कुमार के निर्देशन वं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में अनार की फसल में बीमारियों की रोकथाम के उपाय पर चर्चा की हैं। कृषि विशेषज्ञ डॉ सुन्दर पाल व डॉ प्रशांत जाम्भुलकर बताते हैं की इन फलों में पत्तियों व फलांे पर जीवाणु धब्बा रोग, श्यामव्रण रोग व म्लानि रोग प्रमुख है। सबसे जायदा नुकसान पत्तियों व फलांे का जीवाणु धब्बा रोग से होता है। इस रोग में पत्तियों व फलों पर काले धब्बे बन जाते है जो बाद में संपूर्ण फल व पत्तियों पर फैल जाते है। इससे फलों की बाजार गिर जाती है। बचाव के लिए ग्रसित शाखों व फलो को इक्ट्ठा करके जला कर नष्ट देना चाहिए। पौधों से पौधों की उचित दूरी पर लगाने चाहिए। फलो की तुड़ाई के बाद पौधों की कटाई छटाई करनी चाहिए। पत्तियों व फलों पर धब्बों व श्यामवर्ण रोग के लिए कार्बेन्डाजिम ़मेन्कोजेब 2 ग्राम मात्रा को एक लीटर पानी में मिलाकर 15 दिनों के अंतर पर छिडकाव करे। अनार का जीवाणु धब्बा रोग के लिए 0.5 ग्राम स्ट्रेप्टोमाईसिन सल्फेट व 2.5 ग्राम कॉपर ओक्सीक्लोराइड को एक लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
सूखाग्रस्त बुंदेलखंड में शतावरी की खेतीः उम्मीद की किरण
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्व विद्यालय झाँसी के कुलपति डॉ अरविंद कुमार के निर्देशन वं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में बुंदेलखंड क्षेत्र में शतावरी की खेती सूखे के विकल्प के रूप में अपनाने पर जोर दिया हैं। कृषि विशेषज्ञ डॉ पंकज लवानिया एवं डॉ मनमोहन डोवरियाल का कहना हैं कि शतावरी बेल या झाड़ बहुवर्षीय (3 -4 वर्षं) औषधि फसल हैं तथा इसका उपयोग बलवर्धक, स्तनपान कराने वाली महिलाओं के लिए लाभकारी दवाइयों व शारीरिक स्र्फूित बढ़ाने के लिए किया जाता है। जुलाई- अगस्त में 2-3 बार की पहली जुताई कर गोबर खाद 10 टन प्रति एकड मिला कर दूसरी जुताई 2-3 दिनों में करें । अगस्त में ही क्यारियों ( 10 मीटर लम्बी) में बीजों (पिलीया नैपाली सतावर, बेल या देसी शतावरी बीज 3 से 4 किलो प्रति हेक्टेयर) की बुआई करें। गोबर की सड़ी खाद 12-15 टन प्रति हैक्टर दें तथा नत्रजन, फास्फोरस एवं पोटाश की मात्रा 80 प्रतिशत, 60 प्रतिशत, 50 प्रतिशत किलो प्रति हैक्टर दें। एक वर्षीय पौधे से पौधे की दूरी 45 सेमी तथा पंक्ति सें पंक्ति की दूरी 120-150 सेमी लगाए, नालियों की गहराई 40 सेमी. तथा चैडाई 45 से 60 सेमी. होना चाहिए। कीट लगने पर पर मोनो क्रोटोफास कीटनाशक का 1 प्रतिशत के घोल का स्प्रे करें। जब पौध पीली पडने लगे तब इसकी रसदार जड़ों की खुदाई कर दें । खेत में 300 से 350 क्वटंल प्रति, एकड़ के जड़ मिलती है, जो सूखने के बाद 40 से 50 क्वंटल प्राप्त होती है। इसकी खरीद (250 से 300 रुपए प्रति किलों) शहादतगंज मंडी लखनऊ, मसाला मंडी कानपुर, खारीबावली मंडी दिल्ली और बनारस मंडी में बड़े पैमाने पर होती है। बुन्देलखण्ड़ के शुष्क क्षेत्र में किसानो के लिये शतावरी की खेती उम्मीद की रोशनी सिद्व हुई है
बुंदेलखण्ड में अच्छी फसल हेतु उत्पादन में स्वस्थ बीज कैसे बनावें
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्व विद्यालय झाँसी के कुलपति डॉ अरविंद कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में स्वस्थ बीजों की भूमिका पर महत्त्व डाला हैं। वैज्ञानिक, डॉ आशुतोष सिंह बताते हैं कि बुंदेलखण्ड के किसान 90-95 प्रतिशत अपना बीजों को अगले साल प्रयोग करता है। इसमें सामान्य अनाज को बीज के रूप में प्रयोग करने से फसल के उत्पादन एवं उत्पादकता दोनों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। चाहे सामान्य अनाज या उत्तम गुणवत्ता वाले बीज प्रयोग में लाये जाय, दोनों ही हालातों में फसल उत्पादन की औसत लागत उतनी ही लगती है। परन्तु बीज के अच्छे न होने के कारण फसल की उत्पादकता कम हो जाती हैै। अच्छे बीज हेतु फसल उत्पादन के समय खड़ी फसल में से कुछ अच्छे पौधों का चयन कर लेना चाहिए, और फसल की परिपक्क्वता के बाद उनकी अलग से कटाई व मड़ाई करके अच्छे से सुखा लेना चाहिए। ध्यान रहे की मड़ाई करते समय उसमे किसी अन्य प्रजाति के बीज का मिश्रण नहीं होना चाहिए। मड़ाई करने के बाद बीज को अच्छे तरह से सुखा कर एवं बीजों में उपयुक्त फफूंदनाशी व कीटनाशक रसायनों के साथ मिला कर किसी सूखे स्थान पर भण्डारण करना चाहिए। अगले साल फसल की बुवाई करने के पहले भंडारित बीज को बुवाई के कुछ दिन पहले निकाल कर अच्छे से साफ कर के सुरक्षित स्थान पर रख देना चाहिए।
उर्वरकों में मिलावट की जाॅच कैसे करे
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्व विद्यालय झाँसी के कुलपति डॉ अरविंद कुमार के निर्देशन वं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस एस सिंह के मार्गदर्शन में किसानों द्वारा अपने घर बैठे ही सही उर्वरकों की पहचान की जानकारी और विधि को साझा किया हैं। कृषि विशेषज्ञ डॉ भरत लाल, तथा डॉ सुशील कुमार सिंह यूरिया के सन्दर्भ में कहते हैं कि इसके के दाने सामान्यतः सफेद ,गोल, चमकदार एवं समान आकार के होते है। इसे हथेली पर रख कर पानी डालें तो कुछ समय के बाद ठंडक महसूस होगी, और अगर ऐसा न हो तो मिलावट की शंका होती हैं। एक ग्राम यूरिया के दानें को गरम करने पर ये पिघल जाते है तथा कोई अवषेश नहीं बचता। गरम तवे पर रखने से ये पिघल जाता है तथा कोई अवशेष नहीं बचता। उसी प्रकार डायमोनियम फॉस्फेट (डी.ए.पी.) के दानें सख्त, भूरा और काले बादामी रंग लिए समान आकार के दाने होते है। चम्मच मे गरम करने पर ये फूलकर दोगुने आकार के हो जाते है। पक्के फर्श पर डालकर , जूते से रगडे़ पर भी ये आसानी से नही फूटते, जबकि मिलावट होने पर ये आसानी से फूट जाते है। एक ग्राम डी.ए.पी. को पीस कर उसमे उसमें चूना मिलाने पर यदि अमोनिया की गंध आती है तो उसमें उपस्थित नत्रजन का पता चलता है, जबकि यदि कोई गंध न आये ंतो मिलावट हो सकती है। म्यूरेट आॅफ पोटाश (एम.ओ.पी.) के दानें सफेद कणाकार, पिसे नमक जैसा या पिसी लाल मिर्च जैसा मिश्रण होता है और ये कण नम करने पर भी आपस में नही चिपकते हैं। पानी में घोलने पर इस खाद का लाल भाग ऊपर तैरता है। गीलें कपडे पर रगड़नें से भी यह कोई रंग नहीं छोडता। अगर इसके कणो को जलती लौ में डालें, और यदि लौ पीली हो जाये तो मिलावट की शंका प्रतीत होती हैं।
बुंदेलखंड मे मूँग की खेती से पाएँ कम अवधि में अधिक लाभ
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय झाँसी के कुलपति डॉ अरविंद कुमार के निर्देशन में एवं प्रसार शिक्षा निदेशक, डॉ एस एस सिंह व डॉ विष्णु कुमार ने बुंदेलखंड क्षेत्र मे खरीफ ऋतु के लिए मूँग की उत्पादन तकनीक एवं उन्नत किस्मों की महत्वपूर्ण जानकारी दी हैं। इस संबंध मे डॉ अंशुमान सिंह और डॉ निशांत भानु ने बताया की मूँग की बुवाई बलुई दोमट अथवा दोमट मिट्टी जिसमे पानी के निकाय की उचित व्यवस्था हो अधिक उपयुक्त होती है। मूँग की बुंदेलखंड क्षेत्र के लिए शिखा, विराट, वर्षा एवं कनिका प्रजातियाँ सबसे उपयुक्त है। मूँग की बुवाई 25 जुलाई से 15 अगस्त के अंदर करना सबसे उपयुक्त होता है। मूँग की बुवाई 20 जुलाई से पहले कदापि न करे क्यूंकी उन्नतशील प्रजातियाँ 65-70 दिनों मे पक जाती है तथा फली के परिपक्व होने की स्थिति मे बरसात होने पर बीज फली मे ही अंकुरित अथवा सड़ जाते है जिससे बीज का रंग एवं गुणवत्ता मे ह्रास होता है तथा पैदावार मे भी भारी गिरावट होती है। मूँग के बीजको 5-6 कि॰ग्रा॰ प्रति एकड़ की दर से कतारों की दूरी 30 सेमी. तथा पौधो से पौधो की दूरी 10 सेमी. रखकर 4-6 सेमी. की गहराई पर बोए। बुवाई के पूर्व बीज को 2.5 ग्राम थीरम या 2.5 ग्राम डायथेन एम-45 प्रति किलो बीज के मान से उपचारित करे। खेत मे उर्वरक के लिए 16 कि॰ग्रा॰ युरिया, 100 कि॰ग्रा॰ एस॰ एस॰ पी॰ और 10 कि॰ग्रा॰ म्यूरेट ऑफ पोटाश प्रति एकड़ अंतिम जुताई के समय खेत मे मिला देना चाहिए। खरपतवार नियंत्रित करने के लिए बुवाई के तुरंत बाद तथा जमाव के पहले पेंडिमिथिलीन 30 ई॰ सी॰ 1.32 ली॰ प्रति एकड़ अथवा एलाक्लोर 50 ई॰ सी॰ 1.2 ली॰ प्रति एकड़ छिड़काव करने से खरपतवार नियंत्रित हो जाता है।
फसलों को दीमक से बचाएं
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झाँसी के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस. एस. सिंह के मार्ग दर्शन में फसलों को दीमक से बचने की सलाह दी गयी हैं। कृषि विशेषज्ञ विजय कुमार मिश्रा अ©र एम. स®निया देवी ने बताया कि दीमक सभी फसलों के लिए बहुत ही नुकसान दायक एवं बहुभक्षी कीट है। इसके आक्रमण से 46 प्रतिशत से भी अधिक उपज में कमी आती है। दीमक जमीन में सुरंग बना कर रहते है और पौधो की जड़ों को खाते हैं। प्रकोप अधिक होने पर यह तने को भी खा जाते हैं। खेत या आस-पास के क्षेत्रों में दीमक की बाॅबी को नष्ट कर देना चाहिए। खेत में जल भराव करके इस कीट को कुछ हद तक नियंत्रित कर सकते हैं। पिछली फसलों की कटाई से बचे अवशेषों और अन्य मृत क्षय पदार्थ को खेत से हटा देना चाहिए। अच्छी तरह सड़ी हुई जैविक खाद का ही प्रयोग करें। फसल की बुआई के समय बीज को इमिडाक्लोप्रिड 17.8/ 0.25लीटर/100 किग्रा से बीजोपचार कर और इसके नियंत्रण के लिए रोग जनक कवक मेटाराईजियम, एनआईस¨प्ली का प्रयोग करना चाहिए। इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस एल 0ण्25 लीटर/100 की दर से 17.8 एस एल 0ण्25 लीटर/100 किग्रा बीज की दर से बीजोपचार करें। 0.5ः क्लोरएन्थ्रानिलीप्रोल 18.5 एस सी 50 से 75 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति/हे0 अथवा फिप्रोनिल 5 एस सी 75 से 100 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति/हे0 अथवा इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस एल 70 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति/हे0 सिंचाई के पानी के साथ दें।
बुन्देलखण्ड क्षेत्र में तिल के प्रमुख रोग एवं प्रबन्धन
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झाँसी के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस. एस. सिंह के मार्ग दर्शन में तिल की फसल में होने वाले रोगों व उनके बचाव पर जोर दिया हैं। कृषि विशेषज्ञ डा. शुभा त्रिवेदी एवं डा. पी.पी. जाम्भुलकर बताते हैं की इन रोगों के पहचान एवं निदान आवश्यक हैं। तिल का पर्णताभ रोग (फायलोडी) रोग में फूल नहीं आते है तथा फूल वाला भाग विकृत होकर मुड़ी हुई हरी पत्तियों के गुच्छे में बदल जाता है। इस रोग की रोकथाम हेतु खड़ी फसल में इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस. एल. का 0.3 मिली. प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। फाइटोफ्थोरा अंगमारी रोग में पौधों की पत्तियों के किनारों पर छोटे भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं, जो बाद में काले होकर पूरी पत्ती में फैल जाते हैं। इस रोग के नियंत्रण हेतु रिडोमिल एम. जेड. (मेटालेक्सिल $ मेन्कोजेब) 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें। पाउडरी मिल्डयू रोग में पत्तियों पर सफेद पाउड़र दिखाई देते हैं, और इसके नियंत्रण हेतु पहला छिड़काव घुलनशील गंधक 2 ग्राम/ली0 तथा दूसरा छिड़काव कैराथेन 1 मिली./लीटर पानी से 15 दिन के अन्तराल पर करें। झुलसा रोग (आल्टरनेरिया) में पत्तियों पर छोटे भूरे रंग के गोलाकार धब्बे दिखाई देते है जो बाद में तने, फूल तथा फल पर भी दिखाई देने लगते है । इस रोग के नियंत्रण हेतु प्रोपीनेब या कार्बेन्डाजिम $ मैंकोजेबका 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें। जीवाणु अंगमारी रोग में पौधों में 4 स 6 पत्तियाँ आने पर उनके उपर पानी के छोटे-छोटे कणों दिखाई देने लगते हैं। इसके नियंत्रण हेतु स्ट्रेप्टोमाइसिन सल्फेट(1 ग्राम) $ काँपर आक्सीक्लोराइड ़(30 ग्राम) प्रति 10 लीटर की दर र्से िछड़काव करें । इसके अतिरिक्त तिल में पत्ती मोड़क एवं फली छेदक कीटों का भी प्रकोप रहता हैं इसके रोकथाम के लिये डाईमिथोएट 2 मिली. तथा इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस. एल. का 0.3 मिली. 1 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें ।
मधुमक्खी पालन से अतिरिक्त आय एवं फसल उत्पादन को बढ़ाये
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झाँसी के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस. एस. सिंह के मार्ग दर्शन में अतिरिक्त आय बढ़ाने के लिए मधुमक्खी पालन को अपनाने की बात की हैं । कृषि विशेषज्ञ डॉ. सुन्दर पाल एवं डॉ. डेविड चेल्ला भास्कर लागत और अधिक मुनाफे के लिए वैज्ञानिक तरीके से मधुमक्खी पालन की बात बताया। मधुमक्खयों में भारतीय (एपिस इंडिका) तथा विदेशी (एपिस मेलीफेरा) मधुमक्खी प्रमुख हैं। विदेशी मधुमक्खी शहद का उत्पादन अधिक करती है और यह स्वभाव में भी शांत होती हैं। इसकी रानी मक्खी की अंडे देने क्षमता भी अधिक होती है और इसके परिवार में बीमारियां भी कम लगती हैं। इनको लकड़ी के डब्बे में आसानी से पाला जा सकता है। साफ-सुथरी, छायादार जमीन जिसके आसपास फल व फूल वाली फसल उगाई जा रही हो और पानी की उपलब्धता इसके पालन से लिए सही होती हैं। लकड़ी के डिब्बे, छत्ते वाले फ्रेम, जालीदार टोपी, दस्ताने, बिना टोपी वाला चाकू, छत्ते निकले का औजार और शहद निकालने की मशीन में शुरूआती निवेश की आवश्यकता होती हैं। प्रति बक्सा में 4000 रूपये का खर्च आता है। बंुदेलखण्ड में अच्छी देख रेख में इनसे प्रति वर्ष प्रति बाक्स लगभग 15 से 20 किलोग्राम शहद प्राप्त होती है। किसानों की शहद लगभग 100 रूपये प्रति किलोग्राम बिकती है और इस प्रकार प्रति वर्ष प्रति बक्सा कुल 2000 रूपये तक की आय हो सकती है। मधुमक्खी पालन से हमें शहद, मोम, रॉयल जेली, परागकण, प्रोपोलिस आदि की भी आर्थिक रूप से लाभ देती हैं। मधुमक्खी पालन से 20 प्रतिशत तक परागण बढ़ने से उपज में बढ़ोतरी होती हैं।
टमाटर का पौध गलन रोग व उसका समेकित प्रबंधन
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झाँसी के कुलपति डॉ अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस. एस. सिंह के मार्ग दर्शन में प्रमुख नकदी फसल टमाटर को रोग से बचने की सामयिक सलाह जारी की हैं। कृषि विशेषज्ञ डॉ आशुतोष सिंह एवं डॉ गौरव शर्मा टमाटर के पौधे में फफूँद जनित रोगों की प्रबंधन की बात बताई हैं। बरसात के समय में उगाई जाने वाली टमाटर की पौध भी प्रायः फफूँद जनित रोगों से प्रभावित हो जाती है, जिसके कारण बीज सड़ जाते है तथा पौध का जमाव प्रभावित होता है। ऐसी परिस्थितियों में पौधे जैसे ही जमीन से बाहर निकलते है वे मुरझाने लगते हैं और जमीन पर गिरने के लक्षण दिखाई देने लगते है। समस्या गंभीर होने पर नियंत्रण पाना कठिन हो जाता हैं। टमाटर के पौध गलन रोग के प्रबंधन के लिए प्रतिवर्ष नर्सरी के स्थान को बदलते रहना चाहिए तथा बीज की घनी बुवाई नहीं करना चाहिए। ध्यान रहे की पौधशाला उगाई जानेवाली मृदा हल्की बलुई होनी चाहिए और पौधशाला की क्यारी भूमि की सतह से थोड़ी ऊपर उठी होने चाहिए, जिससे जल भराव से निजात पाया जा सके। पौध की सिचाई हल्की एवं आवश्यकतानुसार करनी चाहिए। खड़ी फसल में रोग के लक्षण दिखाई देने पर मैंकोजेब की 2 ग्रामध्लीटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए। बुआई से पूर्व कार्बेन्डाजिम की 2 ग्रामध्किग्रा. बीज की दर से या ट्राईकोडरमा 5-10 ग्रामध्किग्रा. बीज दर से शोधन करना चाहिए।
शरदकालीन गेंदा उत्पादन हेतु पौधशाला तैयार करने हेतु यह उपयुक्त समय
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झाँसी के कुलपति डॉ. अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस. एस. सिंह के मार्गदर्शन में शरदकालीन गेंदा उत्पादन हेतु पौधशाला तैयार करने की सलाह दी गयी हैं। इस सन्दर्भ में बागवानी विशेषज्ञ डॉ. गौरव शर्मा और डॉ. प्रियंका शर्मा बताते हैं की बुंदेलखंड में बहुत सारे धार्मिक एवं पर्यटन स्थल जैसे झाँसी, दतिया, ओरछा, और खजुराहो इत्यादि होने के कारण यहाँ गेंदा फूल की घरेलू मार्केट में साल भर मांग रहती है। आगे आने वाले दिनों में खासतौर से गणेश पक्ष से लेकर दीपावली तक इसकी मांग अत्यधिक रहेगी, अतः इसकी खेती कर किसान अच्छी आय प्राप्त कर सकते हैं। उन्नत किस्मों के नर्सरी पौधशाला के लिए 1.5 किलोग्राम बीज एवं संकर किस्मों का 700 से 800 ग्राम बीज प्रति हैक्टेयर पर्याप्त रहता है। अफ्रीकन गेंदा (बड़े गेंदा फूल) हेतु किस्म पूसा नारंगी गेंदा, पूसा बसंती गेंदा एवं पूसा बहार तथा फ्रेंन्च गेंदा (छोटे गेंदा फूल) हेतु पूसा अर्पिंता, पूसा दीप, जाफरी किस्म लगानी चाहिए। नर्सरी में क्यारियां बनाते समय बराबर मात्रा (1:1:1) अथवा (2:1:1) की मात्रा में मिट्टी गोबर खाद एवं रेत डालकर भुरभुरा बना लेना चाहिए। तत्पश्चात् 15 से 20 सेमी. ऊंची, 1 मीटर चैड़ी तथा 3.5 मीटर लम्बी क्यारी तैयार कर लें। दो क्यारियों के बीच 20 से 25 सेमी जगह छोड़नी चहिए। बीज को 0.5 से.मी. की गहराई एवं 5 से.मी. की दूरी पर कतारों में बोकर गोबर खाद एवं रेत के मिश्रण से ढक कर हल्की सिंचाई कर देना चाहिए। 25 से 30 दिन पश्चात् पौधे खेत में लगाने योग्य हो जाते हैं। प्रोट्रे 96 खानों वाली प्लास्टिक की ट्रे होती हैं जिसका उपयोग पौधशाला के लिए भी होता है। इनके हर खानों में कोकोपीट भर कर बीज की बुवाई की जाती है। कोकोपीट, वर्मीकम्पोस्ट या गोबर की खाद बराबर मात्रा (1:1:1) में मिला कर प्रोट्रे में भरा जाता है। अगर सिर्फ कोकोपीट का प्रयोग हो तो 12 वें एवं 20 वें दिन पोषक तत्वों के खाद (19:19:19) से 3 ग्राम प्रति लीटर से छिड़काव करें।
मक्का और मूंगफली के खड़ी फसलों में पोषक तत्व प्रबंधन
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झाँसी के कुलपति डॉ. अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस. एस. सिंह के मार्गदर्शन में खड़ी फसलों में पोषक तत्व प्रबंधन के उपर तत्काल से ध्यान देने की आवश्यकता पर बल दिया हैं। कृषि विशेषज्ञ डॉ. गुंजन गुलेरिया एवं डॉ. नीलम बिसेन का कहना हैं की अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए संतुलित एवं उचित उर्वरक प्रयाप्त मात्रा में उपयुक्त समय पर खड़ी फसलों को देना अति आवश्यक होता हैं। किसान भाइयों को मृदा परीक्षण के आधार पर उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए। यदि किसी कारण वश मृदा परीक्षण न हुआ तो फसल को ध्यान में रखते हुए उर्वरकों का सही मात्रा में उपयोग करें। मक्का जैसी फसलों में नाइट्रोजन तीन बराबर हिस्सों में दिया जाता है। मक्का में नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर 40 किग्रा (87 किग्रा यूरिया) पहली मात्रा के रूप में बुवाई के समय, दूसरी मात्रा टॉप ड्रेसिंग के रूप में 25 से 30 दिन के बाद और अन्तिम टॉप ड्रेसिंग बुवाई के 45 से 50 दिन के बाद बल्लियां निकलना आरम्भ होने के समय देनी चाहिए। इस बात का ध्यान रहे कि खेत में उर्वरक प्रयोग करते समय पर्याप्त नमी हो, इससे फसलों की उपज अच्छी होती है और लागत भी काम होती है। मूंगफली जैसी फसलों में नाइट्रोजन और जिप्सम बहुत आवश्यक होते हैं। इन दोनों को दो अलग अलग हिस्सों में दिया जाता है। नाइट्रोजन (12.5 किग्रा प्रति हेक्टेयर) और जिप्सम (200 किग्रा प्रति हेक्टेयर) की पहली मात्रा बुवाई के समय, शेष आधी मात्रा अगस्त के समय में टॉप ड्रेसिंग के रूप में डालनी चाहिए और तत्पश्चात हल की गुड़ाई करके 3-4 सेंटी मीटर गहरायी तक मिटटी में भली प्रकार से मिलानी चाहिए। अगर फसलों में पत्तियां पीली पड़ने लगे तब इसे ठीक करने हेतु नाइट्रोजन का उपयोग कर सकते हैं। उर्वरकों का उपयोग संतुलित तरीके से ही होना चाहिए जिसके लिए वैज्ञानिक सलाह लेना आवश्यक है। मृदा परीक्षण से सूक्षम पोषक तत्वों की कमी का पता लगाकर फिर वैज्ञानिक सलाह लेकर उचित उर्वरकों का उपयोग कर सकते हैं।
आत्मनिर्भर भारत के लिये कृषि इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड का फायदा लें किसान
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा किसानों की कृषि के आधारभूत ढाँचे को मजबूत करने के लिये कृषि इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड के तहत एक लाख करोड़ का फंड जारी किया गया। रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविधालय के कुलपति के निर्देशन व् निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस.एस. सिंह के मार्गदर्शन में इस फंड को विस्तारपूर्वक से बताने के लिये कृषि अर्थ शास्त्री डॉ. प्रिंस सोम ने किसानो को बताया कि वर्तमान समय में कोरोना काल के दौरान जारी एक लाख करोड़ के फंड से निजी निवेश के द्वारा कृषि के क्षेत्र में आत्मनिर्भर भारत अभियान को तीव्र गति प्राप्त होगी। इस फंड के द्वारा गाँव में बेहतर भंडारण सुविधा, आधुनिक कोल्डस्टोरेज तैयार करना व किसान उत्पादक संगठन (एफ.पी.ओ.) द्वारा खाद्य संस्करण से जुड़े उद्योग लगाने में बहुत मदद मिलेगी। इसी संदर्भ में किसानो को सलाह दी जाती है कि 100 से 150 किसान समूह में एक उत्पादक संघ बनाकर अर्थात लघु और सीमांत किसानों का एक ऐसा समूह जिसमे किसान कृषि व कृषि गतिविधिओ से जुड़े हो। किसान समूह बनाकर कंपनी एक्ट के तहत समूह को रजिस्टर्ड करा सकते हैं। वर्तमान समय में किसान उत्पादक संगठन को देश में बढ़ावा देने के लिये लघु कृषक कृषि व्यापार संघ, राष्टीय सहकारी विकास निगम और राष्टीय ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) संस्थाए भी काम कर रही है। यह संस्थाए रजिस्टर्ड कंपनियों को मूल्यांकन के आधार पर 5 से 15 लाख रुपये एक से 3 वर्ष में प्रदान करतीं है। कम्पनी की अच्छे मूल्यांकन के लिये बिजनेस की योजना, कम्पनी का गवर्नंस अच्छा होना चाहिए जिससे कम्पनी से जुड़े किसानो को बीज, खाद, कीटनाशक दवाई आदि सामान आसानी से, कम दाम पर व अधिक मात्रा में एक स्थान से मिल सके। इन सुविधाओ के होने से फसल की बर्बादी कम होगी तथा किसानों को अपनी फसल का उचित समय पर व उचित मूल्य पर बेच पांयगे व आवश्यकता से अधिक फसल उत्पाद होने पर इसका उपयोग खाद्य संस्करण यूनिट के लिये कर सकेंगे। इसी के साथ ही आत्मनिर्भर भारत के संकल्प को पूरा करने के लिये हर जिले के मशहूर उत्पाद को पूरे देश में अर्थात हर जिले में बिना किसी मध्यस्थता, बाजार में पहुँचाया जा सकेगा और गाँव से कृषि उत्पाद शहर व शहर से औद्योगिक सामान गाँव तक पहुँच सकेंगे। इसके द्वारा किसानों के आय में वृद्धि होगी तथा 21वीं सदी में देश की ग्रामीण कृषि अर्थव्यवस्था में भी बदलाव होगा तथा आने वाले समय में ग्रामीण इलाकों में रोजगार के अवसर पैदा होंगे।
नेपियर घास एक बार लगाएं पांच साल तक हरा चारा पाएं
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झाँसी के कुलपति डॉ. अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस.एस.सिंह के मार्गदर्शन में नेपियर घास से मिलने वाले साल भर हरे चारे से दुधारू पशुओं के पोषण की बात बतायी हैं। सस्य वैज्ञानिक डॉ. नीलम बिसेन एवं डॉ. योगेश्वर सिंह ने बताते हैं की नेपियर घास उच्च गुणवत्ता एवं पोषक तत्वों से भरपूर हरे चारे की फसल हैं। यह सम्पूर्ण पोषण के साथ तथा चारे की लागत को कम करने में भी अहम् योगदान देता हैं। यह घास एक बहुवर्षीय, बहुकटाई (मल्टीकटिंग) वाली हरा चारा फसल है जो हल्की एवं कम उपजाऊ भूमि में सीमित सिंचाई में भी सफलता पूर्वक उगाया जा सकता हैं। यदि किसान के पास भूमि की अनुपलब्धता है तो वे इसे मेढ़ पर, बागानों में अंतरवर्तीय फसलों के रूप में या सिंचाई नालियों के किनारे में भी लगा कर सालभर पशुओं को हरा चारा खिला सकते हैं। एक बार लगाने पर यह 4 से 5 वर्ष तक लगातार हरा चारा का उत्पादन देती है। नेपियर घास तीव्र वृद्धि, शीघ्र पुर्नवृद्धि, अत्यधिक टिलर और बहु पत्तियों वाली फसल हैं। इसे अगस्त महीने से सितंबर माह के अंत तक आसानी से लगाई जा सकती हैं। आई.जी.एफ.आर.आई.-3, 6, 7 व 10, एन.बी.-21 आदि अच्छे उत्पादन देने वाली किस्मे है। नेपियर ग्रास लगाने के लिए इसके जड़ कटिंग या तना कटिंग को 60 सेमीं. की दूरी पर थोड़ा तिरछा कर के इस प्रकार लगाते है की इसकी एक गॉठ मिट्टी में दबी तथा दूसरी गॉठ को मट्टी के ऊपर होनी चाहिए। यह 40 दिनों में 4 से 5 फुट उँची हो जाती है तथा इस अवस्था पर इसका पूरा तना व पत्तियां हरे रहते हैं जिसके कारण यह रसीली तथा सुपाच्य होती है और पशु इसे बड़े चाव से खाते हैं नेपियर घास एक वर्ष भर में 6 से 7 कटाई के साथ यह 2000 से 2500 क्विंटल/हेक्टेयर तक हरा चारे के उत्पादन देने में सक्षम होती हैं
खरीफ मक्का में करें खरपतवार नियंत्रण
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने खरीफ मक्का में खरपतवार नियंत्रण की सलाह जारी की हैं। डॉ. अमित तोमर और डॉ. विजय कुमार मिश्रा ने बताया कि खरीफ मक्का में खरपतवारों की अधिक समस्या होती है, जो कि फसल से पोषक तत्व, स्थान एवं प्रकाश के लिये प्रतिस्पर्धा करते हैं। जिसके कारण उपज में 40 से 45 प्रतिशत तक कमी हो जाती हैं। इसमें सवां, गाजर घास, झिंगारी/कोदो, वाइपर घास, चैलाई, कनकौवा, हजारदाना, जंगली जूट, सफेद मुंगी, मकोई, हुलहुल तथा बड़ा गौखरू खरीफ मक्के की फसल के प्रमुख खरपतवार हैं। खरीफ मक्का की अच्छी उपज लेने के लिये समय पर खरपतवारों का नियंत्रण अति-आवश्यक हैं। आजकल शाकनाशियों का प्रयोग लगने लगा है क्योंकि वर्षा में कई बार निराई-गुड़ाई के लिये समय भी कम मिल पाता हैं। बुवाई के तुरन्त एट्राधीन या रेकाजीन (50 प्रतिशत डब्लयू पी) की 1 से 1.5 किग्रा. दवा 600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर छिड़कने से एक वर्षीय घास तथा चैड़ी पत्तियों बाले दोनों ही प्रकार के खरपतवार का जमाव नहीं होता और वो नियंत्रित हो जाते हैं। खरीफ मक्का की 30 से 35 दिनों की खड़ी फसल में टोप्रामिजॉन (टिंजर) नामक रसायन को 336 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से जमे हुये खरपतवार नष्ट हो जाते हैं। प्रसार शिक्षा निदेशक डॉ. एस एस सिंह ने बताया कि कृषि में लागत कम करने और मजदूरों की कमी की समस्या से निपटने के लिये इन खरपतवार नियंत्रण रसायनों का प्रयोग बढ़ रहा है। कृषि विश्वविद्यालय के प्रयोगिक क्षेत्र पर खरीफ मक्का में इन दवाओं के उत्साहवर्धक परिणाम मिले हैं जिसे आने वाले समय में किसानों के खेतों पर प्रदर्शित किया जायगा।
ट्राइकोडर्मा से सब्जियों के बीज उपचारित कर लागत एवं रसायनों के प्रयोग में कमी लाये
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झाँसी के कुलपति डॉ. अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस. एस. सिंह के मार्गदर्शन में सब्जियों में ट्राइकोडर्मा से बीज उपचार की सलाह दी हैं। कृषि वैज्ञानिक डॉ. उमेश पंकज व डॉ. अर्जुन लाल ओला बताते हैं की यदि पौधशाला लगाने से पहले ही बीज उपचार किया जाये तो बाद में होने वाले बीमारियों से बचा जा सकता हैं और आर्थिक नुकसान कम किया जा सकता हैं। बुआई के बाद अनेक प्रकार के जीवाणु एवं कवक जनित रोगों का प्रकोप होता है। जीवाणु एवं कवक जनित रोगों के कारण या तो बीज अंकुरित नही हो पाते हैए यदि अंकुरित हो गये तो पौध की अच्छी वृद्धि नही हो पाती है और पौध मर जाती है। जिसके कारण उत्पादन एवं उत्पादकता पर भी प्रभाव पड़ता है। इन रोगों के प्रकोप से बचने के लिए सब्जियों के बीज को ट्राइकोडर्मा नामक जैविक रोग नाशक से उपचारित करने से इन रोगों से होने वाले नुकसान से बचा जा सकता हैं। ट्राइकोडर्मा का पैकेट सभी सरकारी व निजी बीज भंडारों की दुकानों पर भी आसानी से उपलब्ध हो जाता है। बीजो के उपचारण के लिए 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर प्रति किलों ग्राम बीज की दर से उपयोग करते हैं। सर्वप्रथम 10 प्रतिशत (एक लीटर पानी में 100 ग्राम) गुड़़ का घोल बनाकर बनाकर उसमे ट्राइकोडर्मा मिला देते है उसके बाद ट्राइकोडर्मा घोल को बीजो के उपर फैलाकर अच्छे से मिला देते है, जिससे ट्राइकोडर्मा घोल बीजो की सतह पर चिपक जाये। 30 से 60 मिनट तक बीजो को छाव में सुखा दें। अब बीज बुआई हेतु तैयार हैं। ट्राइकोडर्मा का उपयोग पर्यावरण की द्रष्टि से भी फायदेमंद तथा जैविक खेती को बढ़ावा देता हैं। यह फसल उत्पादन बढ़ाने मे भी सहायक हैं। इससे खेती में कुल रासायनिक दवाओं के खर्चे को भी कम किया जा सकता है, जिससे फसल लागत घट जाती है।
नियमित टीकाकरण से दुधारू पशुओं को स्वस्थ रखें
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झाँसी के कुलपति डॉ. अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस. एस. सिंह के मार्गदर्शन में पशुधन की सही प्रकार देख-रेख द्वारा स्वस्थ्य, दूध उत्पादन व कृषि आय बढ़ने की सलाह दी गई है। कृषि विशेषज्ञ डॉ. संजीव और डॉ. तनुज मिश्रा ने बताया कि वर्षा ऋतु में पशुओं में गलघोटू, ब्लैक क्वाटर जैसे छूत के रोग अधिक फैलते हैं। इन रोगों के प्रतिरोधक टीके इस माह में अवश्य लगवा दें। वर्षा काल में पशु-घरों को सूखा रखें एवं मक्खी भगाने के लिए फिनाईल का छिड़काव करते रहें। खान-पान में भी खनिज मिश्रण लगभग 50 ग्राम से 60 ग्राम प्रतिदिन दें , जिससे पशुओं की दूध और शारीरिक क्षमता बनी रहे। पशुओं को तालाब का गन्दा पानी न पिलायें। पशुओं में जुएँ व किल्ली से बचाव के लिए समय-समय पर पशु चिकित्सक की सलाह अनुसार दवाई का छिड़काव नियमित करे। पशुओं के पेट में कीड़े की रोकथाम करने के लिए बछड़े होने के बाद 7 दिन, 25 दिन, 3 माह और 6 माह के अन्तराल पर कीड़ानाशक दवाई की खुराक पशु चिकित्सक की सलाह के अनुसार प्रत्येक 4 माह के अन्तराल पर भी अवश्य दें। पशुओं को थैनाला रोग से बचाव का भी प्रबंध करें।
औषधीय पौधो से अच्छी आय के लिए अश्वगंधा एक महत्वपूर्ण विकल्प
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झाँसी के कुलपति डॉ. अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस. एस. सिंह के मार्गदर्शन में औषधीय पौधे के रूप में अश्वगंधा की खेती की सलाह दी हैं। कृषि वानिकी के विशेषज्ञ डॉ. अभिषेक कुमार एवं डॉ. एम.जे. डोबरियाल इस औषधीय पौधे की विशेषताओं की चर्चा करते हुए बताया कि बुंदेलखंड के कम वर्षा वाले शुष्क पथरीली मिट्टी में भी यह हो सकता हैं। इनकी जड़ें मांसल एवं सफेद भूरे रंग की होती हैं। इसे गठिया रोधी टॉनिक, दुर्बलता, चिन्ता, अवसाद इत्यादि में औषधि के रूप में उपयोग किया जाता हैं। यह सामान्य रूप से देर से होने वाली वर्षा ऋतु की फसल के रूप में बिना जल-जमाव वाले जगह में उगाया जाता है। इसके लिए हल्की क्षारीय या हल्के अम्लीय मिट्टी सबसे उपयुक्त माना जाता हैं। इसकी खेती वर्षा के बाद अक्टूबर महीने में की जाती हैं और इसके लिए लगभग 10 से 12 किलो बीज प्रति हैक्टेयर छिड़काव विधि द्वारा जबकि पोध रोपन विधि के लिए 4 से 5 किलो बीज प्रति हैक्टेयर के लिए उपयुक्त होती हैं। रोग मुक्त बीजों के उपयोग से और कार्बोफ्यूरान की 2 से 2.5 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से बुवाई से पहले बीजोपचार करके रोग को कम किया जा सकता हैं। आवश्यकता होने पर नीम, चित्रकमूल, धतूरा और गोमूत्र से तैयार जैव कीटनाशकों का छिड़काव भी किया जा सकता हैं। आमतौर पर बुवाई के 140 से 180 दिनों के बाद फसल कटाई के लिए तैयार हो जाती हैं। जब पत्तियां सूखने लगती हैं, और फल पीले या लाल हो जाते हैं तो जड़ों को नुकसान पहुंचाए बिना, 1-2 सेंटीमीटर ऊपर तना से काटकर और धोकर, धूप या छाया में 10 से 12 प्रतिशत नमी तक सुखाया जाता हैं। जड़ों को 7 से 10 सेमी के छोटे टुकड़ों में काटकर वर्गीकृत किया जाता है, और थैलियों में संरक्षित किया जाता हैं। एक हेक्टेयर की फसल से औसतन उपज 6 से 8 क्विंटल सूखे जड़ों और 50 से 65 किलो बीज के रुप में प्राप्त की जा सकती हैं। खेती में लागत लगभग 10,000 रुपये प्रति हेक्टेयर और 30,000 रुपये प्रति हेक्टेयर की आमदनी हो सकती हैं। बुंदेलखंड में इसकी उत्पादन की असीम संभावनाये है, और इससे आय में अच्छी वृद्धि कर सकते हैं।
सितम्बर में सफल वृक्षारोपण की तकनीक
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झाँसी के कुलपति डॉ. अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस. एस. सिंह के मार्गदर्शन में सितम्बर माह में सफल वृक्षारोपण की तकनीक बताई गई है। वानिकी विशेषज्ञ डॉ. पंकज लवानिया एवं डॉ. मनमोहन डोवरियाल के अनुसार वर्षाकाल (जुलाई से सितम्बर), वृक्षारोपण का सबसे उपयुक्त समय है अतः एक से दो वर्षा होने के बाद ही किसान भाइयों को अपने खेत के परिक्षेत्र में पौध लगाने का कार्य शुरू कर देना चाहिए। सितम्बर में पौधा रोपित करते समय उपचारित गढ्ढे के केन्द्र से डण्डी निकाल कर रुटवाल (जड़ों से लगी मिटटी की लम्बाई के बराबर अथवा सामान) की लम्बाई के बराबर पुनः खुदे हुए गढृढे की गहराई व रुटवाल के व्यास की तीन गुना गढ्ढे की चैड़ाई होना चाहिए। पौधे की रुटवाल, पॉलिथीन से ढकी होती है। पॉलिथीन को तेज धारदार चाकू या ब्लैड से लम्बवत कट लगाकर एवं आधार में गोलाई से काटकर बिना रुटवाल के टूटे साबुत साबुत रुटवाल सहित पौधे को रोपित करना चाहिए। रुटवाल की लम्बाई के बराबर गहराई एवं जमीन की सतह के बराबर पौधे को रोपित करना चाहिए। पौधे को बैठाकर, तीनो दिशा (दाया, बाया एवं सीधा) देखकर एवं जमीन के लम्बवत रोपित करना चाहिए जिससे रोपित पौधे की पुनः खुदाई (फिलिंग) से बचा जा सके। पौधे के रोपित करते समय रुटवाल के आधार में ढीली अथवा खुदी हुई मिट्टी भरकर रुटवाल को सीधा गढ्ढे में रखे फिर उनके चारो ओर मिट्टी धीरे-धीरे एवं दृढता से भरे। पौधे की रुटवाल को लगाते समय गढ्ढे के तल में कार्बनिक पदार्थ होना सुनिश्चित करना चाहिए क्योंकि यह नमी को धारण करने के लिये एक कम्बल का कार्य करता हैं। यह मिट्टी के तापमान को नियंत्रित करता है। उपरोक्त उपायों के माध्यम से नव रोपित पौधे की जीवन दर एवं पौधस्थापित प्रतिशत को बढाकर किसान भाइयों की 50,000 रूपये प्रति हजार पौधे के नुकसान को प्रथम वर्ष में बचाया जा सकता है एवं भविष्य के लाभ को सुरक्षित किया जा सकता हैं। भारत सरकार एवं प्रदेश सरकारो द्वारा किये जा रहे निवेश जो विभिन्न वृक्षारोपण कार्यो में लगाये जाते है उनको सफल बनाया जा सकता है, जिससे राष्ट्रीय वन नीति 1988 द्वारा जारी दिशा- निर्देश के 33 प्रतिशत क्षेत्र को वन आच्छादन होने में सहायक सिद्ध होंगे ।
गुणवत्ता युक्त लोबिआ के बीज उत्पादन हेतु कीटों की करें रोकथाम
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस. एस. सिंह के मार्गदर्शन में बुन्देलखंड में लोबिआ की फसल को कीटों से रोकथाम कर गुणवत्ता युक्त बीजोत्पादन के बारे में वैज्ञानिकगण डॉ. मनोज कुमार सिंह एवं डॉ. विष्णु कुमार ने सामयिक सलाह जारी किया है। इसमें इन्होने बताया कि इस समय आर्द्र एवं उष्ण मौसम के चलते लोबिआ को प्रभावित करने वाले कीट-पतंगे काफी सक्रिय हो जाते हैं। ये कीट-पतंगे लोबिआ के पत्तों को काट कर खाते हैं जिससे पौधा अपना भोजन नहीं बना पाता है। फलस्वरूप पौधों में आनुवंशिक रूप से ओजपूर्ण बीज नहीं बन पाते हैं। कुछ प्रमुख कीटों को इस समय लोबिआ के पौधों पर बहुतायत की संख्या में देखा जा सकता है, जैसे सफेद मक्खी, जैसिड, गन्धी कीड़ा, तम्बाकू की सूंडी, मृदा मापक इल्ली, पत्ती लपेटक कीट और लाल कद्दू कीड़ा । अतः किसान भाइयों को चाहिए कि फिप्रोनिल नामक कीटनाशी दवा को 1 मिली. प्रति लीटर पानी की दर से अथवा 500 मिली. दवा की मात्रा प्रति हेक्टेयर कीट प्रभावित फसल पर छिड़काव कर अच्छी उपज प्राप्त करें।
बुन्देलख्रण्ड में गुलदाउदी की खेती
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस.एस. सिंह के मार्गदर्शन में गुलदाउदी की व्यावसायिक खेती कर कृषि आय बढ़ने के सलाह दी हैं। पुष्पविज्ञान विशेषज्ञ डॉ. प्रियंका शर्मा एवं डॉ. गौरव शर्मा बताते हैं कि गुलदाउदी एक बहुवर्षीय एवं शाकीय पौधा है तथा इसका उपयोग गुलदस्ते बनाने तथा घरों एवं कार्यालयों में सजावट के लिए किया जाता हैं। यह बरसात में लगाए जाना वाला एवं शरद ऋतु में खिलने वाला फूल हैं। आगे आने वाले त्याहारों में इस फूल की अच्छी मांग रहती हैं। गुलदाउदी का प्रवर्धन कलमों, कटिंग या भूस्तारिकाओं द्वारा किया जाता हैं। व्यावसायिक रूप से गुलदाउदी के प्रवर्धन के लिए कलम तना के शीर्षस्थ भाग से तैयार की जाती हैं। यह सभी प्रकार की भूमि पर उगाया जा सकता है, परन्तु जल निकासयुक्त बलुई दोमट मिट्टी उत्तम होती हैं। भूमि की अच्छी तरह 3 से 4 जुताई करके पाटे की मदद से मिट्टी समतल एवं भुरभुरी कर तैयार करना चाहिए। अंतिम जुताई के समय 20 से 25 टन सड़ी गोबर की खाद मिलाकर सिंचाई की सुविधानुसार क्यारिया बनाना चाहिये। बुन्देलखण्ड में गुलदाउदी के पौधों को लगाने का समय सितम्बर से अक्टूबर माह होता हैं। गुलदाउदी की खेती के लिए 50 टन सड़ी हुई गोबर की खाद तथा 300 किलो ग्राम प्रत्येक नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटैशियम मात्रा प्रति हैक्टेयर में पौधे लगाने से पहले मिलाना चाहिए। पौधों को पंक्तियों में लगाया जाता है। पंक्ति से पंक्ति की दूरी व एक पौधे से दूसरे पौधे की दूरी 30-30 सेमी. रखी जाती है। गुलदाउदी के पौधों में कम से कम दो निदाई-गुड़ाई आवश्यक है। प्रथम गुड़ाई पौधों के रोपण के 40 से 45 दिन बाद तथा द्वितीय गुड़ाई 60 दिन बाद करनी चाहिए। समय-समय पर खरपतवार नियंत्रण करना चाहिए। खेत में पौधे लगाने के 30 दिन बाद पिंचिंग की क्रिया की जाती है। इस विधि में पौधों की 6 से 7 पत्तियाँ छोड़कर शीर्षस्थ भाग को हाथ से नोच कर पौधों से अलग कर देते हैं। ऐसा करने से एक पौधा औसतन 4 से 6 पुष्प डण्डियाँ उत्पादित करता हैं ।
इस समय में अरहर फसल की कीड़ों से करे सुरक्षा
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस. एस. सिंह के मार्गदर्शन में इस समय अरहर फसल की कीड़ों की प्रबंधन की सलाह दी हैं। कृषि विशेषज्ञ डॉ. सुन्दर पाल एवं डॉ. प्रशांत जाम्भुलकर ने बताया कि बुंदेलखंड में सितम्बर में ही अरहर की फसल पर पत्ती खाने वाली सुंडी, पत्ती लपेटक व जाला बुनने वाली सुंडियो का आक्रमण देखा जाने लगा हैं। इसके लिए किसानों को अपनी फसल की निगरानी कर कीट नियंत्रण हेतु बताये गये सुझावों का पालन करना चाहिए। पत्तियों को खाने वाली सूंडी शाम के समय 5 से 9:30 बजे के बीच बड़ी संख्या में पत्तियों को खाकर नुकसान पहुचाती है और कभी-कभी पौधे को शीर्ष से काटकर गिरा देती है। दिन में सूंडिया मिट्टी या कूड़े करकट में समय बिताती हैं। पत्ती लपेटक एक छोटी सी सूंडी होती है जो कि पौधे की पत्ती को शीर्ष से 5 से 7 बार लपेटती है और उसके अन्दर पत्ती को खुरचकर खाती हैं। इसी के अन्दर रहकर ये अपना जीवन चक्र पूरा करती हैं। शीर्ष गुच्छ कीट अरहर के पौधे के शीर्ष भाग की छोटी पत्तियों को रेशे से बंधकर उसके अन्दर रहकर खाता हैं। इससे पौधे का शीर्ष भाग भी वृध्दि नही कर पाता। जाल बुनने वाली सुंडी शुरुआत में पुरानी पत्तियों से पौधे के तने पर जाला बुनती है और फिर नई पत्तियों से। इसकी सूंडिया अपना स्थान बदलती रहती हैं। कीड़ो से बचाव हेतु सूंडियो को पकड़कर नष्ट कर देना चाहिए। पौधे से प्रभावित पत्तियों को तोड़कर जला दें या मिट्टी में गहरा दबा दें। पौधे से शीर्ष गुच्छ प्रभावित भाग को को निकाल कर नष्ट कर दे। पौधे के तने पर बन रहे पत्तियों वाले जालों को निकलकर नष्ट कर दें। पत्ती खाने वाली सूंडियों के नियंत्रण हेतु डाईमेथोएट 30 ई.सी. की 2 मिलीलीटर मात्रा या प्रोफेनोफोस 50 ई. सी. की 2 मिलीलीटर मात्रा को एक लीटर पानी में मिलाकर शाम के समय छिड़काव करें। पत्ती लपेटक, शीर्ष गुच्छ और जाला बुनने वाली सुंडी के लिए क्यूनोल्फोस 25 ई. सी. की 1 मिलीलीटर मात्रा या टृाईजोफोस 20 ई. सी. की 0.25 मिलीलीटर मात्रा को एक लीटर पानी में मिलाकर शाम के समय छिड़काव करें।
तिल के मुख्य कीड़ें की पहचान और उनसे सुरक्षा
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस. एस. सिंह के मार्गदर्शन में तिल के मुख्य कीड़ों की पहचान और उनसे सुरक्षा पर सलाह जारी की हैं। इस क्षेत्र में उगाई जा रही तिल की फसलों पर लाल बालों वाली सुंडी और कांटे दार सुंडी का प्रकोप देखा जा रहा है। कृषि विशेषज्ञ डॉ. सुन्दर पाल एवं डॉ. प्रशांत जाम्भुलकर बताते हैं कि इसके लिए किसानों को अपनी फसल की निगरानी कर सुरक्षा हेतु सुझावों का पालन करना चाहिए। सूंडियां का सिर काला व शरीर पर लाल भूरे रंग के बाल होते हैं। प्रौढ़ अवस्था में पहले जोड़ी सफेद पंखो पर भूरी पीली धारियां और पिछले जोड़ी सफेद पंखो पर काले धब्बे होते हैं। इसकी सुंडियां पौधे से पत्तियों को खाकर नष्ट कर देती है और ज्यादा क्षति होने पर पौधा बिना पत्तियों के दिखाई देता हैं। कांटेदार सुंडियां हरे रंग की होती हैं। शरीर पर तिरछी सफेद सात धारियाँ और शरीर के आखरी छोर पर एक नुकीला कांटे नुमा संरचना होती है। इसके प्रौढ़ अवस्था के पंखों में गहरे भूरे व पीले रंग होते हैं। इसकी सुंडियां पौधे की शीर्ष नई पत्तियों को मोड़कर और फूल में घुसकर खाती हैं। सुंडिया तिल की फली में छे़द कर दानों को खाकर नष्ट करती हैं। बचाव हेतू सुंडियो को पौधों से झाड़कर पैरो से कुचलकर नष्ट कर दें। फसलों के बीच बिजली के 4 से 5 दुधिया बल्ब को रात्रि में जलाये और उनके नीचे एक बड़े बर्तन में पानी भर कर और उसमे थोडा मिट्टी का तेल डाल दें। अपने खेत में छोटी छोटी नालियां बनाकर उसमें पानी भर दें और शाम के समय उनमें सायपरमेथ्रिन 25 ई.सी. की 2.5 मिलीलीटर मात्रा को एक लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। रसायन उपचार के लिए डाईक्लोरवास 76 ई.सी. की 1.2 मिलीलीटर मात्रा को एक लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें या क्यूनोल्फोस धुली 1.5 डी.पी. की 25 किलोग्राम मात्रा को प्रति हेक्टयर की दर से सूर्योदय से पहले छिड़काव करें।
औषधीय गुणों से युक्त है अलसी, अक्टूबर में करें बुवाई
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिकों ने औषधीय गुणयुक्त अलसी फसल को रबी के मौसम में लगाने की सलाह दी हैं। विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. अरविंद कुमार एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस एस सिंह के निर्देशन में कृषि वैज्ञानिक डॉ. अमित तोमर एवं डॉ. विष्णु कुमार ने बताया कि अलसी कि खेती बुंदेलखण्ड के लिये बहुत महत्वपूर्ण हैं। उत्तर प्रदेश की 60 प्रतिशत और मध्य प्रदेश की अधिकांश अलसी बुंदेलखण्ड में पैदा होती हैं। लागत कम होने से यह लाभकारी फसल हैं। सूखे असिंचित क्षेत्रों में किसानों के लिये यह राहतकारी फसल हैं। इसमें तेल के साथ-साथ रेशा भी निकलता है जिससे अच्छी किस्म का लेनिन कपड़ा बनता है। अलसी में ओमेगा-3 फैटी एसिड प्रचुर मात्रा में पाया जाता है जो कि कोलेस्ट्राँल को घटाता है। गठिया की समस्या को भी दूर करता है। इसमें पाया जाने वाला रेशा मधुमेह को कम करता है। बुंदेलखण्ड के किसानों को अक्टूबर के दूसरे पखवाड़े में अलसी की बुवाई करनी चाहिये। पंक्ति से पंक्ति की दूरी 20 से 30 सेमी. व पौधे से पौधे की दूरी 8 से 10 सेमी. व गहराई 2 से 5 सेमी. होनी चाहिये। एक हेक्टेयर में 20 से 30 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है। बुवाई हेतु अलसी की गरिमा, श्वेता, नीलम, शेखर, गौरव, पार्वती एवं रूचि प्रजातियां बुंदेलखण्ड क्षेत्र के लिये उपयुक्त हैं। असिंचित खेती में इसका उत्पादन 6 से 8 कुन्तल/हेक्टेयर तथा सिंचित दशाओं में अच्छे प्रबंध से 15 से 18 कुन्तल/हे. उपज मिलती है।
कीट एवं रोगों पर नियंत्रण कर धान की गुणवत्तायुक्त बीज उत्पादन करें
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस. एस. सिंह के मार्गदर्शन में धान के कीट एवं रोगों पर नियंत्रण की बात कही है। कृषि वैज्ञानिक डॉ. डी. के. उपाध्याय व डॉ. विष्णु कुमार बताते हैं कि धान की फसल में बालियाँ निकलने लगी हैं। इन दिनों धान में कुछ बीमारियाँ व कीड़े भी लग रहे हैं। पत्ती झुलसा रोग का खतरा बढ़ रहा हैं। अगर इस बीमारी का नियंत्रण नहीं किया गया तो इसका प्रकोप और बढ सकता हैं। झुलसा रोग में धान में नीचे से पत्तियों का आवरण झुलसने लगता है। बीमारी के लक्षण दिखते ही किसान यूरिया खाद का छिडकाव कदापि न करें। इस बीमारी से धान के पौधे को काफी नुकसान होता हैं। इस बीमारी में बाली निकालने से पहले सूखकर पुवाल में परिवर्तित हो जाता हैं जिससे उपज पूरी तरह से प्रभावित हो जाती हैं और बीज की गुणवत्ता बहुत खराब हो जाती हैं। पत्ती झुलसा रोग के नियंत्रण के लिए प्रोपिकोनाजाल या हेक्सकोनाजाल 1.0 लीटर हेक्टेयर की दर से 500 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना अत्यंत जरुरी हैं। इस समय पत्ती लपेटक कीट का भी प्रकोप बढ़ रहा हैं। जब बारिश रुक जाती है तो इस कीट का काफी ज्यादा प्रकोप बढ़ जाता हैं जिसमें कीट की सुंडी पत्तियों के दोनों किनारों का एक साथ चिपका देती हैं। पत्ती लपेटक कीट से बचाव को प्रोपेनोफॉस की 1.0 लीटर मात्रा 500 लीटर पानी में प्रति हेक्टेअर की दर से छिड़काव करने से कीट के प्रकोप से फसल का बचाव किया जा सकता हैं।
सब्जी हेतु करें अगेती मटर की खेती
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस. एस. सिंह के मार्गदर्शन में बुन्देलखंड में रबी मौसम में सब्जी फसल हेतु अगेती मटर की बुवाई के लिए वैज्ञानिकगण डॉ. मनोज कुमार सिंह एवं डॉ. विष्णु कुमार ने सामयिक सलाह जारी किया है। सब्जियों में मटर लोगों की पहली पसंद है, जहां भोजन में इससे प्रोटीन की जरूरत पूरी होती है, वहीं इसकी खेती से भूमि की उर्वरा शक्ति में भी पर्याप्त वृद्धि होती है। किसान कम अवधि में तैयार होने वाली मटर की प्रजातियों की बुवाई सितंबर के अंतिम सप्ताह से लेकर अक्टूबर के मध्य तक कर सकते हैं। मटर की अगेती किस्मों की खेती से सब्जियों की बढ़ी हुई मांग को पूरा कर सकते हैं, वहीं खेत में खड़ी फसल बेचकर आमदनी बढ़ा सकते हैं। अगेती मटर की प्रमुख प्रजातियां आजाद मटर-3, काशी नंदिनी, काशी मुक्ति, काशी उदय और काशी अगेती हैं। ये प्रजातियां 50 से लेकर 60 दिन में तैयार हो जाती हैं जिससे खेत जल्दी खाली हो जाता है और किसान दूसरी फसल लगा कर अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं। बुवाई के लिए प्रति हेक्टेयर 80 से लेकर 100 कि.ग्रा. बीज की जरूरत पड़ती है। मटर को बीज जनित रोगों से बचाव के लिए थीरम 2 ग्राम या मैकोंजेब 3 ग्राम को प्रति किलो बीज की दर से शोधन करना चाहिए। इस मटर की बुवाई से 24 घंटे पहले बीज को पानी में भिगो लें फिर छाया में सुखाकर इसकी बुवाई करें। मटर की अच्छी उत्पादकता के लिये प्रति हेक्टेयर 20 किलोग्राम नाइट्रोजन डालना चाहिए।
गोभी वर्गीय सब्जियो की पौध तैयार कैसे करे
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस. एस. सिंह के मार्गदर्शन में गोभी वर्गीय सब्जियो की पौध तैयार करने की विधि बताई हैं। कृषि विशेषज्ञ डॉ. अर्जुन लाल ओला एवं डॉ. गौरव शर्मा बताते हैं कि गोभी वर्गीय सब्जियो (पत्ता गोभी, फूल गोभी, गांठ गोभी, ब्रोकोली) की पौध तैयार करने के लिए सितम्बर से मध्य अक्टूबर माह तक किसान अपने बीजों की बुवाई नर्सरी में करें। बीजो की बुवाई हेतु सबसे पहले पौधशाला के लिए स्थान का चुनाव करके मृदा को अच्छी तरीके से भुरभुरी बना ले। मृदा मे उपस्थित घास फूस कंकड़ व पत्थर हटा दे, उसके बाद 1 मी. चौड़ी, 3-8 मी. लम्बी एवं 15 सेमी. जमीन से उठी नर्सरी बेड तैयार करे एवं प्रत्येक नर्सरी बेड मे 15-20 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद डालें। अन्य गोभी फसलों में 100 वर्गमीटर की नर्सरी के लिये 150 से 200 ग्राम तथा गांठ गोभी में 400 से 500 ग्राम बीज लगता है। इसकी बुवाई से पहले इसे थाइरम, बाविस्टन या कैप्टान (2 ग्राम/किग्रा.) नामक कवकनाशी से या ट्राइकोडर्मा पाउडर (4-5 ग्राम/किग्रा.) की दर से उपचारित करें। उसके बाद क्यारी के समानांतर 5 से 7 सेमी की दूरी पर लाईन खींचकर, बीज उसी लाइन में 1-1.5 सेमी. गहराई पर बुवाई कर हल्का दबायें, और अंत में घास से ढक दें। बुवाई के तुरंत बाद हजारा से हल्की सिंचाई करें। बीज की क्यारी को प्रति दिन, दो बार हजारा से हल्की सिंचाई तब तक करे जब तक अंकुरण न हो जाए। बीज के अंकुरण के बाद घास फूस को हटा दें। बुवाई के 25-30 दिन बाद पौध खेत में रोपाई के लिए तैयार हो जाती है। 25 वर्ग मीटर नर्सरी क्षेत्र के पौध से लगभग 1000 वर्गमीटर खेत की रोपाई की जा सकती है।
माहू से सुरक्षा के लिए सरसों की समय से करें बुवाई
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस. एस. सिंह के मार्गदर्शन में माहू से सरसों की फसल की सुरक्षा हेतु समय पर बुवाई करने की सलाह दी हैं। कृषि विशेषज्ञ डॉ. सुन्दर पाल व डॉ. प्रशांत जाम्भुलकर बताते हैं कि बुंदेलखंड में सरसों की खेती व्यापक तौर पर होती हैं और देर से बुवाई होने पर माहू कीट का प्रकोप फूल अवस्था में होता हैं। माहू पौधे के कोमल भागों से रस चूसकर नुकसान पहुंचाते है जिसके कारण पौधे की वृद्धि रुक जाती हैं । इससे पौधे पर फलियाँ भी कम बनती है और दानों से तेल की मात्रा भी कम प्राप्त होती है। फूल अवस्था के बाद इसकी जनसख्या कम होने लगाती हैं। शुरुआत में इनके काले शरीर पर पारदर्शी दो जोड़ी पंख होते हैं। ये सभी मादाये होती है जो सरसों के पौधों पर बच्चे देती है जो कि हरे रंग के और पंखहीन होते है और अपनी जनसंख्या को बढाती रहती हैं । बीज बुवाई से पहले खेत की गहरी जुताई करे जिससे मिट्टी में रस चूसने वाली कीड़े के अंडे व आरा मक्खी के कोष (प्यूपा) अवस्थायें नष्ट हो जाये। माहू से बचाव के लिए सरसों के बीज की बुवाई 15 से 20 अक्टूबर तक करें। बुवाई में जितनी देरी होगी माहू से फसल को उतनी ही क्षतिग्रस्त होगी। बीज उपचार के लिए इमिडाक्लोप्रिड 70 प्रतिशत डब्लू. एस. की 7 ग्राम मात्रा से प्रति किलो बीज को उपचारित कर बुवाई करें।
तैयार खरीफ मक्का को खेत खलिहान से सुरक्षित कर कैसे घर लाऐं ?
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस. एस. सिंह के मार्गदर्शन में खेतों में पक चुके मक्का को पशुओं एवं पक्षियों से सुरक्षित रखने की सलाह दी हैं। कृषि वैज्ञानिक डॉ. अमित तोमर एवं डॉ. संदीप उपाध्याय बताते हैं कि मक्का की फसल को विशेष रूप में भुट्टे में दाने बनने पर चिड़ियों द्वारा हानि पहुंचना प्रारंभ हो जाती है और रात के समय जंगली जानवरों से हानि पहुँचती है, अतः फसल की रखवाली इन आखिरी दिनों में अत्यंत आवश्यक होती है। इस फसल की चिड़ियों से सुरक्षा के लिये खेत में चारों कोने और बीच में बांस की बल्ली पर टीन के डब्बे बांध कर आवाज निकलनी चाहिए या पटाखों से आवाज करनी चाहिये, तालियाँ बजानी चाहिये, इससे होने वाली आवाज से चिड़ियाँ भाग जाती हैं। संकर एवं संकुल किस्में बोने के 90 से 115 दिन में पक जाती हैं और दाने मे लगभग 25 प्रतिशत् तक नमीं होने पर कटाई करनी चाहिए। भुट्टों का छिलका उतार कर धूप में सुखाते हैं और भुट्टों को तब तक सुखाया जाता है जब तक की दानों में 15 प्रतिशत नमीं रह जाये। इससे मक्के को लम्बे अंतराल तक भंडारित किया जा सकता हैं।
मूँगफली की कटाई एवं भंडारण
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस. एस. सिंह के मार्गदर्शन में मूँगफली की कटाई एवं भंडारण के तरीकों पर सामायिक सलाह जारी की हैं। कृषि विशेषज्ञ डॉ. राकेश चैधरी एवं डॉ. आशुतोष शर्मा बताते हैं की अगर मूँगफली फसल में सभी फलियाँ एक साथ परिपक्व ना हो तो, 75-80 प्रतिशत फलियाँ पक जाने पर ही फसल की कटाई कर लेनी चाहिए। फसल की परिपक्वता, मूँगफली के पत्तियों के पीले पड़ने, धब्बे बनने, पुरानी पत्तियों के गिरने, फलियों के अंदर का टेनिन का रंग उड़ जाने और बीज के छिलके (टेस्टा) के रंग के विकास/बदलने से लगाया जा सकता हैं। खेतों से मूँगफली निकलते समय मृदा में प्र्याप्त नमी होनी चाहिए और नमी ना होने पर हल्की सिंचाई दी जानी चाहिए। मृदा में प्र्याप्त नमी होने पर हैंड-हो से मिट्टी को खुली कर हाथ से पौधे उखाड़े जा सकते है तथा पर्याप्त नमी न होने पर ट्रैक्टर या बैल द्वारा चलित ब्लडेस से भी खुदाई की जा सकती है। मूंगफली की खुदाई ट्रैक्टर चलित “मूँगफली डिगर्स” के उपयोग करने पर श्रम ह्रास कम कर लागत को भी कम किया जा सकता हैं। फसल की कटाई देरी से होने पर जल्दी से पकने वाली फलियाँ मिट्टी में ही रह जाती है जबकि समय पूर्व कटाई करने पर देरी से बनने वाली फलियाँ कच्ची रह जाती हैं तथा ऐसे में एफलाटोक्सिन विष की संभावनाएँ फली में बढ़ जाती हैं। फलियों को 7-8 प्रतिशत नमी रहने तक सुखाकर फलियों में ही मूँगफली के बीज का भंडारण लम्बे समय तक कर सकते हैं।
सरसों की उन्नत किस्मों की समय से करें बुआई
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस. एस. सिंह के मार्गदर्शन में सरसों की उन्नत किस्मों की समय से बुवाई करने की सलाह दी हैं। बुंदेलखंड में रबी मौसम में बोई जाने वाली तिलहनी फसलों में राई-सरसों एक प्रमुख फसल है। कृषि वैज्ञानिक डॉ. राकेश चैधरी एवं डॉ. विष्णु कुमार बतातें हैं कि सरसों की खेती से किसान सीमित सिंचाई की दशा में भी नयी व उन्नत किस्मों के प्रयोग से अधिक उत्पादन व लाभ अर्जित कर सकते हैं और खादय तेलों में आत्मनिर्भर बनाने में योगदान कर सकते हैं। इसकी बुवाई का उचित समय मध्य अक्टूबर होता हैं। सरसों की खेती के लिए खरीफ की कटाई के बाद एक जुताई देकर खेतों की नमी संरक्षित कर लेना चाहिए। खेत की तैयारी हेतु सर्वप्रथम मिट्टी पलटने वाले हल या हेरो कल्टीवेटर से जुताई कर अच्छे अंकुरण हेतु मिट्टी को भुरभुरा कर लेना चाहिए। बीज दर 4-5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखनी चाहिए। बीजो को थीरम से 2 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करने से बीज जनित रोगों पर नियंत्रण पाया जा सकता हैं। बुवाई कतारों में करनी चाहिए तथा कतार से कतार की दूरी 30-45 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10-15 से.मी. होनी चाहिए। अधिक उत्पादकता के लिए बुवाई के 20 दिन पूर्व प्रति हेक्टेयर 8-10 टन गोबर की खाद खेत में डाल कर अच्छे से मिला दें। उर्वरकों में 60-80 किलोग्राम नत्रजन, 40-50 किलोग्राम फास्फोरस और 40-50 किलोग्राम पोटाश एवं 40 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करना चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा एवं अन्य उर्वरको की पूरी मात्रा बुवाई के समय एवं शेष बची हुई नत्रजन की मात्रा को 2 बराबर भागो में बांट कर टॉप ड्रेसिंग के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए। सूक्ष्म तत्वो में 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट का प्रयोग बुवाई के समय करने से तेल की मात्रा में आशातीत वृद्धि होती हैं। पौधों का विरलीकरण बुवाई के 10-15 दिनों बाद तथा दो निराई 25-30 एवं 40-45 दिनों बाद में कर लेनी चाहिए। रासायनिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण, पेंडिमिथेलीन 30 ई.सी. 3.3 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के 48 घंटों के भीतर 500-600 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। फसल में आवश्यकतानुसार पहली सिंचाई 30-35 दिनों के बाद, शाखाओं के निर्माण पर तथा दूसरी सिंचाई 60-65 दिनों बाद, कलियाँ बनने की अवस्था पर करनी चाहिए। बुंदेलखंड क्षेत्र में सरसों की उन्नत किस्मों में गिरिराज, आर एच-749, आर एच-406 एवं एन.आर.सी.एच.बी.-101 प्रमुख हैं एवं इनका गुणवत्तायुक्त बीज विश्वविद्यालय में भी उपलब्ध हैं।
मूँगफली में एफ्लाटोक्सिन विष का प्रबंधन
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस. एस. सिंह के मार्गदर्शन में मूँगफली में होने वाले एफ्लाटोक्सिन नामक विष के बचाव के तरीकों की विस्तार से चर्चा की हैं। कृषि वैज्ञानिक डॉ. राकेश चैधरी एवं डॉ. विष्णु कुमार बताते हैं की मूँगफली मे फफूँद संक्रमण से एफ्लाटोक्सिन नामक शक्तिशाली विष पैदा हो जाती है जो कि मनुष्यों एवं पशुओं दोनों के लिए घातक होता है। यह एक कैंसर जनित, उत्परिवर्तन जनित, रोग प्रतिरोधक क्षमता कम करने वाला तत्व है तथा इसके लम्बे समय तक उपभोग या ज्यादा मात्रा के अचानक उपभोग से लीवर के रोग, प्रतिरोधक क्षमता में कमी अथवा मृत्यु भी हो सकती हैं। हमें मुख्यताः इन बातो का ध्यान रखना चाहिए। कटाई के पूर्व इसकी संक्रमण की संभावनाएँ, फलियों पर कीटों के नुकसान, सूखा एवं अधिक तापमान के साथ बढ़ जाती हैं। बीजोपचार (2 ग्राम थीरम प्रति किलोग्राम बीज), फसल चक्र, अवरोधी किस्में, कीट नियंत्रण, खरपतवार नियंत्रण, समय से बुवाई, फसल के अंत में सिंचाई एवं भूमि के निर्विषीकरण जैसे मृदा का सौरीकरण आदि करके इस फफूंद के संक्रमण से बचा जा सकता हैं। कटाई/खुदाई के दौरान संक्रमण को रोकने के लिए फलियों के सही से पकने तथा फलियों को नुकसान होने से बचाना जाना चाहिए। कच्ची फलियों एवं फलियों में यंत्रों के द्वारा नुकसान होने पर भी संक्रमण की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं। कटाई के उपरांत फलियों को अच्छी तरह से सुखाना चाहिए ताकि बीजों में नमी की मात्रा लगभग 7 प्रतिशत रहे। इसका संक्रमण मुख्यतरू फलियों में 9 प्रतिशत से अधिक नमी होने पर ही होती हैं। अच्छी तरह से सूखी हुई फलियों का अंदाज हाथ में लेकर लगाया जा सकता है। ज्यादा नमी वाली फलियों को प्रसंस्करण से पहले ही अलग कर लेना चाहिए। प्रसंस्करण के दौरान नमी से बचाना चाहिये तथा टूटे हुए एवं पतले दानों को पूर्णतया रूप से हटा लेना चाहिये। मूँगफली की फलियों का भंडारण नयी/साफ पॉलिथीन के कवर वाले (शक्कर वाले) जूट के बोरों में ऐसी जगह करना चाहिए जहां नमी बिल्कुल ना हो और हवादार जगह पर ढेरी बनाकर रखनी चाहिए। भंडारण के दौरान कीटों पर नियंत्रण करके भी संक्रमण को कम किया जा सकता है। आधुनिक तकनीकों जैसे की लेजर से फलियों की छँटाई, वैक्युम पैकिंग आदि के उपयोग से किसान, एफ्लाटोक्सिन विष की गंभीर समस्या से काफी हद तक निजात पा कर मूँगफली की गुणवत्ता बरकरार रख बाजार में अधिक मूल्य पा सकते हैं।
दलहनी फसलों में राइजोबियम बीज उपचार से बढ़ाये पैदावार
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस. एस. सिंह के मार्गदर्शन में राइजोबियम बीज उपचार द्वारा दलहनी फसलों के पैदावार बढ़ाने की सलाह दी हैं। कृषि वैज्ञानिक डॉ. भरत लाल एवं डॉ. सुशील कुमार सिंह बताते हैं की राइजोबियम एक जैव उर्वरक है जिसमे जीवाणु का मिश्रण होता हैं। इसके प्रत्येक एक ग्राम में लगभग दस करोड़ से भी अधिक राइजोबियम के जीवाणु उपस्थित होते हैं तथा यह जैव उर्वरक केवल दलहनी फसलो में ही प्रयोग किया जा सकता है। इससे उपचार करने पर ये जीवाणु बीज पर चिपक जाते है तथा बीज अंकुरण पर ये जीवाणु जड़ मूल रोम के सहारे जड़ो में प्रवेश कर जड़ो पर ग्रंथियों का निर्माण करते है जिसमे वातावरण का नत्रजन स्थिरीकरण होता है और फसल की पैदावार बढ़ती है तथा फसलो में नत्रजन उर्वरक की आवश्यकता कम होती है। अलग-अलग फसलों के लिए राइजोबियम जैव उर्वरक के अलग अलग पैकेट उपलब्ध होते है जिन्हें इन फसलो में उपयोग कर सकते है, जैसे दलहनी फसले( मूंग, उर्द, अरहर, चना, मटर एवं मसूर), तिलहनी फसले (मूंगफली एवं सोयाबीन) एवं अन्य फसले (बरसीम एवं सभी प्रकार के बीन्स)। 200 ग्राम राइजोबियम कल्चर से 10 किलो ग्राम बीज उपचारित कर सकते है (2-5 ग्राम प्रति किलो बीज)। 200 ग्राम राइजोबियम कल्चर तथा 50 ग्राम गुड़ को 500 मिली. साफ पानी में डालकर अच्छी प्रकार घोल बना लें। इसके बाद बीजो को किसी साफ सतह पर इक्कठा कर जैव उर्वरक के घोल को बीजों पर धीरे-धीरे छिडके और हाथों से तब तक उलटते पलटते जाये जब तक कि सभी बीजों पर जैव उर्वरक की सामान परत न बन जाये अब उपचारित बीजो को किसी छायादार स्थान पर फैलाकर 10- 15 मिनट तक सुखा लें इसके पश्चात बीजो का उपयोग बुवाई के लिए किया जा सकता है। इस जीवाणु से कुछ हार्मोन एवं विटामिन बनाते हैं जिससे पौधों की बढ़वार अच्छी होती है तथा जड़ो का विकाश भी अच्छा होता है, इन फसलो के बाद बोई जाने वाली फसलो में भी भूमि की उर्वराशक्ति अधिक होने से पैदावार अधिक मिलती हैं, इसके प्रयोग से उपज 15 से 20 प्रतिशत तक वृद्धि होती है और 10-30 किलो रासायनिक नत्रजन की बचत होती है। राइजोबियम जीवाणु फसल विशिष्ट होता है अतः पैकेट पर लिखी फसल में ही प्रयोग करे। जैव उर्वरक को धुप व् गर्मी से दूर किसी सुखी एवं ठंडी जगह में रखे तथा जैव उर्वरक या जैव उपचारित बीजो को किसी भी रसायन या रासायनिक खाद के साथ न मिलाये। यदि बीजों पर फफूंदी नाशी का प्रयोग करना हो तो बीजों को पहले फफूंदी नाशी से उपचारित करे तथा फिर जैव उर्वरक से उपचारित करे। जैव उर्वरक का प्रयोग पैकेट पर लिखी अन्तिम तिथि से पहले ही कर लेना चाहिए एवं जैव उर्वरक किसी प्रमाणित संस्था से ही क्रय करे अन्यथा उसके जीवाणु क्रियाशील नहीं होते और लाभ से बंचित रह जाते हैं।
बुंदेलखंड के सुखाड़ क्षेत्र की चने की खेती
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय झांसी के कुलपति डॉ. अरविंद कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस एस सिंह के मार्गदर्शन में चने की खेती तथा इससे मृदा की उर्वरकता बढ़ने की सलाह दी है। कृषि विशेषज्ञ डॉ. संदीप उपाध्याय एवं डॉ. अर्पित सूर्यवंशी बताते हैं की चना में प्रोटीन 20.5 प्रतिशत है यह फसल कम पानी और निराई-गुड़ाई की फसल है। इसके अतिरिक्त इसका बाजार में नगद मूल्य भी अधिक है। बुंदेलखंड क्षेत्र हेतु चने की उत्तम प्रजातियां जैसे आर.वी.जी. 202, जे.जी.12 एवं जे.ए.के.आई 9218 आदि केंद्रीय विश्वविद्यालय द्वारा विक्रय हेतु उपलब्ध हैं जो कि उकठा रोग प्रतिरोधक भी है। मिट्टी की जाँच के हिसाब से उर्वरक प्रयोग करना चाहिए। चने की असिंचित फसल में 25 किलोग्राम नाइट्रोजन व 40 किलोग्राम फॉस्फोरस प्रति हेक्टेयर बुवाई समय देनी चाहिए। अच्छी उपज के लिए चने की बुवाई पूर्व बीज को राईजोबियम जैव उर्वरक से अवश्य उपचारित करें । उपचारित करने के लिए पानी की आवश्यक मात्रा (4 लीटर पानी प्रति 10 किलो बीज) को गर्म करें। इसमें 100 ग्राम गुड़ प्रति लीटर की दर से घोले और ठंडा होने पर इसमें राईबोजियम की उचित मात्रा (20 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर) मिला लें फिर इस घोल को बीजों पर अच्छी तरह से छिड़क कर उलटते-पलटते जाएं। ध्यान रखें कि इस प्रक्रिया में बीजों के छिलकों को नुकसान ना होने पाए। उपचारित बीज को छाया में आधे घंटे तक सुखा लें बीजों की बुवाई सूखने के तुरंत बाद कर देनी चाहिए। चने के राईबोजियम का पैकेट बाजार एवं सरकारी बीज भंडार पर उपलब्ध है। राइजोबियम से उपचारित बीज की जड़ों पर ग्रंथियां बनती हैं, जो फसलों की नाइट्रोजन मांग को पूरा करती है । यह ग्रंथि जीवाणु सामान्यतः 20 से 25 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर मिट्टी में एकत्र करती हैं, कुछ तो इस फसल के विकास में प्रयुक्त होती हैं और शेष मात्रा अगली फसलों को प्राप्त होती है इस प्रकार चना फसल मिट्टी से लिए गए पोषण मान को मिट्टी में वापस करती है।
औषधीय पौधो से अच्छी आय के लिए अश्वगंधा एक महत्वपूर्ण विकल्प
रानी लक्ष्मी बाई केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झाँसी के कुलपति डॉ. अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ एस. एस. सिंह के मार्गदर्शन में औषधीय पौधे के रूप में अश्वगंधा की खेती की सलाह दी है। कृषि वानिकी के विशेषज्ञ डॉ. अभिषेक कुमार एवं डॉ. एम. जे. डोबरियाल इस औषधीय पौधे की विशेषताओं की चर्चा करते हुए बताया कि बुंदेलखंड के कम वर्षा वाले शुष्क पथरीली मिट्टी में भी यह हो सकता है। इनकी जड़ें मांसल एवं सफेद भूरे रंग की होती है। इसे गठिया रोधी टॉनिक, दुर्बलता, चिन्ता, अवसाद इत्यादि में औषधि के रूप में उपयोग किया जाता है। यह सामान्य रूप से देर से होने वाली वर्षा ऋतु की फसल के रूप में बिना जल-जमाव वाले जगह में उगाया जाता है । इसके लिए हल्की क्षारीय या हल्के अम्लीय मिट्टी सबसे उपयुक्त माना जाता है। इसकी खेती वर्षा के बाद अक्टूबर महीने में की जाती है, और इसके लिए लगभग 10-12 किलो बीज प्रति हैक्टेयर छिड़काव विधि द्वारा जबकि पोध रोपन विधि के लिए 4-5 किलो बीज प्रति हैक्टेयर के लिए उपयुक्त होती है। रोग मुक्त बीजों के उपयोग से और कार्बोफ्यूरान की 2 से 2.5 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से बुवाई से पहले बीजोपचार करके रोग को कम किया जा सकता है। आवश्यकता होने पर नीम, चित्रकमूल, धतूरा और गोमूत्र से तैयार जैव कीटनाशकों का छिड़काव भी किया जा सकता है। आमतौर पर बुवाई के 140 से 180 दिनों के बाद फसल कटाई के लिए तैयार हो जाती है। जब पत्तियां सूखने लगती हैं, और फल पीले या लाल हो जाते हैं तो जड़ों को नुकसान पहुंचाए बिना, 1-2 सेंटीमीटर ऊपर तना से काटकर और धोकर, धूप या छाया में 10-12 प्रतिशत नमी तक सूखया जाता है। जड़ों को 7-10 सेमी के छोटे टुकड़ों में काटकर वर्गीकृत किया जाता है, और थैलियों में संरक्षित किया जाता है। एक हेक्टेयर की फसल से औसतन उपज 6-8 क्विंटल सूखे जड़ों और 50-65 किलो बीज के रुप में प्राप्त की जा सकती है। खेती में लागत लगभग 10,000 रुपये प्रति हेक्टेयर और 30,000 रुपये प्रति हेक्टेयर की आमदनी हो सकती है। बुंदेलखंड में इसकी उत्पादन की असीम संभावनाये है, और इससे आय में अच्छी वृद्धि कर सकते हैं।
गेंहू के अच्छे उत्पादन के लिए समय से बुवाई करें
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय विश्वविद्यालय झांसी के कुलपति डॉ. अरविंद कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस एस सिंह के मार्गदर्शन में गेंहू की समय से बुवाई करने की सलाह दी हैं। रबी मौसम मे बुंदेलखंड क्षेत्र मे अनाज फसलों में गेंहू की फसल काफी महत्त्वपूर्ण है। डॉ विष्णु कुमार एवं डॉ निशांत भानु ने बताया कि बुंदेलखंड क्षेत्र मे गेंहू बोने का सबसे उपयुक्त समए 5 से 15 नवम्बर है। समय से बुवाई करने पर न सिर्फ अधिक उत्पादन प्राप्त कर सकते है बल्कि सामिक ताप वृद्धि से होने वाले नुकसान से भी फसल को बचा सकते है। बुवाई से पहले एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई और 2-3 जुताई देशी हल/ हैरो या कल्टीवेटर से करके खेत को अच्छी तरह से तैयार कर लें । बुंदेलखंड क्षेत्र के लिए रतुआ रोग प्रतिरोधी अधिक उपज वाली प्रजातियों का प्रयोग लाभदायक है। इसके लिए सिंचित समय से बिजाइ के लिए एच.आई. 1544, जी.डब्ल्यू. 322 व जी.डब्ल्यू. 366 के साथ एच.आई. 1605 की भी बुवाई कर सकते हैं। वहीं सीमित सिंचाई व समय से बुवाई के लिए डी.बी.डब्ल्यू. 110 व एम.पी. 3288 किस्म को अपनाया जा सकता है। इसके साथ ही बोने से पहले बीज जनित रोगो से बचाव के लिए बीजों को 1 ग्राम टेबुकोनाजोल 2 डी.एस. प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित अवश्य करे। बुवाई सीडड्रिल से करे जिससे बीज की गहराई तथा पंक्तियों की दूरी नियंत्रित रहती है तथा जमाव भी अच्छा होता है ।
कटुआ कीट के प्रकोप से सब्जी फसलों को बचाए
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय विश्वविद्यालय झांसी के कुलपति एवं निदेशक प्रसार शिक्षा के मार्गदर्शन में सब्जियों को कटुआ कीट से बचाव की सलाह दी हैं। वैज्ञानिक डॉ. राकेश कुमार व डॉ. मनमोहन डोवरियाल ने बताया की यह एक ऐसा विनाशकारी कीट है जो दिन के समय मिट्टी में पौधों के तने के समीप छिपा रहता है तथा रात्रि को बाहर आता है। इसका नया जन्मा कीट पूर्ववर्ती फसल के तने ठूंठ आदि को भोजन की तरह खा जाता है, उन पत्तियों पर जन्म लेता है और बाद में यह कीट पौधें के भूमिगत तना और कंद को खाकर बढ़ता है ।यह साल में दो बार अप्रैल से जून तथा अक्टूबर से नवंबर के मध्य अंडे से जन्म लेकर बढ़ता है। किसान मिट्टी को अगर कांटेदार चम्मच से खोदकर देखें तो इसकी उपस्थिति का आभास हो जायेगा। यह एक बहुभक्षी कीट है जो कि बहुत तरह की फसलों पर आक्रमण कर फसलों को अत्यधिक हानि पहुंचाता है। यह बगीचे का सामान्य कीट है जो सभी तरह की सब्जियां जैसे चुकंदर, गोभी, टमाटर, आलू इत्यादि तथा फसलों में मक्का, जौ, कपास, एवं मैथी इत्यादि में भी मिलता है। यह वन्य पौधों की नर्सरी के बीजों से उगाए जाने वाले पौधों के कोमल तना को रात्रि के समय कुतर देता है, जिससे पौधे तुरंत गिर जाते हैं, या सूख जाता हैं, या फिर उस तने को फफूंद की बीमारी पकड़ लेती है । इस कीट से जैविक उपचार जैसे बैबेरिया वैसियाना या मेटारायजिम गोबर में मिला कर मिट्टी में 30-40 ग्राम प्रति 10 किलो गोबर में मिलाये। इसकी रासायनिक उपचार हेतु क्लोरपरीफास 20 ई.सी. को 2 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी की सिंचाई दे अथवा इमिडाक्लोप्रिड 0.5 मि.ली. लीटर की दर से खेत में सिंचाई कर दे। अन्य उपचार जैसे फोटर दाना कीट नाशक मुटठी भर लेकर पेड़ के तने के चारो ओर मिट्टी में मिला दे। ये रसायन बाजार में थीमेट के नाम से उपलब्ध होता है तथा किसान भाई इसका भी उपयोग कर सकते है।
जौ के उत्पादन के लिए उन्नत किस्म के बीजों का करें प्रयोग
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय विश्वविद्यालय झांसी के कुलपति एवं निदेशक प्रसार शिक्षा के मार्गदर्शन में बुंदेलखंड क्षेत्र मे जौ के उत्पादन हेतु उन्नत बीजों के प्रयोग की सलाह दी हैं। रबी मौसम मे सिंचाई, उर्वरक के सीमित साधन एवं असिंचित दशा में जौ की खेती अधिक लाभप्रद है। जौ को कम पानी की आवश्यकता होती है । कृषि वैज्ञानिक डॉ. विष्णु कुमार एवं डॉ. निशांत भानु ने बताया कि बुंदेलखंड क्षेत्र मे जौ बोने के लिए सबसे उपयुक्त समय हैं। फसल का अच्छा अंकुरण प्राप्त करने के लिये खेतों में एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई और 2 से 3 जुताई देशी हल, हैरो या कल्टीवेटर से करनी चाहिए। फसल से अधिक उत्पादन लेने के लिए इस क्षेत्र मे अधिक उपज देने वाली प्रजातियाँ जैसे डी.डब्ल्यू.आर.बी. 137, आर.डी 2899 एवं आर.डी. 2786 का प्रयोग लाभदायक हैं। हरा चारा और दाना के लिए आर.डी. 2715 किस्म अच्छी हैं। बीजजनित रोगों से बचाव के लिए बुवाई पूर्व बीजों को 1 ग्राम टेबुकोनाजोल 2 डी.एस. प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें, कतारों में बोई गई फसलों मे खरपतवारों का नियंत्रण आसानी से किया जा सकता है, इसलिए बुवाई सीडड्रिल मशीन से ही करें। इससे बीज की गहराई तथा पंक्तियों की दूरी भी नियंत्रित रहती है तथा पौधों का जमाव भी अच्छा होता हैं।
मृदा जाँच कर उर्वरकों के संतुलित उपयोग से बचत करें अधिक उपज लें
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय झाँसी के कुलपति एवं निदेशक प्रसार शिक्षा के मार्गदर्शन में मृदा जाँच एवं उनके उनुसार उर्वरकों के प्रयोग की बात बताई हैं । सही प्रकार से मिट्टी का संकलन सही परिणाम को दर्शाने हेतु जरुरी हैं। इसके लिए खेतों से अलग-अलग भागों से लगभग 500 ग्राम मिट्टी का नमूना लिया जाता हैं। कृषि वैज्ञानिक डॉ. यूमनाम बीजीलक्ष्मी देवी एवं डॉ. योगेश्वर सिंह बताते हैं कि खेतों की ढाल का प्रभाव मृदा के गुणों को प्रभावित करता हैं। खेत में हर कोने से लगभग 2 से 3 मीटर की जगह छोड़कर मिट्टी लिया जाता हैं। जिन खेतों में अनाज, सब्जियां एवं मौसमी फसल लिए जाते हैं वहां 15 सेंटी मीटर की गहराई से मिट्टी लेनी चाहिए। सबसे पहले खेतों को वर्ग या आयात में बांट दे। फिर दो विकर्ण (आड़ी-तिरछी) रेखाएँ ध्यान रखते हुऐ मिट्टी के नमूने ले। चार नमूने हर कोने से 2 से 3 मीटर की दूरी में और एक वर्ग आयात के केंद्र से लिया जाता हैं। मिट्टी के संकलन आम तौर पर फावड़ा और खुरपी से किया जाता है। जहाँ से मृदा का संकलन किया जाना हो, उस स्थान को खर-पतवार आदि से साफ कर दे। एक फावड़े के मदद से अंग्रजी के “टी” अक्षर के आकार में भूमि को दोनों तरफ से लगभग 15 सें.मी. मिट्टी को काट कर लगभग 500 ग्राम मिट्टी जमा कर लें। बहुत बड़े खेत के लिए कुछ जगह के नमूनों को मिलाकर एक संमिश्रित नमूना बना सकते हैं। इकट्ठे किए गए मिट्टी को एक पॉलिथीन में डालकर बांध कर लेबल लगा दे, जिसमे नमूने का संक्षिप्त विवरण हो। मिट्टी के संकलन में कुछ सावधानियाँ बरतनी चाहिए जैसे कि मिट्टी के नमूनों को उर्वरक, खाद, एवं रसायक आदि के संपर्क में न आने देना, बिना जंग लगे औजार का प्रयोग, सिंचाई के तुरंत बाद एवं खाद-उवर्रक रखे हुए जगहों से मिट्टी का संकलन न करना आदि। इन मिट्टी के नमूनों के संकलन के बाद, किसान इसे नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र कृषि विभाग या कृषि विश्वविद्यालय में विश्लेषण हेतु जमा किया जा सकता हैं। इसकी जाँच रिपोर्ट के अनुसार ही पोषक तत्वों का प्रयोग करके तथा अनावश्यक उर्वरक प्रयोग से बचे।
आरा मक्खी के प्रकोप से सरसों की फसल को कैसे बचाएं
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय विश्वविद्यालय झांसी के कुलपति डॉ. अरविंद कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस एस सिंह के मार्गदर्शन में आरा मक्खी के प्रकोप से सरसों फसल की सुरक्षा की सलाह दी हैं। कृषि विशेषज्ञ डॉ. ऊषा, डॉ. एम. सोनिया देवी एवं डॉ. विजय कुमार मिश्रा बताते हैं की आरा मक्खी सरसों फसल की एक हानिकारक कीट है। जिससे फसल की उपज में 20 से 30 प्रतिशत तक की हानि होती है। यह कीट फसल की शुरूआत में अंकुरित अवस्था के समय में आक्रमण करता है और पत्तियों को खुरच खुरच कर खाकर अनियमित आकर के छेद कर देता है। तथा अधिक प्रकोप होने पर यह पत्तियों को पूरी तरह से खा जाता है। इससे नियंत्रण के लिए सुबह और शाम के समय आरा मक्खी के लार्वा को एकत्रित करके नष्ट कर दे। कीट के पत्ती खाने से बचाव हेतु 5 प्रतिशत नीम बीज आर्क का छिड़काव करें। कीट नियंत्रण हेतु फिप्रोनिल 5 एस. सी. की 500 मिली. दवा की मात्रा को प्रति हेक्टेयर की दर से सिचाई के पानी के साथ दें। इन्डॉक्साकार्ब 14.5 एस.सी. की 200 मिली. दवा अथवा इमामैक्टिन बेंजोएट 5 एस. जी. की 10 ग्राम दवा अथवा क्लोरएनट्रानिलीप्रोल 18.5 एस. सी. की 150 मिली. दवा की मात्रा को 600 से 700 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टर की दर से छिड़काव करें।
सब्जियों में जहरीले रसायनो के प्रयोग से बचाव के उपाय
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा के मार्गदर्शन में सब्जियों मे हानिकारक रसायनों के प्रयोग से बचने की सलाह दी है। इन रसायनों का ज्यादा मात्रा में उपयोग करने से मृदा की उर्वरा क्षमता भी नाश होता है। इन हानिकारक रसायनों के स्थान पर जैविक कीटनाशक एवं जैविक खाद का प्रयोग करे जिससे अधिक उत्पादन के साथ साथ मृदा की उर्वरा क्षमता भी बनी रहती है। कृषि विशेषज्ञ डॉ. अर्जुन लाल ओला एवं डॉ. गौरव शर्मा बताते हैं कि इस समय बाजार में हरी पत्तेदार सब्जियों जैसे पालक, मैंथी, धनिया, चैलाई व मूली की आवक अधिक है। इन सब्जियों मे रोगों व कीटों के नियंत्रण हेतु विभिन्न प्रकार के क्लोरीन व फास्फोरस युक्त जहरीले रसायनो का प्रयोग करते है जिनसे इन सब्जियों का खाने मे प्रयोग करने पर इनमें उपस्थित हानिकारक पदार्थ मानव के शरीर में एकत्रित हो जाते है और विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ जैसे कैंसर, लीवर खराब होना, आंखो से कम दिखाई देना, उच्च रक्तचाप, किडनी, मूत्र, प्रजनन व तंत्रिका संबंधीत बीमारियाँ होने लगती है। चूसक कीटों की संख्या रोकने के लिए जैविक कीटनाशक जैसे ब्युबेरिया बैसियाना नामक जैविक फफूंद का प्रयोग कर सकते है । इसके लिए 5 ग्राम ब्युबेरिया बैसियाना पाउडर को 1 लीटर में घोल कर 10-15 दिन के अंतराल पर शाम के समय छिड़काव करे । यह जैविक उत्पाद अंडा देने वाले कीटो व पौधों के लिए बहुत प्रभावी होता है। इस पाउडर 1 वर्ष तक खराब नहीं होती तथा एक बार प्रयोग करने से पत्तेदार सब्जियों को पूरा मौसम कीटों के प्रकोप से बचाया जा सकता है। हरी पत्तेदार सब्जियों में चूसक कीटों के नियंत्रण हेतु नीम का तेल 2 मि.ली. को 1 लीटर पानी घोल छिड़कना फायदेमंद होता है तथा इसके साथ में गाय का मूत्र मिला दिया जाए तो इसका कीटनाशक गुण भी बढ़ जाता है। इस प्रकार के जैविक उत्पादों को पौधों के उपर छिड़कने से कीटों का जीवन-चक्र छोटा हो जाता है, जिससे सब्जी फसलों की आर्थिक हानि से भी बचा जा सकता है ।
पेपर मलबेरी- एक बहुउपयोगी पेड़
पेपर मलबरी एक बहुउपयोगी पेड़ है जिससे हमें एक से ज्यादा लाभ मिलते है। इसे हिंदी में जंगली तुत के नाम से भी जाना जाता है । इसकी उचाई 14 से 20 फीट तक बढ़ती है । इसमें नर और मादा पेड़ अलग अलग होते है। इसे बीज एवं प्रकंद से उगाया जाता है । इसे कलमों से भी उगाया जा सकता है। यह ज्यादा नमी वाले जमीं में आने वाला पेड़ है साथ ही नहर के किनारे जैसी जमीं पर बड़ी आसानी से उगता है। पर जल्द से जल्द उगना है तो हम इसे कलम के द्वारा भी ऊगा सकते है। ये एक फायदे की बात है की बिना बीज के भी हम इसे कलम के द्वारा ऊगा सकते है । ये ज्यादा पानी वाले क्षेत्र में आने वाला पेड़ है इसलिए इसे कैनाल के किनारे, नदी के किनारे, जहाँ पानी ज्यादा जमता है ऐसे जमीं में लगाना चाहिए। इसे हम नहर के किनारे भी लगाकर उपयोग में ला सकते है। इसकी लकड़ी से पेपर बनाया जाता है, पत्ते जानवर को चारे के रूप में खिलाते है, इसकी छाल से कपडा बनाया जाता है, इसके फल खाये जाते है, इसे दवाई के रूप में भी उपयोग किया जाता है । किसान भाई अपने खेत के तालाब के किनारे, नहर के किनारे, नदी के किनारे एवं जमीं के निचले स्तर पर जहा पानी रुका रहता है या जहा पानी बैश के दिनों में जम जाता है ऐसे जगह पर पेपर मलबरी या जंगली तुत को बड़ी आसानी से लगाकर उसका लाभ ले सकते है। इसके उपयोग को देखते हुए इससे अधिक काधिक् लाभ लेने चाहिए ।
बहुउपयोगी पेड़ जंगली तूत की खेती से आय बढ़ायें
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झाँसी के कुलपति एवं निदेशक प्रसार शिक्षा के मार्गदर्शन में किसानों को पेपर बनाने वाले मलबरी पेड़ लगाने की सलाह दी हैं। वानिकी विशेषज्ञ डॉ. दीपिका आयटे एवं डॉ. मनमोहन डोबरियाल ने बताया की आर्थिक दृष्टि से यह एक बहुउपयोगी पेड़ है जिसे स्थानीय भाषा में जंगली तूत के नाम से भी जाना जाता हैं। इसकी ऊँचाई 15 से 20 फीट तक बढ़ती है । इसमें नर और मादा पेड़ अलग अलग होते है। इसे बीज एवं प्रकंद एवं कलम द्वारा भी लगाया जा सकता है। कलम के माध्यम से इसे रोपने से इसकी वृद्धि तेज होती हैं। यह ज्यादा नमीं वाले जगहों पर आने वाला पेड़ है और नहर-नदी के किनारे जैसी जगहों पर बड़ी आसानी से उगता है। इस प्रकार किसान नहर के किनारे भूमि का सही उपयोग कर सकते हैं। इस पेड़ के सभी भाग बहुपयोगी हैं। इसकी लकड़ी से कागज, छाल से कपडा, इसकी पत्तियों को मवेशियों के चारे के रूप में, तथा इसके फलों को सामान्य तौर पर खाया जाता है। किसान अपने खेत के तालाब, नहर, नदी के किनारे एवं जमीन के निचले स्तर पर जहां पानी रुका रहता है या जहां पानी बारिश के दिनों में जम जाता है ऐसे जगहों पर पेपर मलबरी या जंगली तूत को बड़ी आसानी से लगाकर उसका लाभ ले सकते है।
औषधीय गुणों से परिपूर्ण जैकबीन की खेती
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय झाँसी के कुलपति एवं निदेशक प्रसार शिक्षा के मार्गदर्शन में औषधीय गुणों से परिपूर्ण जैकबीन की खेती की सलाह दी है। वानिकी विशेषज्ञ डॉ. प्रभात तिवारी एवं डॉ. मनमोहन डोबरियाल ने बताया की बुंदेलखण्ड में जहां भूमि की उर्वरा क्षमता कम होने के कारण फसलें कमजोर होती हैं, वहां जैकबीन की खेती किसानों के लिए वरदान साबित हो सकती है। जैकबीन एक अधिक तापमान सहन करने वाली, कम सिचाँईं में तेज से वृद्धि करने वाली दलहनी फसल है जिसे कृषि वानिकी प्रणाली में लगाकर किसान अपनी आमदनी बढ़ाते हुए भूमि का समुचित उपयोग व भूमि की उर्वरा क्षमता को भी बढ़ा सकते हैं। जैकबीन के बीज को रबी मौसम में आसानी से लगाया जा सकता है। ताजे बीज से ज्यादा पैदावार मिलती है। यह एक बहुवर्षीय पौधा है, जिसका जीवन चक्र 2 से 3 वर्ष तक होता है। इसमें 3 से 5 महीनों में फल आ जाते हैं जो लगातार संपूर्ण जीवन चक्र तक चलते हैं। इसमें यूरियेज एन्जाइम व ष्विटामिन सीष् पाया जाता है जो कि मुख्यतः कैंसर के खतरे को कम करने व प्रतिरक्षा तंत्र को सुदृढ बनाता है। इसका प्रयोग जानवरों के आहार व मनुष्य के पोषण क्षमता को बढ़ाने में भी बहुतायत किया जाता है। रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय में इसके बीज उपलब्ध हैं यहाँ बाँस के साथ जैकबीन की खेती का एक मॉडल विकसित किया गया है, जो बुंदेलखंड के किसानों को आकर्षण का एक केंद्र है।
जीरो टिलेज मशीन से बिना पराली जलाये कम लागत में खेती
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय विश्वविद्यालय झांसी के कुलपति डॉ. अरविंद कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस एस सिंह के मार्गदर्शन में जीरो टिलेज मशीन के प्रयोग की सलाह दी हैं । कृषि विशेषज्ञ डॉ. संदीप उपाध्याय व डॉ. अर्पित सूर्यवंशी बताते हैं कि गेहूं और चना फसल में समय की बचत के लिए जीरो टिलेज कृषि यंत्र से बिना जुताई, शीघ्र बुवाई कर सकते है। अधिक फसल अवशेष पराली होने पर हैप्पी सीडर तथा कम अवशेष होने पर जीरो टिलेज सीडर प्रयोग करें। पराली जलाए बिना बीज बुवाई और पराली प्रदूषण से भी छुटकारा पाना संभव है। खेतों में खरपतवार व घास अपने बीज बहुतायत में उत्पन्न करते हैं जो मिट्टी पलटने के साथ मिट्टी भुरभुरा बनाते समय गहराई में चले जाते है । खरपतवार बीजों की अंकुरण क्षमता अनाज वर्गीय फसलों की तुलना में लंबे समय तक बनी रहती है और यही कारण है कि अत्यधिक गहराई पर जाने के बाद भी यह बीज सुषुप्त किंतु जागृत रहते है। जब छिटकवां विधि से बोई गई बीज कल्टीवेटर से मिट्टी में एक समान रूप से मिलाते हैं और ढकते हैं यह खरपतवार बीज ऊपरी सतह पर आकर पुनः जम जाते हैं। जीरो टिलेज मशीन में फाल आगे से नुकीले होते हैं जिनके चलने पर जमीन की मिट्टी कम से कम उखड़ती है और मात्र बीज बुवाई के लिए भूमि में चीरा लगाती हुई चलती है। मशीन की मदद से उर्वरक, खाद, बीज सभी उसी के द्वारा लाइन में बनाए गए कूडों में गिरने पर जमाव एक समान और पंक्ति में होता हैं । मशीन से बीज के नजदीक ही उसी गहराई पर खाद गिरती है जो पौधे के लिए अधिक उपजकारी है। मशीन से 1 घंटे में 1 एकड़ खेत की बुवाई की जा सकती है, जबकि सामान्य स्थिति में 2 से 4 घंटे व्यय होता है। शारीरिक श्रम कम लगता है। बुवाई सुगमता से हो जाती है। किसान अपने निकट के कृषि विज्ञान केंद्र तथा अन्य सरकारी सहायता करने वाली संस्थाओं से संपर्क कर या किराये के उपलब्ध मशीन से बुवाई कर सकते हैं। यह मशीन आपके समय की बचत साथ खर पतवार नियंत्रण में भी अत्यंत उपयोगी हैं ।
जंगली प्रजातियों का संग्रह या प्राकृतिक रूप से अंकुरित अंकुर नर्सरी-स्वरोजगार का स्रोत
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. अरविन्द कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस. एस. सिंह के मार्गदर्शन में जंगली प्रजातियों का संग्रह या प्राकृतिक रूप से अंकुरित अंकुरनर्सरी के माध्यम से स्व-रोजगार की को अपनाने की सलाह दी हैं। वानिकी विशेषज्ञ डॉ. स्वाती शेडगे, डॉ. मनमोहन डोबरियाल एवं डॉ. दीपिका आयटे बताते हैं कि हाल के वर्षों में, नए वन रोपण का स्तर काफी बढ़ा है। यह मुख्य रूप से वन क्षेत्र का विस्तार करने के लिए देशों की प्रतिबद्धता या अपमानित वन पारिस्थितिक तंत्रों के पुनर्वास और वानिकी के लिए परेशान स्थलों को पुनः प्राप्त करने के लिए है, जिसका उद्देश्य रख रखाव और वृद्धि करना है जैव विविधता, वैश्विक जलवायु परिवर्तनों को कम करने के लिए। रोपण क्षेत्रों में वृद्धि से वन नर्सरी के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले रोपण सामग्री प्रदान करने की मांग भी बढ़ जाती है । लेकिन वन नर्सरियों की स्थापना के लिए अधिक निवेश करने की आवश्यकता है और साथ ही उनकी अनियमित फलने और बीज की कम व्यवहार्यता अवधि के कारण मूल्यवान प्रजातियों के बीज की कमी जैसी अन्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है । ऐसे मामलों में जंगली प्रजातियों का संग्रह या प्राकृतिक रूप से अंकुरित अंकुर आम तौर पर देशी प्रजातियों और स्थानीय सिद्धों की एक विस्तृत विविधता के वन क्षेत्रों से एकत्र किए जाते हैं। नर्सरी मे नया किसान कम समय में चलने वाली नर्सरियों में उच्च गुणवत्ता वाले मानकों के पौधों का उत्पादन कर सकते हैं । अल्पावधि में, जब व्यवहार्य बीज पर्याप्त मात्रा में आसानी से उपलब्ध नहीं होता है, और विशेष रूप से जब बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण कार्यक्रम होने वाला होता है, तो ये जर्मप्लाज्म का एक मात्र विश्वसनीय स्रोत होने की संभावना है । जंगली अंकुरित अंकुर नर्सरी स्व-रोजगार के अवसर के लिए होती है जो अपेक्षाकृत कम निवेशव्यय के साथ आय उत्पन्न करती है ।
बुंदेलखंड मैं कैम वृक्ष का महत्व
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय विश्वविद्यालय झांसी के कुलपति डॉ. अरविंद कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस एस सिंह के मार्गदर्शन में किसानों को कैम वृक्ष लगाने की सलाह दी हैं। वानिकी विशेषज्ञ डॉ अमय काले बताते हैं कि कैम ( वैज्ञानिक नाम -उपजतंहलदं चंतअपसिवतं) यह एक ऐसा वृक्ष है जो विभिन्न जलवायु परिस्थितियों में पाया जाता है । यह बुंदेलखंड की भीषण गर्मी और कम आर्द्रता वाले वातावरण से लेकर दक्षिण भारत के जंगलों में भी पाया जाता है जहाँ वर्षा साल भर होने कारण हवा में आर्द्रता बहुत ज्यादा होती है । इस पेड़ से मिलने वाली लकड़ी हलके पिले रंग की होती है । कैम की लकड़ी की गुणवत्ता सागौन के बराबर होती है और इसलिए इसका उपयोग फर्नीचर, चौखट, कृषि उपकरण निर्माण सामग्री बनाने में किया जाता है । लकड़ी के रेशे सीधे होने कारण इससे बासुरी भी बनाई जाती है । पेड़ पर जून -अगस्त के महीनो मैं फूल आते है और जनवरी के महीनो में फल पक आ जाते है । प्रकृति में, यह पेड़ अपने बहुत छोटे बीजों के माध्यम से फैलता है, और अंकुरित अंकुर नाजुक होते हैं और अक्सर भारी बारिश या अधिक पानी से बह जाते हैं । इस प्रजाति का सवर्धन वन पौधशाला में भी बीज अंकुरण पद्धति से किया जाता हैं । बीज में जीवन शक्ति कम होने कारण बीज एक ठाकरने पश्चात तुरंत नर्सरी बेड में बीज बोए जाना जरुरी है । उगाये गए पौधे गाँव में सामुदायिक जमीन पर लगाकर सवर्धन करे । आयुर्वेद में इसकी छाल से बने पेस्ट का इस्तमाल औषधि गुणों के लिए भी प्रयोग किया जाता हैं।
बहुउपयोगी पेड़ जंगली तूत की खेती से आय बढ़ायें
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झाँसी के कुलपति एवं निदेशक प्रसार शिक्षा के मार्गदर्शन में किसानों को पेपर बनाने वाले मलबरी पेड़ लगाने की सलाह दी हैं । वानिकी विशेषज्ञ डॉ. दीपिका आयटे एवं डॉ. मनमोहन डोबरियाल ने बताया की आर्थिक दृष्टि से यह एक बहुउपयोगी पेड़ है जिसे स्थानीय भाषा में जंगली तूत के नाम से भी जाना जाता हैं । इसकी ऊँचाई 15 से 20 फीट तक बढ़ती है । इसमें नर और मादा पेड़ अलग अलग होते है। इसे बीज एवं प्रकंद एवं कलम द्वारा भी लगाया जा सकता है। कलम के माध्यम से इसे रोपने से इसकी वृद्धि तेज होती हैं। यह ज्यादा नमीं वाले जगहों पर आने वाला पेड़ है और नहर-नदी के किनारे जैसी जगहों पर बड़ी आसानी से उगता है । इस प्रकार किसान नहर के किनारे भूमि का सही उपयोग कर सकते हैं। इस पेड़ के सभी भाग बहुपयोगी हैं। इसकी लकड़ी से कागज, छाल से कपडा, इसकी पत्तियों को मवेशियों के चारे के रूप में, तथा इसके फलों को सामान्य तौर पर खाया जाता है । किसान अपने खेत के तालाब, नहर, नदी के किनारे एवं जमीन के निचले स्तर पर जहां पानी रुका रहता है या जहां पानी बारिश के दिनों में जम जाता है ऐसे जगहों पर पेपर मलबरी या जंगली तूत को बड़ी आसानी से लगाकर उसका लाभ ले सकते है।
बुंदेलखंड के सुखाड़ क्षेत्र में चने की खेती
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय झांसी के कुलपति डॉ. अरविंद कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस एस सिंह के मार्गदर्शन में चने की खेती तथा इससे मृदा की उर्वरकता बढ़ने की सलाह दी हैं। कृषि विशेषज्ञ डॉ. संदीप उपाध्याय एवं डॉ. अर्पित सूर्यवंशी बताते हैं की चना में प्रोटीन 20.5 प्रतिशत है यह फसल कम पानी और निराई-गुड़ाई की फसल है। इसके अतिरिक्त इसका बाजार में नगद मूल्य भी अधिक है। बुंदेलखंड क्षेत्र हेतु चने की उत्तम प्रजातियां जैसे आर.वी.जी. 202, जे.जी.12 एवं जे.ए.के.आई 9218 आदि केंद्रीय विश्वविद्यालय द्वारा विक्रय हेतु उपलब्ध हैं जो कि उकठा रोग प्रतिरोधक भी है। मिट्टी की जाँच के हिसाब से उर्वरक प्रयोग करना चाहिए। चने की असिंचित फसल में 25 किलोग्राम नाइट्रोजन व 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर बुवाई समय देनी चाहिए। अच्छी उपज के लिए चने की बुवाई पूर्व बीज को राईजोबियम जैव उर्वरक से अवश्य उपचारित करें । उपचारित करने के लिए पानी की आवश्यक मात्रा (4 लीटर पानी प्रति 10 किलो बीज) को गर्म करें। इसमें 100 ग्राम गुड़ प्रति लीटर की दर से घोले और ठंडा होने पर इसमें राईबोजियम की उचित मात्रा (20 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर) मिला लें फिर इस घोल को बीजों पर अच्छी तरह से छिड़क कर उलटते-पलटते जाएं। ध्यान रखें कि इस प्रक्रिया में बीजों के छिलकों को नुकसान ना होने पाए । उपचारित बीज को छाया में आधे घंटे तक सुखा लें बीजों की बुवाई सूखने के तुरंत बाद कर देनी चाहिए। चने के राईबोजियम का पैकेट बाजार एवं सरकारी बीज भंडार पर उपलब्ध है। राइजोबियम से उपचारित बीज की जड़ों पर ग्रंथियां बनती हैं, जो फसलों की नाइट्रोजन मांग को पूरा करती हैं । यह ग्रंथि जीवाणु सामान्यतः 20 से 25 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर मिट्टी में एकत्र करती हैं, कुछ तो इस फसल के विकास में प्रयुक्त होती हैं और शेष मात्रा अगली फसलों को प्राप्त होती है इस प्रकार चना फसल मिट्टी से लिए गए पोषण मान को मिट्टी में वापस करती है।
कटुआ कीट के प्रकोप से सब्जी फसलों को बचाए
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय विश्वविद्यालय झॉसी के कुलपति एवं निदेशक प्रसार शिक्षा के मार्गदर्शन में सब्जियों को कटुआ कीट से बचाव की सलाह दी हैं। वैज्ञानिक डॉ. राकेश कुमार व डॉ. मनमोहन डोवरियाल ने बताया कि की यह एक ऐसा विनाशकारी कीट है जो दिन के समय मिट्टी में पौधों के तने के समीप छिपा रहता है तथा रात्रि को बाहर आता है। इसका नया जन्मा कीट पूर्ववर्ती फसल के तने ठूंठ आदि को भोजन की तरह खा जाता है । उन पत्तियों पर जन्म लेता है और बाद में यह कीट पौधें के भूमिगत तना और कंद को खाकर बढ़ता हैं । यह साल में दो बार अप्रैल से जून तथा अक्टूबर से नवंबर के मध्य अंडे से जन्म लेकर बढ़ता है । किसान मिट्टी को अगर कांटेदार चम्मच से खोदकर देखें तो इसकी उपस्थिति का आभास हो जायेगा । यह एक बहुभक्षी कीट है जो कि बहुत तरह की फसलों पर आक्रमण कर फसलों को अत्यधिक हानि पहुंचाता है । यह बगीचे का सामान्य कीट है जो सभी तरह की सब्जियां जैसे चुकंदर, गोभी, टमाटर, आलू इत्यादि तथा फसलों में मक्का, जौ, कपास, एवं मैथी इत्यादि में भी मिलता है। यह वन्य पौधों की नर्सरी के बीजों से उगाए जाने वाले पौधों के कोमल तना को रात्रि के समय कुतर देता है, जिससे पौधे तुरंत गिर जाते हैं, या सूख जाता हैं, या फिर उस तने को फफूंद की बीमारी पकड़ लेती है । इस कीट से जैविक उपचार जैसे बैबेरिया वैसियाना या मेटारायजिम गोबर में मिला कर मिट्टी में 30-40 ग्राम प्रति 10 किलो गोबर में मिलाये । इसकी रासायनिक उपचार हेतु क्लोरपरीफास 20 ई.सी. को 2 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी की सिंचाई दें अथवा इमिडाक्लोप्रिड 0.5 मि.ली. लीटर की दर से खेत में सिंचाई कर दें। अन्य उपचार जैसे फोटर दाना कीट नाशक मुटठी भर लेकर पेड़ के तने के चारो ओर मिट्टी में मिला दे। ये रसायन बाजार में थीमेट के नाम से उपलब्ध होता है तथा किसान भाई इसका भी उपयोग कर सकते हैं।
जीरो टिलेज मशीन से बिना पराली जलाये कम लागत में खेती
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय विश्वविद्यालय झांसी के कुलपति डॉ. अरविंद कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस एस सिंह के मार्गदर्शन में जीरो टिलेज मशीन के प्रयोग की सलाह दी हैं । कृषि विशेषज्ञ डॉ. संदीप उपाध्याय व डॉ. अर्पित सूर्यवंशी बताते हैं कि गेहूं और चना फसल में समय की बचत के लिए जीरो टिलेज कृषि यंत्र से बिना जुताई, शीघ्र बुवाई कर सकते हैं । अधिक फसल अवशेष पराली होने पर हैप्पी सीडर तथा कम अवशेष होने पर जीरो टिलेज सीडर प्रयोग करें। पराली जलाए बिना बीज बुवाई और पराली प्रदूषण से भी छुटकारा पाना संभव है। खेतों में खरपतवार व घास अपने बीज बहुतायत में उत्पन्न करते हैं जो मिट्टी पलटने के साथ मिट्टी भुरभुरा बनाते समय गहराई में चले जाते हैं । खरपतवार बीजों की अंकुरण क्षमता अनाज वर्गीय फसलों की तुलना में लंबे समय तक बनी रहती है और यही कारण है कि अत्यधिक गहराई पर जाने के बाद भी यह बीज सुषुप्त किंतु जागृत रहते हैं। जब छिटकवां विधि से बोई गई बीज कल्टीवेटर से मिट्टी में एक समान रूप से मिलाते हैं और ढकते हैं यह खरपतवार बीज ऊपरी सतह पर आकर पुनः जम जाते हैं। जीरो टिलेज मशीन में फाल आगे से नुकीले होते हैं जिनके चलने पर जमीन की मिट्टी कम से कम उखड़ती है और मात्र बीज बुवाई के लिए भूमि में चीरा लगाती हुई चलती है। मशीन की मदद से उर्वरक, खाद, बीज सभी उसी के द्वारा लाइन में बनाए गए कूडों में गिरने पर जमाव एक समान और पंक्ति में होता हैं । मशीन से बीज के नजदीक ही उसी गहराई पर खाद गिरती है जो पौधे के लिए अधिक उपजकारी है। मशीन से 1 घंटे में 1 एकड़ खेत की बुवाई की जा सकती है, जबकि सामान्य स्थिति में 2 से 4 घंटे व्यय होता है। शारीरिक श्रम कम लगता है। बुवाई सुगमता से हो जाती है। किसान अपने निकट के कृषि विज्ञान केंद्र तथा अन्य सरकारी सहायता करने वाली संस्थाओं से संपर्क कर या किराये के उपलब्ध मशीन से बुवाई कर सकते हैं। यह मशीन आपके समय की बचत साथ खर पतवार नियंत्रण में भी अत्यंत उपयोगी हैं ।
आरा मक्खी के प्रकोप से सरसों की फसल को कैसे बचाएं
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय विश्वविद्यालय झांसी के कुलपति डॉ. अरविंद कुमार के निर्देशन एवं निदेशक प्रसार शिक्षा डॉ. एस एस सिंह के मार्गदर्शन में आरा मक्खी के प्रकोप से सरसों फसल की सुरक्षा की सलाह दी हैं। कृषि विशेषज्ञ डॉ.ऊषा, डॉ. एम. सोनिया देवी एवं डॉ. विजय कुमार मिश्रा बताते हैं कि आरा मक्खी सरसों फसल की एक हानिकारक कीट है। जिससे फसल की उपज में 20 से 30 प्रतिशत तक की हानि होती है। यह कीट फसल की शुरूआत में अंकुरित अवस्था के समय में आक्रमण करता है और पत्तियों को खुरच खुरच कर खाकर अनियमित आकर के छेद कर देता है। तथा अधिक प्रकोप होने पर यह पत्तियों को पूरी तरह से खा जाता है। इससे नियंत्रण के लिए सुबह और शाम के समय आरा मक्खी के लार्वा को एकत्रित करके नष्ट कर दें। कीट के पत्ती खाने से बचाव हेतु 5 प्रतिशत नीम बीज आर्क का छिड़काव करें। कीट नियंत्रण हेतु फिप्रोनिल 5 एस. सी. की 500 मिली. दवा की मात्रा को प्रति हेक्टेयर की दर से सिचाई के पानी के साथ दें। इन्डॉक्साकार्ब 14.5 एस.सी. की 200 मिली. दवा अथवा इमामैक्टिन बेंजोएट 5 एस. जी. की 10 ग्राम दवा अथवा क्लोरएनट्रानिलीप्रोल 18.5 एस. सी. की 150 मिली. दवा की मात्रा को 600 से 700 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टर की दर से छिड़काव करें।